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ਤੰਤ ਮੰਤ੍ਰ ਸਭ ਅਉਖਧ ਜਾਨਹਿ ਅੰਤਿ ਤਊ ਮਰਨਾ ॥੨॥
जो तंत्र, मंत्र एवं समस्त औषधियों को जानता है, अंततः सबकी मृत्यु आनी है॥ २॥
ਰਾਜ ਭੋਗ ਅਰੁ ਛਤ੍ਰ ਸਿੰਘਾਸਨ ਬਹੁ ਸੁੰਦਰਿ ਰਮਨਾ ॥
राज को भोगने वाले, सिंहासन पर छत्र धारण करने वाले, अनेक सुन्दर नारियों से रमण करने वाले,
ਪਾਨ ਕਪੂਰ ਸੁਬਾਸਕ ਚੰਦਨ ਅੰਤਿ ਤਊ ਮਰਨਾ ॥੩॥
पान, कपूर तथा चन्दन की सुगन्धियों का आनंद लेने वाले भी अंततः प्राण त्याग देंगे ॥ ३॥
ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸਿੰਮ੍ਰਿਤਿ ਸਭ ਖੋਜੇ ਕਹੂ ਨ ਊਬਰਨਾ ॥
चाहे कोई वेद, पुराण एवं स्मृतियों को खोज ले फिर भी उसका जन्म-मरण के चक्र से बचाव नहीं होना।
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਇਉ ਰਾਮਹਿ ਜੰਪਉ ਮੇਟਿ ਜਨਮ ਮਰਨਾ ॥੪॥੫॥
हे कबीर ! इसलिए राम नाम का भजन-सिमरन करने से ही जन्म-मरण का चक्र मिट सकता है॥ ४॥ ५ ॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਫੀਲੁ ਰਬਾਬੀ ਬਲਦੁ ਪਖਾਵਜ ਕਊਆ ਤਾਲ ਬਜਾਵੈ ॥
हाथी-सा अहंकारी मेरा मन अब गिटारवादक-सा विनम्र होकर प्रभु-भक्ति में लीन है; बैल सा हठ त्याग चुका है और कौए-सा चंचल मन अब झांझ बजाते भक्त-सा शुद्ध हो गया है।
ਪਹਿਰਿ ਚੋਲਨਾ ਗਦਹਾ ਨਾਚੈ ਭੈਸਾ ਭਗਤਿ ਕਰਾਵੈ ॥੧॥
मन के गधे वाला जिद्दी स्वभाव प्रेम रूपी चोला पहनकर नृत्य कर रहा है और मन का भैंसा जैसा स्वभाव भक्ति में मग्न है॥ १॥
ਰਾਜਾ ਰਾਮ ਕਕਰੀਆ ਬਰੇ ਪਕਾਏ ॥
मेरे राजा राम ने आक के आम समान फलों को रसदायक आम बना दिया है अर्थात् मन के कड़वे एवं कटु स्वभाव में मिठास भर गई है।
ਕਿਨੈ ਬੂਝਨਹਾਰੈ ਖਾਏ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
परन्तु इस रस का स्वाद किसी विरले विवेकी पुरुष ने ही चखा है॥ १॥ रहाउ ॥
ਬੈਠਿ ਸਿੰਘੁ ਘਰਿ ਪਾਨ ਲਗਾਵੈ ਘੀਸ ਗਲਉਰੇ ਲਿਆਵੈ ॥
मेरा सिंह-सा क्रूर मन अब इतना विनम्र हो गया है कि जैसे वह अतिथियों के लिए पान सजा रहा हो और इच्छाओं के पीछे भागने के स्थान पर अब वह सेवा में लगा है।
ਘਰਿ ਘਰਿ ਮੁਸਰੀ ਮੰਗਲੁ ਗਾਵਹਿ ਕਛੂਆ ਸੰਖੁ ਬਜਾਵੈ ॥੨॥
मेरी इन्द्रियाँ रूपी चुहियाँ मंगलगान गा रही हैं और मन रूपी कछुआ जो सत्संगति से भयभीत होकर बैठा था, अब शंख बजाता है॥ २॥
ਬੰਸ ਕੋ ਪੂਤੁ ਬੀਆਹਨ ਚਲਿਆ ਸੁਇਨੇ ਮੰਡਪ ਛਾਏ ॥
बांझ स्त्री माया का पुत्र विवाह करवाने हेतु चल दिया है तथा सोने के मंडप सजाए गए हैं।
ਰੂਪ ਕੰਨਿਆ ਸੁੰਦਰਿ ਬੇਧੀ ਸਸੈ ਸਿੰਘ ਗੁਨ ਗਾਏ ॥੩॥
अब मन ने प्रभु से जुड़ी वृत्ति रूपवान एवं सुन्दर कन्या से विवाह कर लिया है और खरगोश एवं शेर प्रभु का स्तुतिगान कर रहे हैं।॥ ३॥
ਕਹਤ ਕਬੀਰ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਸੰਤਹੁ ਕੀਟੀ ਪਰਬਤੁ ਖਾਇਆ ॥
संत कबीर कहते हैं कि हे संतजनो ! मेरी बात ध्यान से सुनो, मन की विनम्रता चींटी ने अभिमान रूपी पर्वत को निगल लिया है।
ਕਛੂਆ ਕਹੈ ਅੰਗਾਰ ਭਿ ਲੋਰਉ ਲੂਕੀ ਸਬਦੁ ਸੁਨਾਇਆ ॥੪॥੬॥
अब मन रूपी कछुआ मानवीय महानुभूति रूपी अंगार का अभिलाषी बन गया है तथा उसका अज्ञान अब ज्ञान में परिवर्तन होकर गुरु का शब्द सुना रहा है॥ ४॥ ६॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਬਟੂਆ ਏਕੁ ਬਹਤਰਿ ਆਧਾਰੀ ਏਕੋ ਜਿਸਹਿ ਦੁਆਰਾ ॥
कबीर कहते हैं कि, सच्चा योगी वही है जो इस बहत्तर नाड़ियों वाले शरीर को नाम की राख रखने का बटुआ मानता है और जानता है कि भगवान् से मिलन का केवल एक ही दशम द्वार है मस्तिष्क।
ਨਵੈ ਖੰਡ ਕੀ ਪ੍ਰਿਥਮੀ ਮਾਗੈ ਸੋ ਜੋਗੀ ਜਗਿ ਸਾਰਾ ॥੧॥
इस जगत में केवल वही सच्चा योगी है जो एक ईश्वर के नाम की भिक्षा मांगता है, जिस नाम ने नवखण्डों वाली पृथ्वी को धारण किया हुआ है॥ १॥
ਐਸਾ ਜੋਗੀ ਨਉ ਨਿਧਿ ਪਾਵੈ ॥
ऐसा योगी ही नवनिधियाँ प्राप्त कर लेता है।
ਤਲ ਕਾ ਬ੍ਰਹਮੁ ਲੇ ਗਗਨਿ ਚਰਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
वह अपनी आत्मा को तल से उठाकर गगनमण्डल में ले जाता है ॥१॥ रहाउ॥
ਖਿੰਥਾ ਗਿਆਨ ਧਿਆਨ ਕਰਿ ਸੂਈ ਸਬਦੁ ਤਾਗਾ ਮਥਿ ਘਾਲੈ ॥
वह ज्ञान-गुदड़ी को प्रभु-ध्यान की सुई में ब्रह्म शब्द के मजबूत धागे से टांकता है
ਪੰਚ ਤਤੁ ਕੀ ਕਰਿ ਮਿਰਗਾਣੀ ਗੁਰ ਕੈ ਮਾਰਗਿ ਚਾਲੈ ॥੨॥
और वह पाँच इन्द्रियों को अपनी मृगशाला बनाकर अपने गुरु के मार्ग चल देता है॥ २॥
ਦਇਆ ਫਾਹੁਰੀ ਕਾਇਆ ਕਰਿ ਧੂਈ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਕੀ ਅਗਨਿ ਜਲਾਵੈ ॥
वह दया को अपनी फावड़ी एवं अपने शरीर को धूनी बनाता है और प्रभु-दृष्टि की वह अग्नि जलाता है।
ਤਿਸ ਕਾ ਭਾਉ ਲਏ ਰਿਦ ਅੰਤਰਿ ਚਹੁ ਜੁਗ ਤਾੜੀ ਲਾਵੈ ॥੩॥
उसके प्रेम को वह अपने हृदय में बसाता है और चारों ही युगों में वह समाधि अवस्था में लीन रहता है॥३॥
ਸਭ ਜੋਗਤਣ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਹੈ ਜਿਸ ਕਾ ਪਿੰਡੁ ਪਰਾਨਾ ॥
समूचा योगीपन राम का नाम जपने में है जिसके दिए हुए यह शरीर एवं प्राण हैं।
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜੇ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੈ ਦੇਇ ਸਚਾ ਨੀਸਾਨਾ ॥੪॥੭॥
हे कबीर ! यदि प्रभु कृपा धारण करे तो वह मनुष्य को सत्य का चिन्ह प्रदान करते हैं॥ ४॥ ७॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਹਿੰਦੂ ਤੁਰਕ ਕਹਾ ਤੇ ਆਏ ਕਿਨਿ ਏਹ ਰਾਹ ਚਲਾਈ ॥
हिन्दू तथा मुसलमान कहाँ से आए हैं ? धर्म के अलग-अलग यह दो मार्ग किसने चलाए हैं ?
ਦਿਲ ਮਹਿ ਸੋਚਿ ਬਿਚਾਰਿ ਕਵਾਦੇ ਭਿਸਤ ਦੋਜਕ ਕਿਨਿ ਪਾਈ ॥੧॥
हे झगड़ालू काजी ! अपने दिल में अच्छी तरह सोच-विचार कर, कौन स्वर्ग एवं कौन नरक को प्राप्त करता है ? ॥ १॥
ਕਾਜੀ ਤੈ ਕਵਨ ਕਤੇਬ ਬਖਾਨੀ ॥
हे काजी ! तूने कौन-सा किताब पढ़ा है ?
ਪੜ੍ਹਤ ਗੁਨਤ ਐਸੇ ਸਭ ਮਾਰੇ ਕਿਨਹੂੰ ਖਬਰਿ ਨ ਜਾਨੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तेरे जैसे किताब पढ़ने एवं विचार करने वाले सभी नष्ट हो गए हैं। लेकिन किसी को भी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ ॥ १॥ रहाउ॥
ਸਕਤਿ ਸਨੇਹੁ ਕਰਿ ਸੁੰਨਤਿ ਕਰੀਐ ਮੈ ਨ ਬਦਉਗਾ ਭਾਈ ॥
मुसलमानों में स्त्री से आसक्ति-प्रेम के कारण सुन्नत करवाई जाती है लेकिन इसका संबंध अल्लाह के मिलन से नहीं। हे भाई ! इसलिए मैं (सुन्नत पर) विश्वास नहीं करता।
ਜਉ ਰੇ ਖੁਦਾਇ ਮੋਹਿ ਤੁਰਕੁ ਕਰੈਗਾ ਆਪਨ ਹੀ ਕਟਿ ਜਾਈ ॥੨॥
यदि अल्लाह ने मुझे मुसलमान बनाना था तो अपने आप ही सुन्नत जन्मजात हो जाती ॥ २॥
ਸੁੰਨਤਿ ਕੀਏ ਤੁਰਕੁ ਜੇ ਹੋਇਗਾ ਅਉਰਤ ਕਾ ਕਿਆ ਕਰੀਐ ॥
यदि सुन्नत करने से कोई मुसलमान बनता है तो औरत का क्या होगा ?
ਅਰਧ ਸਰੀਰੀ ਨਾਰਿ ਨ ਛੋਡੈ ਤਾ ਤੇ ਹਿੰਦੂ ਹੀ ਰਹੀਐ ॥੩॥
नारी तो अर्धांगिनी है, जो मनुष्य के शरीर का आधा भाग है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए हिन्दू बने रहना ही उत्तम है (सुन्नत का पाखण्ड नहीं करना चाहिए) ॥ ३॥
ਛਾਡਿ ਕਤੇਬ ਰਾਮੁ ਭਜੁ ਬਉਰੇ ਜੁਲਮ ਕਰਤ ਹੈ ਭਾਰੀ ॥
हे मूर्ख प्राणी ! किताबों को छोड़कर राम नाम का भजन कर। निरर्थक विवादों में फँसकर तू भारी अत्याचार कर रहा है।
ਕਬੀਰੈ ਪਕਰੀ ਟੇਕ ਰਾਮ ਕੀ ਤੁਰਕ ਰਹੇ ਪਚਿਹਾਰੀ ॥੪॥੮॥
कबीर ने एक राम का आश्रय लिया है तथा मुसलमान बुरी तरह असफल हो रहे हैं।॥ ४॥ ८॥
ਆਸਾ ॥
राग, आसा ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਤੇਲੁ ਦੀਵੇ ਮੁਖਿ ਬਾਤੀ ਤਬ ਸੂਝੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ॥
जब तक अन्तरात्मा रूपी दीपक में प्राण रूपी तेल रहता है, इस दीपक के मुँह में सुरति रूपी बाती जलती रहती है, तब तक जीवात्मा को शरीर रूपी मंदिर में हर वस्तु की सूझ होती है।