Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 644

Page 644

ਧੰਧਾ ਕਰਤਿਆ ਨਿਹਫਲੁ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ਸੁਖਦਾਤਾ ਮਨਿ ਨ ਵਸਾਇਆ ॥ सांसारिक कार्य करता हुआ मनुष्य अपना जीवन निष्फल ही गंवा देता है और सुखों के दाता भगवान को अपने मन में नहीं बसाता।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਤਿਨਾ ਕਉ ਮਿਲਿਆ ਜਿਨ ਕਉ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥੧॥ हे नानक ! परमात्मा का नाम उन्हें ही मिला है, जिनके भाग्य में इस तरह जन्म से पूर्व प्रारम्भ से लिखा हुआ है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥
ਘਰ ਹੀ ਮਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਭਰਪੂਰੁ ਹੈ ਮਨਮੁਖਾ ਸਾਦੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥ मन रूपी घर में ही अमृत भरपूर है किन्तु मनमुख इसके आनंद को नहीं जानते।
ਜਿਉ ਕਸਤੂਰੀ ਮਿਰਗੁ ਨ ਜਾਣੈ ਭ੍ਰਮਦਾ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇਆ ॥ जैसे कोई मृग नाभि में ही कस्तूरी होने के बावजूद उसे नहीं जानता और दुविधा में पड़ कर भटकता ही रहता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤਜਿ ਬਿਖੁ ਸੰਗ੍ਰਹੈ ਕਰਤੈ ਆਪਿ ਖੁਆਇਆ ॥ स्वेच्छाचारी व्यक्ति नामामृत को त्याग कर मोह-माया रूपी विष को ही संचित करता रहता है और स्वयं को नष्ट करते रहते है,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਿਰਲੇ ਸੋਝੀ ਪਈ ਤਿਨਾ ਅੰਦਰਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਦਿਖਾਇਆ ॥ किसी विरले गुरुमुख को ही ज्ञान की प्राप्ति हुई है और उसने अपने अन्तर्मन में ही ब्रह्म के दर्शन किए हैं।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਹੋਇਆ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਸਾਦੁ ਆਇਆ ॥ फिर उसका तन एवं मन शीतल हो गया है और उसकी जिव्हा को हरि-नाम का स्वाद आ गया है।
ਸਬਦੇ ਹੀ ਨਾਉ ਊਪਜੈ ਸਬਦੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥ गुरु-शब्द से ही हृदय में नाम पैदा होता है और शब्द-गुरु ने सत्य से मेल करवाया है।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਸਭੁ ਜਗੁ ਬਉਰਾਨਾ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥ शब्द के बिना यह समूचा जगत पागल है और इसने अपना जन्म व्यर्थ ही गंवा दिया है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਏਕੋ ਸਬਦੁ ਹੈ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ॥੨॥ हे नानक ! एक शब्द ही अमृत है, जिसकी उपलब्धि गुरु के माध्यम से होती है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी॥
ਸੋ ਹਰਿ ਪੁਰਖੁ ਅਗੰਮੁ ਹੈ ਕਹੁ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਪਾਈਐ ॥ वह परमपुरुष प्रभु अगम्य है। बताओ, किस विधि से उसे पाया जा सकता है?
ਤਿਸੁ ਰੂਪੁ ਨ ਰੇਖ ਅਦ੍ਰਿਸਟੁ ਕਹੁ ਜਨ ਕਿਉ ਧਿਆਈਐ ॥ उसका न कोई रूप है, न ही कोई चिन्ह है और वह अदृश्य है।
ਨਿਰੰਕਾਰੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹਰਿ ਅਗਮੁ ਕਿਆ ਕਹਿ ਗੁਣ ਗਾਈਐ ॥ हे भक्तजनों ! बताओ, उसका कैसे ध्यान-मनन किया जाए ? वह प्रभु निराकार, मायातीत एवं अपहुँच है।
ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਬੁਝਾਏ ਆਪਿ ਸੁ ਹਰਿ ਮਾਰਗਿ ਪਾਈਐ ॥ फिर क्या कहकर उसका गुणगान करें ? जिसे वह स्वयं मार्गदर्शन करता है, वही व्यक्ति उसके मार्ग पर चल देता है।
ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਵੇਖਾਲਿਆ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਪਾਈਐ ॥੪॥ पूर्ण गुरु ने हमें भगवान के दर्शन करा दिए हैं और गुरु की सेवा करने से ही उसकी प्राप्ति होती है॥ ४॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३॥
ਜਿਉ ਤਨੁ ਕੋਲੂ ਪੀੜੀਐ ਰਤੁ ਨ ਭੋਰੀ ਡੇਹਿ ॥ चाहे तिलों की तरह मेरे तन को कोल्हू में पीसा जाए और इस में से थोड़ा-सा भी रक्त नहीं रहने दिया जाये
ਜੀਉ ਵੰਞੈ ਚਉ ਖੰਨੀਐ ਸਚੇ ਸੰਦੜੈ ਨੇਹਿ ॥ चाहे मेरे चार टुकड़े कर दिए जाएँ, पर सच्चे प्रभु से मेरा जो प्रेम है
ਨਾਨਕ ਮੇਲੁ ਨ ਚੁਕਈ ਰਾਤੀ ਅਤੈ ਡੇਹ ॥੧॥ हे नानक !यह प्रभु से मिलन रात-दिन कभी भी समाप्त नहीं होगा।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥
ਸਜਣੁ ਮੈਡਾ ਰੰਗੁਲਾ ਰੰਗੁ ਲਾਏ ਮਨੁ ਲੇਇ ॥ मेरा सज्जन प्रभु बड़ा रंगीला है।
ਜਿਉ ਮਾਜੀਠੈ ਕਪੜੇ ਰੰਗੇ ਭੀ ਪਾਹੇਹਿ ॥ वह अपना प्रेम प्रदान करके मन को इस तरह मोह लेता है जैसे मजीठ के साथ कपड़े रंग दिए जाते हैं।
ਨਾਨਕ ਰੰਗੁ ਨ ਉਤਰੈ ਬਿਆ ਨ ਲਗੈ ਕੇਹ ॥੨॥ हे नानक ! यह रंग फिर कभी भी उतरता नहीं तथा कोई अन्य रंग मन को नहीं लगता॥२ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी।
ਹਰਿ ਆਪਿ ਵਰਤੈ ਆਪਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਬੁਲਾਇਦਾ ॥ परमेश्वर स्वयं ही सब जीवों में व्यापक है और वह स्वयं ही जीव को बुलवाता है।
ਹਰਿ ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਵਾਰਿ ਸਿਰਿ ਧੰਧੈ ਲਾਇਦਾ ॥ वह स्वयं ही सृष्टि-रचना करके जीवों को कामकाज में लगाता है।
ਇਕਨਾ ਭਗਤੀ ਲਾਇ ਇਕਿ ਆਪਿ ਖੁਆਇਦਾ ॥ वह किसी को अपनी भक्ति में लगा देता है और किसी को स्वयं ही कुपथ प्रदान कर देता है।
ਇਕਨਾ ਮਾਰਗਿ ਪਾਇ ਇਕਿ ਉਝੜਿ ਪਾਇਦਾ ॥ वह किसी को सन्मार्ग प्रदान करता है और किसी को वीराने में धकेल देता है।
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗੁਣ ਗਾਇਦਾ ॥੫॥ नानक तो परमात्मा के नाम का ध्यान करता और गुरु के सान्निध्य में उसका ही गुणगान करता है ॥५॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਸਫਲੁ ਹੈ ਜੇ ਕੋ ਕਰੇ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥ सतगुरु की सेवा तभी फलदायक है, यदि कोई इसे मन लगाकर करता है।
ਮਨਿ ਚਿੰਦਿਆ ਫਲੁ ਪਾਵਣਾ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥ इस तरह मनचाहा फल मिल जाता है और अन्तर्मन से अहंकार का नाश हो जाता है।
ਬੰਧਨ ਤੋੜੈ ਮੁਕਤਿ ਹੋਇ ਸਚੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥ ऐसा पुरुष अपने बंधनों को तोड़ कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है और सत्य में ही समाया रहता है।
ਇਸੁ ਜਗ ਮਹਿ ਨਾਮੁ ਅਲਭੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥ इस दुनिया में भगवान का नाम बड़ा दुर्लभ है और गुरुमुख बन कर ही यह मन में आकर स्थित होता है।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਗੁਰੁ ਸੇਵਹਿ ਆਪਣਾ ਹਉ ਤਿਨ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੧॥ हे नानक ! जो अपने गुरु की सेवा करता है, मैं उस पर कुर्बान जाता हूँ॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥
ਮਨਮੁਖ ਮੰਨੁ ਅਜਿਤੁ ਹੈ ਦੂਜੈ ਲਗੈ ਜਾਇ ॥ मनमुख व्यक्ति का मन नियंत्रण से बाहर है, चूंकि वह तो द्वैतभाव में ही लिप्त रहता है।
ਤਿਸ ਨੋ ਸੁਖੁ ਸੁਪਨੈ ਨਹੀ ਦੁਖੇ ਦੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥ उसे स्वप्न में भी सुख की उपलब्धि नहीं होती है और वह अपना जीवन अत्यंत कष्टों में ही व्यतीत कर देता है।
ਘਰਿ ਘਰਿ ਪੜਿ ਪੜਿ ਪੰਡਿਤ ਥਕੇ ਸਿਧ ਸਮਾਧਿ ਲਗਾਇ ॥ पण्डित घर-घर में जाकर धर्म-ग्रंथों का पाठ पढ़-पढ़कर और सिद्ध पुरुष समाधि लगा-लगाकर थक गए हैं।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਵਸਿ ਨ ਆਵਈ ਥਕੇ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥ लोग अनेकों ही कर्म कर करके थक गए हैं परन्तु उनका यह मन वश में नहीं आता।
ਭੇਖਧਾਰੀ ਭੇਖ ਕਰਿ ਥਕੇ ਅਠਿਸਠਿ ਤੀਰਥ ਨਾਇ ॥ अधिक वेष धारण करके बहुत सारे वेषधारी अड़सठ तीर्थों पर स्नान करके भी थक गए हैं।


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