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ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਕਰਮ ਕਮਾਉ ॥
गुरु की दया से शुभ कर्म करो।
ਨਾਮੇ ਰਾਤਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥੫॥
नाम में अनुरक्त होकर हरि का गुणगान करो।॥ ५॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਆਪੁ ਪਛਾਤਾ ॥
गुरु की सेवा से मैंने अपने आत्मस्वरूप को समझ लिया है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਵਸਿਆ ਸੁਖਦਾਤਾ ॥
सुखदाता नामामृत अब मेरे हृदय में बसता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਬਾਣੀ ਨਾਮੇ ਰਾਤਾ ॥੬॥
मैं रात-दिन गुरुवाणी एवं नाम में लीन रहता हूँ॥ ६॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਲਾਏ ਤਾ ਕੋ ਲਾਗੈ ॥
जब मेरे प्रभु किसी पर नाम की कृपा करते हैं, तभी वह भाग्यशाली जीव नाम-रस में लीन होता है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਸਬਦੇ ਜਾਗੈ ॥
गुरु के वचनों के प्रभाव से उसका अहंकार नष्ट हो जाता है और वह स्वयं के भीतर छिपे अहंकार के प्रति सदैव सजग बना रहता है।
ਐਥੈ ਓਥੈ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਆਗੈ ॥੭॥
लोक-परलोक में वह सदैव सुख में रहता है॥ ७॥
ਮਨੁ ਚੰਚਲੁ ਬਿਧਿ ਨਾਹੀ ਜਾਣੈ ॥
चंचल मन अहंकार को दूर करने की युक्ति नहीं जानता।
ਮਨਮੁਖਿ ਮੈਲਾ ਸਬਦੁ ਨ ਪਛਾਣੈ ॥
अहंकारी व्यक्ति का चित्त सदा विकारों की मलिनता से आच्छादित रहता है; वह न तो गुरु की शिक्षाओं को समझ पाता है और न ही उनका अनुसरण करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣੈ ॥੮॥
लेकिन गुरुमुख मनुष्य निर्मल नाम को उच्चरित करता हैं।॥ ८ ॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਆਗੈ ਕਰੀ ਅਰਦਾਸਿ ॥
मैं पूज्य परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करता हूँ कि
ਸਾਧੂ ਜਨ ਸੰਗਤਿ ਹੋਇ ਨਿਵਾਸੁ ॥
मुझे साधु जनों की संगति में निवास मिल जाए।
ਕਿਲਵਿਖ ਦੁਖ ਕਾਟੇ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ॥੯॥
हरि के नाम का प्रकाश पापों एवं दुःखों को दूर कर देता है ॥९॥
ਕਰਿ ਬੀਚਾਰੁ ਆਚਾਰੁ ਪਰਾਤਾ ॥
मैंने साधुओं से विचार करके शुभ-आचरण बना लिया है।
ਸਤਿਗੁਰ ਬਚਨੀ ਏਕੋ ਜਾਤਾ ॥
सतगुरु के वचनों द्वारा मैंने परमात्मा को समझ लिया है।
ਨਾਨਕ ਰਾਮ ਨਾਮਿ ਮਨੁ ਰਾਤਾ ॥੧੦॥੭॥
हे नानक ! राम के नाम से मेरा मन रंग गया है॥ १० ॥ ७ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
राग आसा, प्रथम गुरु: १ ॥
ਮਨੁ ਮੈਗਲੁ ਸਾਕਤੁ ਦੇਵਾਨਾ ॥
अविश्वासी और निंदक का चित्त उन्मत्त हाथी के समान होता है
ਬਨ ਖੰਡਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਹੈਰਾਨਾ ॥
माया के आकर्षण से विचलित होकर वह व्यक्ति एक उन्मत्त जंगली हाथी की भाँति संसार रूपी वन में भटकता रहता है।
ਇਤ ਉਤ ਜਾਹਿ ਕਾਲ ਕੇ ਚਾਪੇ ॥
मृत्यु के भय के कारण यह इधर-उधर जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਖੋਜਿ ਲਹੈ ਘਰੁ ਆਪੇ ॥੧॥
लेकिन गुरुमुख जीव अपने हृदय में ही ईश्वर की खोज करता है और अंतर्मन में उसकी उपस्थिति को अनुभव करता है।॥ १॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਸਬਦੈ ਮਨੁ ਨਹੀ ਠਉਰਾ ॥
गुरु के शब्द बिना मन को सुख का स्थान नहीं मिलता।
ਸਿਮਰਹੁ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਅਤਿ ਨਿਰਮਲੁ ਅਵਰ ਤਿਆਗਹੁ ਹਉਮੈ ਕਉਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
राम नाम को याद करो जो बहुत ही निर्मल है और कड़वा अहंकार त्याग दो॥ १॥ रहाउ॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੁਗਧੁ ਕਹਹੁ ਕਿਉ ਰਹਸੀ ॥
बताओ, यह मूर्ख मन कैसे बचाया जा सकता है ?"
ਬਿਨੁ ਸਮਝੇ ਜਮ ਕਾ ਦੁਖੁ ਸਹਸੀ ॥
बिना सोचे-समझे यह मृत्यु का दुःख सहन करेगा।
ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲੈ ॥
प्रभु स्वयं ही क्षमा करते हैं और सतगुरु से मिलाते हैं।
ਕਾਲੁ ਕੰਟਕੁ ਮਾਰੇ ਸਚੁ ਪੇਲੈ ॥੨॥
गुरु व्यक्ति को परमेश्वर की ओर आकर्षित करते हैं और उसके अंतर्मन से मृत्यु का भय समाप्त कर देते हैं। २॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਕਰਮਾ ਇਹੁ ਮਨੁ ਧਰਮਾ ॥
यह मन श्रद्धा, धार्मिक अनुष्ठानों और पुण्य कर्मों में निरंतर लगा रहता है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਪੰਚ ਤਤੁ ਤੇ ਜਨਮਾ ॥
इस मन का जन्म पाँच तत्वों से हुआ है।
ਸਾਕਤੁ ਲੋਭੀ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੂੜਾ ॥
यह अज्ञानी मन लालच में फंसकर माया का उपासक बन जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਜਪੈ ਮਨੁ ਰੂੜਾ ॥੩॥
गुरु के समक्ष होकर नाम का जाप करने से मन सुन्दर बन जाता है॥ ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨੁ ਅਸਥਾਨੇ ਸੋਈ ॥
गुरु के माध्यम से ही यह मन सत्य के स्थान पर जा बसता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਤ੍ਰਿਭਵਣਿ ਸੋਝੀ ਹੋਈ ॥
गुरु के माध्यम से ही इसे तीन लोकों का ज्ञान हो जाता है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਜੋਗੀ ਭੋਗੀ ਤਪੁ ਤਾਪੈ ॥
यह मन योगी भोगी है और तपस्या-साधना करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਚੀਨੈ੍ਹ੍ਹ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪੈ ॥੪॥
गुरु के माध्यम से यह स्वयं ही हरि-प्रभु को समझ लेता है॥ ४॥
ਮਨੁ ਬੈਰਾਗੀ ਹਉਮੈ ਤਿਆਗੀ ॥ ਘਟਿ ਘਟਿ ਮਨਸਾ ਦੁਬਿਧਾ ਲਾਗੀ ॥
प्रत्येक हृदय भीतर ही भीतर द्वंद्व और सांसारिक वासनाओं से ग्रस्त रहता है,पर जब उसमें विवेक का प्रकाश फूटता है, तब वह अहंकार को त्यागकर वैराग्य की ओर उन्मुख हो जाता है।
ਰਾਮ ਰਸਾਇਣੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚਾਖੈ ॥
जो मनुष्य गुरु के माध्यम से राम नाम रूपी अमृत का पान करता है,
ਦਰਿ ਘਰਿ ਮਹਲੀ ਹਰਿ ਪਤਿ ਰਾਖੈ ॥੫॥
उसकी हरि प्रभु अपने दरबार में प्रतिष्ठा रखता है॥ ५॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਰਾਜਾ ਸੂਰ ਸੰਗ੍ਰਾਮਿ ॥
यह मन विकारों के विरुद्ध संघर्ष में एक वीर और अडिग सम्राट बन जाता है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਿਰਭਉ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮਿ ॥
गुरुमुख बनकर नाम की आराधना करने से यह मन निडर हो जाता है।
ਮਾਰੇ ਪੰਚ ਅਪੁਨੈ ਵਸਿ ਕੀਏ ॥
यह कामादिक पाँच विकारों को मारकर अपने वश में कर लेता है और
ਹਉਮੈ ਗ੍ਰਾਸਿ ਇਕਤੁ ਥਾਇ ਕੀਏ ॥੬॥
अहंकार को अपनी पकड़ में लेकर मन इनको एक स्थान पर कैद कर देता है॥ ६॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਾਗ ਸੁਆਦ ਅਨ ਤਿਆਗੇ ॥
गुरुमुख बनकर मन समस्त राग एवं स्वादों को त्याग देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਭਗਤੀ ਜਾਗੇ ॥
गुरु के सम्मुख होकर ही यह मन प्रभु-भक्ति में जाग्रत होता है।
ਅਨਹਦ ਸੁਣਿ ਮਾਨਿਆ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੀ ॥
गुरु के शब्द एवं विचार को मानकर मन अनहद नाद सुनता है।
ਆਤਮੁ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹਿ ਭਏ ਨਿਰੰਕਾਰੀ ॥੭॥
अंतरात्मा के गहन चिंतन द्वारा वह अपने भीतर उस निराकार ईश्वर की ज्योति को प्रकट करता है, और स्वयं उसकी दिव्यता का प्रतीक बन जाता है।।॥ ७॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਦਰਿ ਘਰਿ ਸੋਈ ॥
मन की मलिनता हटते ही, उसे अपने भीतर और बाहर, सभी में वही एक अद्वितीय परम सत्ता दृष्टिगोचर होती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਭਾਉ ਧੁਨਿ ਹੋਈ ॥
गुरु के माध्यम से इसे प्रभु-भक्ति की प्रीति प्राप्त हो जाती है।
ਅਹਿਨਿਸਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ॥
गुरु की कृपा से मन दिन-रात हरि का यशोगान करता रहता है।
ਘਟਿ ਘਟਿ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਆਦਿ ਜੁਗਾਦਿ ॥੮॥
गुरु का सच्चा अनुयायी प्रत्येक जीव में उसी एक ईश्वर की झलक देखता है, जो काल के आरंभ से पूर्व भी था, और सभी युगों के अंत के बाद भी रहेगा। ॥ ८॥
ਰਾਮ ਰਸਾਇਣਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮਾਤਾ ॥
राम रसायण से यह मन मतवाला हुआ रहता है और
ਸਰਬ ਰਸਾਇਣੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਤਾ ॥
गुरु के माध्यम से यह सभी रसों के घर प्रभु को अनुभव कर लेता है।
ਭਗਤਿ ਹੇਤੁ ਗੁਰ ਚਰਣ ਨਿਵਾਸਾ ॥
जब मन गुरु के चरणों में निवास कर लेता है तो प्रभु भक्ति का प्रेम जाग्रत हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਨ ਕੇ ਦਾਸਨਿ ਦਾਸਾ ॥੯॥੮॥
हे नानक ! तब यह मन भक्तजनों का सेवक बन जाता है ॥९॥८॥