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ਜਮ ਕਾ ਡੰਡੁ ਮੂੰਡ ਮਹਿ ਲਾਗੈ ਖਿਨ ਮਹਿ ਕਰੈ ਨਿਬੇਰਾ ॥੩॥
जब यम का दण्ड उसके सिर पर पड़ता है तो एक क्षण में ही निर्णय हो जाता है अर्थात् जब मनुष्य का देहांत हो जाता है तो धन वही रह जाता है॥ ३॥
ਹਰਿ ਜਨੁ ਊਤਮੁ ਭਗਤੁ ਸਦਾਵੈ ਆਗਿਆ ਮਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ॥
हरि का सेवक उत्तम भक्त कहलाता है और वह हरि की आज्ञा मानकर सुख प्राप्त करता है।
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸਤਿ ਕਰਿ ਮਾਨੈ ਭਾਣਾ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈ ॥੪॥
जो हरि को अच्छा लगता है, वह ईश्वरेच्छा को सत्य मानकर स्वीकृत करता है और अपने मन में बसाता है॥ ४॥
ਕਹੈ ਕਬੀਰੁ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਸੰਤਹੁ ਮੇਰੀ ਮੇਰੀ ਝੂਠੀ ॥
कबीर जी कहते हैं कि हे संतजनो ! सुनो, यह मैं-मेरी की रट झूठी है क्योंकि
ਚਿਰਗਟ ਫਾਰਿ ਚਟਾਰਾ ਲੈ ਗਇਓ ਤਰੀ ਤਾਗਰੀ ਛੂਟੀ ॥੫॥੩॥੧੬॥
मृत्यु (जीवात्मा रूपी) पक्षी के पिंजरे (रूपी शरीर) को फाड़कर आत्मा को ले जाती है और निर्जीव शरीर रूपी धागे वहीं टूट जाते हैं।॥ ५॥ ३॥ १६॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਹਮ ਮਸਕੀਨ ਖੁਦਾਈ ਬੰਦੇ ਤੁਮ ਰਾਜਸੁ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥
हे काजी ! हम ईश्वर के विनम्र सेवक हैं और सभी मानव एक ही निर्माता की संतान हैं, तुम प्रजा पर अत्याचार करके शासन में अभिमान करते हो।
ਅਲਹ ਅਵਲਿ ਦੀਨ ਕੋ ਸਾਹਿਬੁ ਜੋਰੁ ਨਹੀ ਫੁਰਮਾਵੈ ॥੧॥
हालाँकि सर्वशक्तिमान ईश्वर, जो गरीबों का पालनहार है और वह किसी पर अत्याचार करने की आज्ञा नहीं देता॥ १॥
ਕਾਜੀ ਬੋਲਿਆ ਬਨਿ ਨਹੀ ਆਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हे काजी ! तेरे मुंह से निकली बातें अच्छी नहीं लगतीं ॥ १॥
ਰੋਜਾ ਧਰੈ ਨਿਵਾਜ ਗੁਜਾਰੈ ਕਲਮਾ ਭਿਸਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥
रोजा रखने, नमाज पढ़ने और कलमा पढ़ने से जन्नत (स्वर्ग) नहीं मिलती।
ਸਤਰਿ ਕਾਬਾ ਘਟ ਹੀ ਭੀਤਰਿ ਜੇ ਕਰਿ ਜਾਨੈ ਕੋਈ ॥੨॥
अल्लाह का घर काबा तो तेरे अन्तर्मन के भीतर ही है परन्तु मिलता तभी है यदि कोई इस भेद को जान ले ॥ २ ॥
ਨਿਵਾਜ ਸੋਈ ਜੋ ਨਿਆਉ ਬਿਚਾਰੈ ਕਲਮਾ ਅਕਲਹਿ ਜਾਨੈ ॥
जो न्याय का विचार करता है, वही सच्ची नमाज पढ़ता है। यदि कोई अल्लाह को पहचानता है तो वही उसका कलमा है।
ਪਾਚਹੁ ਮੁਸਿ ਮੁਸਲਾ ਬਿਛਾਵੈ ਤਬ ਤਉ ਦੀਨੁ ਪਛਾਨੈ ॥੩॥
जो मनुष्य पांच विकारों को मारकर वश में करता है तो नमाज का मुसल्ला (आसन) बिछाता है और धर्म को पहचानता है॥ ३॥
ਖਸਮੁ ਪਛਾਨਿ ਤਰਸ ਕਰਿ ਜੀਅ ਮਹਿ ਮਾਰਿ ਮਣੀ ਕਰਿ ਫੀਕੀ ॥
हे काजी ! अपने मालिक-खुदा को पहचान और अपने मन में तरस धारण कर तू अपने अहंत्व को मिटाकर फीका कर दे।
ਆਪੁ ਜਨਾਇ ਅਵਰ ਕਉ ਜਾਨੈ ਤਬ ਹੋਇ ਭਿਸਤ ਸਰੀਕੀ ॥੪॥
जब मनुष्य अपने आपको समझा कर दूसरों को अपने जैसा समझता है तो वह जन्नत (स्वर्ग) के योग्य बन जाता है।॥ ४॥
ਮਾਟੀ ਏਕ ਭੇਖ ਧਰਿ ਨਾਨਾ ਤਾ ਮਹਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਨਾ ॥
मिट्टी तो एक ही है परन्तु इसने अनेक स्वरूप धारण किए हुए हैं। मैं उन सभी में एक परमात्मा को ही पहचानता हूँ।
ਕਹੈ ਕਬੀਰਾ ਭਿਸਤ ਛੋਡਿ ਕਰਿ ਦੋਜਕ ਸਿਉ ਮਨੁ ਮਾਨਾ ॥੫॥੪॥੧੭॥
कबीर जी कहते हैं कि हे काजी ! तूने तो जन्नत (स्वर्ग) के मार्ग को त्याग कर अपना मन जानबूझ कर दोजख (नरक) से जोड़ लिया है॥ ५ ॥ ४॥ १७॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਗਗਨ ਨਗਰਿ ਇਕ ਬੂੰਦ ਨ ਬਰਖੈ ਨਾਦੁ ਕਹਾ ਜੁ ਸਮਾਨਾ ॥
दशम द्वार रूपी गगन नगरी में अब एक बूंद भी नहीं बरसती। कहाँ है वह नाद जो इसके भीतर समाया हुआ था।
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਪਰਮੇਸੁਰ ਮਾਧੋ ਪਰਮ ਹੰਸੁ ਲੇ ਸਿਧਾਨਾ ॥੧॥
ब्रहा-परमेश्वर आत्मा रुपी परमहंस को ले गया है॥ १॥
ਬਾਬਾ ਬੋਲਤੇ ਤੇ ਕਹਾ ਗਏ ਦੇਹੀ ਕੇ ਸੰਗਿ ਰਹਤੇ ॥
हे बाबा ! जो आत्मा बातें करती एवं शरीर के साथ रहती थी, वह कहाँ चली गई है ?
ਸੁਰਤਿ ਮਾਹਿ ਜੋ ਨਿਰਤੇ ਕਰਤੇ ਕਥਾ ਬਾਰਤਾ ਕਹਤੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
वह आत्मा मन में नृत्य करती थी और कथा-वार्ता करती थी ॥ १॥ रहाउ
ਬਜਾਵਨਹਾਰੋ ਕਹਾ ਗਇਓ ਜਿਨਿ ਇਹੁ ਮੰਦਰੁ ਕੀਨ੍ਹ੍ਹਾ ॥
जो उन विचारों के पीछे का वास्तविक विचारक था वह आत्मा कहाँ चली गई है जिसने इस शरीर रूपी मन्दिर को अपना बनाया हुआ था ?
ਸਾਖੀ ਸਬਦੁ ਸੁਰਤਿ ਨਹੀ ਉਪਜੈ ਖਿੰਚਿ ਤੇਜੁ ਸਭੁ ਲੀਨ੍ਹ੍ਹਾ ॥੨॥
कोई साखी, शब्द, चेतना पैदा नहीं होती। प्रभु ने समूचा तेज-बल खींच लिया है॥ २॥
ਸ੍ਰਵਨਨ ਬਿਕਲ ਭਏ ਸੰਗਿ ਤੇਰੇ ਇੰਦ੍ਰੀ ਕਾ ਬਲੁ ਥਾਕਾ ॥
तेरे संगी कान बलहीन हो गए हैं तेरी काम-वासना का बल भी क्षीण हो गया है।
ਚਰਨ ਰਹੇ ਕਰ ਢਰਕਿ ਪਰੇ ਹੈ ਮੁਖਹੁ ਨ ਨਿਕਸੈ ਬਾਤਾ ॥੩॥
तेरे पैर भी चलने में असमर्थ हैं, हाथ भी शिथिल हो गए हैं तथा तेरे मुँह से कोई बात भी नहीं निकलती॥ ३॥
ਥਾਕੇ ਪੰਚ ਦੂਤ ਸਭ ਤਸਕਰ ਆਪ ਆਪਣੈ ਭ੍ਰਮਤੇ ॥
तेरे कामादिक पाँचों विकार थक गए हैं तथा वे सभी चोर अपने-आप भटकने से हट गए हैं।
ਥਾਕਾ ਮਨੁ ਕੁੰਚਰ ਉਰੁ ਥਾਕਾ ਤੇਜੁ ਸੂਤੁ ਧਰਿ ਰਮਤੇ ॥੪॥
मन रूपी हाथी भी हार कर थक गया है और सूत्रधार हृदय जिसके द्वारा शरीर की इन्द्रियाँ चलती-फिरती थीं, वे भी थक गई हैं।॥ ४॥
ਮਿਰਤਕ ਭਏ ਦਸੈ ਬੰਦ ਛੂਟੇ ਮਿਤ੍ਰ ਭਾਈ ਸਭ ਛੋਰੇ ॥
मृत्यु होने के पश्चात् दसों ही द्वारों के बन्धन टूट गए हैं तथा वह अपने मित्रों एवं भाईयों को छोड़ गया है।
ਕਹਤ ਕਬੀਰਾ ਜੋ ਹਰਿ ਧਿਆਵੈ ਜੀਵਤ ਬੰਧਨ ਤੋਰੇ ॥੫॥੫॥੧੮॥
कबीर जी कहते हैं कि जो मनुष्य भगवान् का ध्यान करता है, वह जीवित ही सभी बन्धनों को तोड़ देता हैं ॥५॥५॥१८॥
ਆਸਾ ਇਕਤੁਕੇ ੪ ॥
राग आसा, 4 इक-तुक ॥
ਸਰਪਨੀ ਤੇ ਊਪਰਿ ਨਹੀ ਬਲੀਆ ॥
सारे विश्व में माया रूपी सर्पिणी से अधिकतर कोई बलशाली नहीं,
ਜਿਨਿ ਬ੍ਰਹਮਾ ਬਿਸਨੁ ਮਹਾਦੇਉ ਛਲੀਆ ॥੧॥
जिसने (त्रिदेवों) ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव को भी छल लिया है॥ १॥
ਮਾਰੁ ਮਾਰੁ ਸ੍ਰਪਨੀ ਨਿਰਮਲ ਜਲਿ ਪੈਠੀ ॥
हर तरफ मारा-मार करती हुई माया रूपी सर्पिणी अब सत्संगति रूपी निर्मल जल में बैठ गई है।
ਜਿਨਿ ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਡਸੀਅਲੇ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਡੀਠੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिस माया रूपी सर्पिणी ने त्रिभवनों अर्थात् समूचा जगत डस लिया था, उसे मैंने गुरु की कृपा से देख लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਸ੍ਰਪਨੀ ਸ੍ਰਪਨੀ ਕਿਆ ਕਹਹੁ ਭਾਈ ॥
हे भाई ! तुम यह माया को सर्पिणी-सर्पिणी कहकर क्यों शोर मचा रहे हो ?
ਜਿਨਿ ਸਾਚੁ ਪਛਾਨਿਆ ਤਿਨਿ ਸ੍ਰਪਨੀ ਖਾਈ ॥੨॥
जो सत्य को पहचान लेता है वह माया रूपी सर्पिणी को निगल जाता है॥ २॥
ਸ੍ਰਪਨੀ ਤੇ ਆਨ ਛੂਛ ਨਹੀ ਅਵਰਾ ॥
सिमरन करने वालों के बिना अन्य कोई भी इस सर्पिणी से नहीं बचा है।
ਸ੍ਰਪਨੀ ਜੀਤੀ ਕਹਾ ਕਰੈ ਜਮਰਾ ॥੩॥
जिसने माया रूपी सर्पिणी को जीत लिया है, यमराज भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता॥ ३॥