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ਮਨਮੁਖ ਮੂਲਹੁ ਭੁਲਾਇਅਨੁ ਵਿਚਿ ਲਬੁ ਲੋਭੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
मनमुख मूलहु भुलाइअनु विचि लबु लोभु अहंकारु ॥
भगवान् ने स्वेच्छाचारी लोगों को त्याग दिया है, क्योंकि वे लालच और अहंकार में डूबे हुए हैं।
ਝਗੜਾ ਕਰਦਿਆ ਅਨਦਿਨੁ ਗੁਦਰੈ ਸਬਦਿ ਨ ਕਰੈ ਵੀਚਾਰੁ ॥
झगड़ा करदिआ अनदिनु गुदरै सबदि न करै वीचारु ॥
झगड़ा करते हुए ही उसके रात-दिन गुजर जाते हैं और वह गुरु शब्द का चिंतन नहीं करता।
ਸੁਧਿ ਮਤਿ ਕਰਤੈ ਹਿਰਿ ਲਈ ਬੋਲਨਿ ਸਭੁ ਵਿਕਾਰੁ ॥
सुधि मति करतै हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥
रचयिता प्रभु ने उसकी शुद्ध बुद्धि छीन ली है, सो उसके सभी वचन विकारों से भरे हुए होते हैं।
ਦਿਤੈ ਕਿਤੈ ਨ ਸੰਤੋਖੀਅਨਿ ਅੰਤਰਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬਹੁਤੁ ਅਗ੍ਯ੍ਯਾਨੁ ਅੰਧਾਰੁ ॥
दितै कितै न संतोखीअनि अंतरि त्रिसना बहुतु अग्यानु अंधारु ॥
ऐसे लोगों को चाहे जितना भी दे दिया जाए, वे संतोषवान नहीं होते, क्योंकि उनके अन्तर्मन में तृष्णा तथा अत्याधिक अज्ञान का अंधकार होता है।
ਨਾਨਕ ਮਨਮੁਖਾ ਨਾਲਹੁ ਤੁਟੀਆ ਭਲੀ ਜਿਨਾ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਪਿਆਰੁ ॥੧॥
नानक मनमुखा नालहु तुटीआ भली जिना माइआ मोहि पिआरु ॥१॥
हे नानक ! इन स्वेच्छाचारी जीवों से तो संबंध विच्छेद ही भला है, जिन्हें माया-मोह से भरपूर प्रेम है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु: ३।
ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਭਉ ਸੰਸਾ ਕਿਆ ਕਰੇ ਜਿਨ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਰਿ ਕਰਤਾਰੁ ॥
तिन्ह भउ संसा किआ करे जिन सतिगुरु सिरि करतारु ॥
जिन सेवकों का सतगुरु करतार रखवाला है, उन्हें भय एवं संशय क्या प्रभावित कर सकते हैं?
ਧੁਰਿ ਤਿਨ ਕੀ ਪੈਜ ਰਖਦਾ ਆਪੇ ਰਖਣਹਾਰੁ ॥
धुरि तिन की पैज रखदा आपे रखणहारु ॥
आदिकाल से रक्षक परमात्मा स्वयं ही उनकी प्रतिष्ठा बचाते रहे हैं।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥
वे सच्चे शब्द का चिंतन करते है और अपने प्रियतम से मिलकर सुख की अनुभूति करते है।
ਨਾਨਕ ਸੁਖਦਾਤਾ ਸੇਵਿਆ ਆਪੇ ਪਰਖਣਹਾਰੁ ॥੨॥
नानक सुखदाता सेविआ आपे परखणहारु ॥२॥
है नानक ! हमने उस सुखदाता परमात्मा की उपासना की है, जो आप ही परख करने वाला (पारखी) है।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी।
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਤੇਰਿਆ ਤੂ ਸਭਨਾ ਰਾਸਿ ॥
जीअ जंत सभि तेरिआ तू सभना रासि ॥
हे ईश्वर ! यह सभी जीव-जन्तु आपके ही हैं और आप इन सबकी पूंजी है।
ਜਿਸ ਨੋ ਤੂ ਦੇਹਿ ਤਿਸੁ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਮਿਲੈ ਕੋਈ ਹੋਰੁ ਸਰੀਕੁ ਨਾਹੀ ਤੁਧੁ ਪਾਸਿ ॥
जिस नो तू देहि तिसु सभु किछु मिलै कोई होरु सरीकु नाही तुधु पासि ॥
जिसे भी आप अपना आशीर्वाद देते हैं, उसे सब कुछ मिल जाता है और आपका प्रतिद्वंदी कोई नहीं है।
ਤੂ ਇਕੋ ਦਾਤਾ ਸਭਸ ਦਾ ਹਰਿ ਪਹਿ ਅਰਦਾਸਿ ॥
तू इको दाता सभस दा हरि पहि अरदासि ॥
हे हरि ! हमारी तुझसे ही प्रार्थना है, तू ही सब जीवों का एक दाता है।
ਜਿਸ ਦੀ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸ ਦੀ ਤੂ ਮੰਨਿ ਲੈਹਿ ਸੋ ਜਨੁ ਸਾਬਾਸਿ ॥
जिस दी तुधु भावै तिस दी तू मंनि लैहि सो जनु साबासि ॥
जिसकी प्रार्थना आपको अच्छी लगती है, आप उसकी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हो और ऐसा भक्त बड़ा भाग्यशाली है।
ਸਭੁ ਤੇਰਾ ਚੋਜੁ ਵਰਤਦਾ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਤੁਧੁ ਪਾਸਿ ॥੨॥
सभु तेरा चोजु वरतदा दुखु सुखु तुधु पासि ॥२॥
हे स्वामी ! हर जगह आपका ही खेल हो रहा है, हम जीवों का दु:ख-सुख आपके ही सम्मुख है॥ २ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक, तृतीय गुरु: ३ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੈ ਭਾਵਦੇ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਚਿਆਰ ॥
गुरमुखि सचै भावदे दरि सचै सचिआर ॥
गुरुमुख मनुष्य सच्चे परमात्मा को बहुत अच्छे लगते हैं एवं सत्य के दरबार में उन्हें सत्यवादी माना जाता है।
ਸਾਜਨ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ਹੈ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰ ॥
साजन मनि आनंदु है गुर का सबदु वीचार ॥
ऐसे सज्जन के मन में आनंद बना रहता है वे हमेशा गुरु के शब्द पर विचार करते रहते हैं।
ਅੰਤਰਿ ਸਬਦੁ ਵਸਾਇਆ ਦੁਖੁ ਕਟਿਆ ਚਾਨਣੁ ਕੀਆ ਕਰਤਾਰਿ ॥
अंतरि सबदु वसाइआ दुखु कटिआ चानणु कीआ करतारि ॥
वे अपने अन्तर्मन में शब्द को बसाते हैं, जिससे उनका दु:ख दूर हो जाता है और सृष्टिकर्ता उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं।
ਨਾਨਕ ਰਖਣਹਾਰਾ ਰਖਸੀ ਆਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥੧॥
नानक रखणहारा रखसी आपणी किरपा धारि ॥१॥
हे नानक ! सारी दुनिया के रखवाले प्रभु अपनी कृपा करके उनकी रक्षा करते हैं॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु:३ ॥
ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਚਾਕਰੀ ਭੈ ਰਚਿ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥
गुर की सेवा चाकरी भै रचि कार कमाइ ॥
गुरु की सेवा-चाकरी उसके भय में रहकर ही करनी चाहिए।
ਜੇਹਾ ਸੇਵੈ ਤੇਹੋ ਹੋਵੈ ਜੇ ਚਲੈ ਤਿਸੈ ਰਜਾਇ ॥
जेहा सेवै तेहो होवै जे चलै तिसै रजाइ ॥
जो अपने गुरु की इच्छानुसार चलता है, वह वैसा ही हो जाता है, जैसी वह सेवा करता है।
ਨਾਨਕ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪਿ ਹੈ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜੀ ਜਾਇ ॥੨॥
नानक सभु किछु आपि है अवरु न दूजी जाइ ॥२॥
है नानक ! परमात्मा आप ही सब कुछ है और आपके अतिरिक्त अन्यत्र कोई आश्रय-स्थल नहीं है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी।
ਤੇਰੀ ਵਡਿਆਈ ਤੂਹੈ ਜਾਣਦਾ ਤੁਧੁ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥
तेरी वडिआई तूहै जाणदा तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥
हे ईश्वर! अपनी बड़ाई को आप स्वयं ही जानते हैं और आप जैसा महान दूसरा कोई नहीं।
ਤੁਧੁ ਜੇਵਡੁ ਹੋਰੁ ਸਰੀਕੁ ਹੋਵੈ ਤਾ ਆਖੀਐ ਤੁਧੁ ਜੇਵਡੁ ਤੂਹੈ ਹੋਈ ॥
तुधु जेवडु होरु सरीकु होवै ता आखीऐ तुधु जेवडु तूहै होई ॥
यदि आपके समान कोई महान् प्रतिद्वन्द्वी होता, तो उसका उल्लेख करते; परन्तु आप ही अपने समान हैं, आपके समकक्ष कोई नहीं है।
ਜਿਨਿ ਤੂ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਹੋਰੁ ਤਿਸ ਦੀ ਰੀਸ ਕਰੇ ਕਿਆ ਕੋਈ ॥
जिनि तू सेविआ तिनि सुखु पाइआ होरु तिस दी रीस करे किआ कोई ॥
हे प्रभु! जिन्होंने भी आपकी उपासना की है, उन्हें सुख ही उपलब्ध हुआ है, अन्य कौन उसकी बराबरी कर सकता है ?आपपके
ਤੂ ਭੰਨਣ ਘੜਣ ਸਮਰਥੁ ਦਾਤਾਰੁ ਹਹਿ ਤੁਧੁ ਅਗੈ ਮੰਗਣ ਨੋ ਹਥ ਜੋੜਿ ਖਲੀ ਸਭ ਹੋਈ ॥
तू भंनण घड़ण समरथु दातारु हहि तुधु अगै मंगण नो हथ जोड़ि खली सभ होई ॥
हे दाता, आप निर्माण एवं विनाश करने में सर्वशक्तिमान है और आपके समक्ष सारी दुनिया हाथ जोड़कर माँगने हेतु खड़ी हुई है।
ਤੁਧੁ ਜੇਵਡੁ ਦਾਤਾਰੁ ਮੈ ਕੋਈ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਈ ਤੁਧੁ ਸਭਸੈ ਨੋ ਦਾਨੁ ਦਿਤਾ ਖੰਡੀ ਵਰਭੰਡੀ ਪਾਤਾਲੀ ਪੁਰਈ ਸਭ ਲੋਈ ॥੩॥
तुधु जेवडु दातारु मै कोई नदरि न आवई तुधु सभसै नो दानु दिता खंडी वरभंडी पाताली पुरई सभ लोई ॥३॥
आपके जैसा दानवीर मुझे कोई नज़र नहीं आता, आपने ही खण्डों, ग्रहाण्डों, पातालों, पुरियों, सभी लोकों तथा समस्त जीवों को दान प्रदान किया हुआ है॥३॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक तृतीय गुरु:३।
ਮਨਿ ਪਰਤੀਤਿ ਨ ਆਈਆ ਸਹਜਿ ਨ ਲਗੋ ਭਾਉ ॥
मनि परतीति न आईआ सहजि न लगो भाउ ॥
हे जीव ! यदि तेरे मन में प्रभु के प्रति आस्था नहीं तो सहजावस्था में तुम उससे स्नेह नहीं करते।
ਸਬਦੈ ਸਾਦੁ ਨ ਪਾਇਓ ਮਨਹਠਿ ਕਿਆ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
सबदै सादु न पाइओ मनहठि किआ गुण गाइ ॥
तूने शब्द के स्वाद को प्राप्त नहीं किया, फिर मन के हठ से प्रभु का क्या यशोगान करोगे?
ਨਾਨਕ ਆਇਆ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ਹੈ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥
नानक आइआ सो परवाणु है जि गुरमुखि सचि समाइ ॥१॥
हे नानक ! इस दुनिया में उस जीव का आगमन सफल है जो गुरुमुख बनकर सत्य में समा जाता है॥ १ ॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तृतीय गुरु:३ ॥
ਆਪਣਾ ਆਪੁ ਨ ਪਛਾਣੈ ਮੂੜਾ ਅਵਰਾ ਆਖਿ ਦੁਖਾਏ ॥
आपणा आपु न पछाणै मूड़ा अवरा आखि दुखाए ॥
विमूढ़ जीव अपने आप (अहं) की पहचान नहीं करता किन्तु अन्य लोगों को मंदे वचनों द्वाअलगरा दुःखी करता रहता है।
ਮੁੰਢੈ ਦੀ ਖਸਲਤਿ ਨ ਗਈਆ ਅੰਧੇ ਵਿਛੁੜਿ ਚੋਟਾ ਖਾਏ ॥
मुंढै दी खसलति न गईआ अंधे विछुड़ि चोटा खाए ॥
विमूढ़ जीव का मूल स्वभाव नहीं बदला और परमात्मा से अलग होकर वह दण्ड भोगता रहता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭੈ ਭੰਨਿ ਨ ਘੜਿਓ ਰਹੈ ਅੰਕਿ ਸਮਾਏ ॥
सतिगुर कै भै भंनि न घड़िओ रहै अंकि समाए ॥
सच्चे गुरु के भय द्वारा उसने अपने स्वभाव को बदलकर सुधार नहीं किया जिससे वह प्रभु की गोद में लीन हुआ रहे।