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ਮਨ ਕੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਨੀ ਹਉਮੈ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇ ॥
वे अपने मन की अवस्था को नहीं समझते, चूंकि उनके अहंकार एवं भ्रम ने ही उन्हें भटका दिया है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਭਉ ਪਇਆ ਵਡਭਾਗਿ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
गुरु की कृपा से ही मन में श्रद्धा-भावना पैदा होती है और सौभाग्य से ही भगवान मन में आकर अवस्थित होता है।
ਭੈ ਪਇਐ ਮਨੁ ਵਸਿ ਹੋਆ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇ ॥
जब भगवान के प्रति श्रद्धा भय उत्पन्न हो जाता है तो मन नियंत्रण में आ जाता है और शब्द के माध्यम से अहंकार जल कर राख हो जाता है।
ਸਚਿ ਰਤੇ ਸੇ ਨਿਰਮਲੇ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇ ॥
जो सत्य में मग्न हैं, वही निर्मल हैं और उनकी ज्योति परम ज्योति में विलीन हो जाती है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਨਾਉ ਪਾਇਆ ਨਾਨਕ ਸੁਖਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥
हे नानक ! सतगुरु से साक्षात्कार होने पर ही हरि-नाम की प्राप्ति हुई है और अब मैं सुख में लीन रहता हूँ ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी॥
ਏਹ ਭੂਪਤਿ ਰਾਣੇ ਰੰਗ ਦਿਨ ਚਾਰਿ ਸੁਹਾਵਣਾ ॥
ये राजाओं-महाराजाओं का ऐश्वर्य-वैभव चार दिनों के लिए सुहावना है (अर्थात् इनका भी नाश अवश्यंभावी है)
ਏਹੁ ਮਾਇਆ ਰੰਗੁ ਕਸੁੰਭ ਖਿਨ ਮਹਿ ਲਹਿ ਜਾਵਣਾ ॥
माया की यह बहारें कुसुंभ के फूल के रंग जैसी हैं, जो एक क्षण में ही उठ जाती हैं।
ਚਲਦਿਆ ਨਾਲਿ ਨ ਚਲੈ ਸਿਰਿ ਪਾਪ ਲੈ ਜਾਵਣਾ ॥
परलोक में जाते समय यह माया साथ नहीं जाती अपितु मनुष्य अपने पापों का बोझ अपने सिर पर उठाकर चल देता है।
ਜਾਂ ਪਕੜਿ ਚਲਾਇਆ ਕਾਲਿ ਤਾਂ ਖਰਾ ਡਰਾਵਣਾ ॥
जब मृत्यु उसे पकड़ कर आगे धकेलती है तो वह अत्यंत भयंकर लगता है।
ਓਹ ਵੇਲਾ ਹਥਿ ਨ ਆਵੈ ਫਿਰਿ ਪਛੁਤਾਵਣਾ ॥੬॥
जीवन का सुनहरी अवसर पुनः उसके हाथ नहीं आता और वह अंतः बहुत पश्चाताप करता है ॥६॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
श्लोक महला ३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਜੋ ਮੁਹ ਫਿਰੇ ਸੇ ਬਧੇ ਦੁਖ ਸਹਾਹਿ ॥
जो व्यक्ति सतगुरु की तरफ से मुँह मोड़ लेता है, वे यमपुरी में बंधे हुए दुःख सहन करता रहता है।
ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਮਿਲਣੁ ਨ ਪਾਇਨੀ ਜੰਮਹਿ ਤੈ ਮਰਿ ਜਾਹਿ ॥
वह बार-बार जन्मता-मरता रहता है और उसका भगवान से मिलन नहीं होता।
ਸਹਸਾ ਰੋਗੁ ਨ ਛੋਡਈ ਦੁਖ ਹੀ ਮਹਿ ਦੁਖ ਪਾਹਿ ॥
उसका संशय-चिंता का रोग दूर नहीं होता और दुःख में ही वह बहुत दुःखी होता रहता है।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਬਖਸਿ ਲੇਹਿ ਸਬਦੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਹਿ ॥੧॥
हे नानक ! यद्यपि परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि से जीव को क्षमा कर दे तो वह उसे शब्द द्वारा अपने साथ मिला लेता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਜੋ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਮੁਹ ਫਿਰੇ ਤਿਨਾ ਠਉਰ ਨ ਠਾਉ ॥
जो व्यक्ति सतगुरु की तरफ से मुंह मोड़ लेते हैं, अर्थात् विमुख हो जाते हैं, उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलती।
ਜਿਉ ਛੁਟੜਿ ਘਰਿ ਘਰਿ ਫਿਰੈ ਦੁਹਚਾਰਣਿ ਬਦਨਾਉ ॥
वे तो छोड़ी हुई स्त्री की भांति घर-घर भटकते रहते हैं और दुराचारिणी के नाम से बदनाम होते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਖਸੀਅਹਿ ਸੇ ਸਤਿਗੁਰ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਉ ॥੨॥
हे नानक ! जिन गुरुमुखों को क्षमादान मिल जाता है, सतगुरु उन्हें ईश्वर से मिला देता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी॥
ਜੋ ਸੇਵਹਿ ਸਤਿ ਮੁਰਾਰਿ ਸੇ ਭਵਜਲ ਤਰਿ ਗਇਆ ॥
जो व्यक्ति परम-सत्य प्रभु की आराधना करते हैं, वे भवसागर से पार हो जाते हैं।
ਜੋ ਬੋਲਹਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਉ ਤਿਨ ਜਮੁ ਛਡਿ ਗਇਆ ॥
जो हरि-नाम बोलते रहते हैं, उन्हें यमराज भी छोड़कर दूर हो गया है।
ਸੇ ਦਰਗਹ ਪੈਧੇ ਜਾਹਿ ਜਿਨਾ ਹਰਿ ਜਪਿ ਲਇਆ ॥
जो परमात्मा का जाप करते हैं, वे सत्कृत होकर उसके दरबार में जाते हैं।
ਹਰਿ ਸੇਵਹਿ ਸੇਈ ਪੁਰਖ ਜਿਨਾ ਹਰਿ ਤੁਧੁ ਮਇਆ ॥
हे परमेश्वर ! जिन पर तुम्हारी कृपा है, वही पुरुष तेरी उपासना करते हैं।
ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਪਿਆਰੇ ਨਿਤ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭ੍ਰਮ ਭਉ ਗਇਆ ॥੭॥
हे मेरे प्यारे ! मैं सर्वदा ही तेरे गुण गाता रहता हूँ और गुरु के माध्यम से मेरा भ्रम एवं भय नष्ट हो गया है॥ ७ ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
श्लोक महला ३॥
ਥਾਲੈ ਵਿਚਿ ਤੈ ਵਸਤੂ ਪਈਓ ਹਰਿ ਭੋਜਨੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸਾਰੁ ॥
थाल में तीन वस्तुएँ-सत्य, संतोष एवं सिमरन को परोसा हुआ है, यह हरिनामामृत रूपी सर्वोत्तम भोजन है,"
ਜਿਤੁ ਖਾਧੈ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤੀਐ ਪਾਈਐ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
जिसे खाने से मन तृप्त हो जाता है और मोक्ष का द्वार सहज ही मिल जाता है।
ਇਹੁ ਭੋਜਨੁ ਅਲਭੁ ਹੈ ਸੰਤਹੁ ਲਭੈ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਿ ॥
हे संतो ! यह नामामृत रूपी भोजन बड़ा दुर्लभ है और गुरु के ज्ञान को सोचने-समझाने से ही इसकी उपलब्धि होती है।
ਏਹ ਮੁਦਾਵਣੀ ਕਿਉ ਵਿਚਹੁ ਕਢੀਐ ਸਦਾ ਰਖੀਐ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥
यह पहेली अपने हृदय में से कैसे निकालें? हरि-नाम की इस पहेली को अपने हृदय में धारण करके रखना चाहिए।
ਏਹ ਮੁਦਾਵਣੀ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪਾਈ ਗੁਰਸਿਖਾ ਲਧੀ ਭਾਲਿ ॥
यह पहेली सतगुरु ने ही स्थापित की है और इसका समाधान गुरु के शिष्यों ने बड़ी खोज के उपरांत ढूंढ लिया है।
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਬੁਝਾਏ ਸੁ ਬੁਝਸੀ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਘਾਲਿ ॥੧॥
हे नानक ! जिसे वह सूझ-बूझ प्रदान करता है, वही इस पहेली को बूझता है। कठिन साधना के द्वारा गुरुमुख भगवान को प्राप्त कर लेते हैं।॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
महला ३॥
ਜੋ ਧੁਰਿ ਮੇਲੇ ਸੇ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਸਤਿਗੁਰ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥
जिन्हें आदि से परमेश्वर ने मिलाया है, वे उससे मिले रहते हैं और अपना चित गुरु के साथ लगाते हैं।
ਆਪਿ ਵਿਛੋੜੇਨੁ ਸੇ ਵਿਛੁੜੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਇ ॥
जिन्हें वह स्वयं जुदा करता है, वे उससे जुदा रहते हैं और द्वैतभाव के कारण तंग होते हैं।
ਨਾਨਕ ਵਿਣੁ ਕਰਮਾ ਕਿਆ ਪਾਈਐ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਕਮਾਇ ॥੨॥
हे नानक ! भगवान की कृपा के बिना क्या प्राप्त हो सकता है? मनुष्य वही कर्म करता है, जो उसके भाग्य में प्रारम्भ से ही लिखा होता है।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी॥
ਬਹਿ ਸਖੀਆ ਜਸੁ ਗਾਵਹਿ ਗਾਵਣਹਾਰੀਆ ॥
यश गाने वाली सत्संगी सखियाँ साथ बैठकर हरि का यशगान करती हैं।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਿਹੁ ਨਿਤ ਹਰਿ ਕਉ ਬਲਿਹਾਰੀਆ ॥
वह नित्य ही हरि-नाम की स्तुति करती हैं और हरि पर न्योछावर होती हैं।
ਜਿਨੀ ਸੁਣਿ ਮੰਨਿਆ ਹਰਿ ਨਾਉ ਤਿਨਾ ਹਉ ਵਾਰੀਆ ॥
जिन्होंने हरि-नाम सुनकर उस पर आस्था रखी है, मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर होता हूँ।
ਗੁਰਮੁਖੀਆ ਹਰਿ ਮੇਲੁ ਮਿਲਾਵਣਹਾਰੀਆ ॥
हे परमेश्वर ! मेरा गुरुमुख सत्संगी सखियों से मिलाप करवा दो, जो मुझे तेरे साथ मिलाने में समर्थ है।
ਹਉ ਬਲਿ ਜਾਵਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ਗੁਰ ਦੇਖਣਹਾਰੀਆ ॥੮॥
मैं तो दिन-रात उन पर बलिहारी जाता हूँ, जो अपने गुरु के दर्शन करती रहती हैं।॥८॥