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ਸਭ ਕਉ ਤਜਿ ਗਏ ਹਾਂ ॥
सभ कउ तजि गए हां ॥
सभी इस संसार से माया को त्याग कर ही गए हैं।
ਸੁਪਨਾ ਜਿਉ ਭਏ ਹਾਂ ॥
सुपना जिउ भए हां ॥
वे स्वप्न के समान इस जगत से लुप्त हो गए।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹਿ ਲਏ ॥੧॥
हरि नामु जिन्हि लए ॥१॥
जो हरि का नाम-सिमरन करता है। १॥
ਹਰਿ ਤਜਿ ਅਨ ਲਗੇ ਹਾਂ ॥
हरि तजि अन लगे हां ॥
हरि को छोड़कर जो विकारों में फँसे हुए हैं,
ਜਨਮਹਿ ਮਰਿ ਭਗੇ ਹਾਂ ॥
जनमहि मरि भगे हां ॥
वे सतत् जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकते रहते हैं।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਨਿ ਲਹੇ ਹਾਂ ॥
हरि हरि जनि लहे हां ॥
जो भक्तजन परमात्मा को प्राप्त होते हैं,
ਜੀਵਤ ਸੇ ਰਹੇ ਹਾਂ ॥
जीवत से रहे हां ॥
वे आत्मिक रूप से जीवित रहते हैं
ਜਿਸਹਿ ਕ੍ਰਿਪਾਲੁ ਹੋਇ ਹਾਂ ॥ ਨਾਨਕ ਭਗਤੁ ਸੋਇ ॥੨॥੭॥੧੬੩॥੨੩੨॥
जिसहि क्रिपालु होइ हां ॥ नानक भगतु सोइ ॥२॥७॥१६३॥२३२॥
हे नानक ! जिस पर भगवान् कृपालु हो जाते हैं, वही उसका भक्त है॥२॥७॥१६३॥२३२॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੯ ॥
रागु आसा महला ९ ॥
राग आसा, नौवें गुरु: ९ ॥
ਬਿਰਥਾ ਕਹਉ ਕਉਨ ਸਿਉ ਮਨ ਕੀ ॥
बिरथा कहउ कउन सिउ मन की ॥
(हे भाई !) मैं मन की हालत किसे वर्णन करूँ ?
ਲੋਭਿ ਗ੍ਰਸਿਓ ਦਸ ਹੂ ਦਿਸ ਧਾਵਤ ਆਸਾ ਲਾਗਿਓ ਧਨ ਕੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की ॥१॥ रहाउ ॥
यह लोभ में ग्रस्त है और धन की आशा करके यह दसों दिशाओं की ओर भागता फिरता है॥ १॥ रहाउ ॥
ਸੁਖ ਕੈ ਹੇਤਿ ਬਹੁਤੁ ਦੁਖੁ ਪਾਵਤ ਸੇਵ ਕਰਤ ਜਨ ਜਨ ਕੀ ॥
सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की ॥
सुख प्राप्ति हेतु वह बहुत दुःख सहन करता है और जन-जन की सेवा चापलुसी करता रहता है।
ਦੁਆਰਹਿ ਦੁਆਰਿ ਸੁਆਨ ਜਿਉ ਡੋਲਤ ਨਹ ਸੁਧ ਰਾਮ ਭਜਨ ਕੀ ॥੧॥
दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की ॥१॥
वह कुत्ते की भाँति द्वार-द्वार पर भटकता रहता है और राम के भजन की सूझ ही नहीं होती ॥ १॥
ਮਾਨਸ ਜਨਮ ਅਕਾਰਥ ਖੋਵਤ ਲਾਜ ਨ ਲੋਕ ਹਸਨ ਕੀ ॥
मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की ॥
वह अपना मूल्यवान मनुष्य-जन्म निरर्थक ही गंवा देता है और लोगों की तरफ से हो रहे हंसी-मजाक की उसे लज्जा नहीं
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਸੁ ਕਿਉ ਨਹੀ ਗਾਵਤ ਕੁਮਤਿ ਬਿਨਾਸੈ ਤਨ ਕੀ ॥੨॥੧॥੨੩੩॥
नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की ॥२॥१॥२३३॥
नानक कहते हैं कि (हे जीव !) तुम हरि का यश क्यों नहीं गाते, इससे तेरे तन की दुुर्बुद्धि दूर हो जाएगी॥ २॥ १॥ २३३॥
ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ਅਸਟਪਦੀਆ ਘਰੁ ੨
रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु २
राग आसा, द्वितीय ताल, अष्टपदी, प्रथम गुरु:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਉਤਰਿ ਅਵਘਟਿ ਸਰਵਰਿ ਨ੍ਹ੍ਹਾਵੈ ॥
उतरि अवघटि सरवरि न्हावै ॥
मनुष्य को पाप की दुष्कर घाटी से उतर कर सत्संग रूपी गुणों के सरोवर में स्नान करना चाहिए।
ਬਕੈ ਨ ਬੋਲੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥
बकै न बोलै हरि गुण गावै ॥
उसे व्यर्थ नहीं बोलना चाहिए और भगवान् के गुण गाते रहना चाहिए।
ਜਲੁ ਆਕਾਸੀ ਸੁੰਨਿ ਸਮਾਵੈ ॥
जलु आकासी सुंनि समावै ॥
वायुमण्डल में जल की भाँति उसे प्रभु में लीन रहना चाहिए
ਰਸੁ ਸਤੁ ਝੋਲਿ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ॥੧॥
रसु सतु झोलि महा रसु पावै ॥१॥
सत्य की प्रसन्नता का मंथन करके उसे महा रस अमृत का पान करना चाहिए॥ १
ਐਸਾ ਗਿਆਨੁ ਸੁਨਹੁ ਅਭ ਮੋਰੇ ॥
ऐसा गिआनु सुनहु अभ मोरे ॥
हे मेरे मन ! ऐसा ज्ञान सुनो।
ਭਰਿਪੁਰਿ ਧਾਰਿ ਰਹਿਆ ਸਭ ਠਉਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भरिपुरि धारि रहिआ सभ ठउरे ॥१॥ रहाउ ॥
प्रभु सर्वत्र व्यापक है और सबको सहारा दे रहे हैं। १॥ रहाउ॥
ਸਚੁ ਬ੍ਰਤੁ ਨੇਮੁ ਨ ਕਾਲੁ ਸੰਤਾਵੈ ॥
सचु ब्रतु नेमु न कालु संतावै ॥
जो मनुष्य सत्य को अपना व्रत एवं नियम बनाता है, काल उसे दुःखी नहीं करता और
ਸਤਿਗੁਰ ਸਬਦਿ ਕਰੋਧੁ ਜਲਾਵੈ ॥
सतिगुर सबदि करोधु जलावै ॥
सच्चे गुरु के शब्द से वह अपने क्रोध को जला देता है।
ਗਗਨਿ ਨਿਵਾਸਿ ਸਮਾਧਿ ਲਗਾਵੈ ॥
गगनि निवासि समाधि लगावै ॥
वह दसम द्वार(उच्घमण्डल) में निवास करता है और समाधि की अवस्था धारण कर लेता है।
ਪਾਰਸੁ ਪਰਸਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਵੈ ॥੨॥
पारसु परसि परम पदु पावै ॥२॥
वह गुरु रूपी पारस को स्पर्श करके परम पद प्राप्त कर लेता है॥ २ ॥
ਸਚੁ ਮਨ ਕਾਰਣਿ ਤਤੁ ਬਿਲੋਵੈ ॥
सचु मन कारणि ततु बिलोवै ॥
प्राणी को अपने मन के लिए सत्य के तत्व का मंथन करना चाहिए और
ਸੁਭਰ ਸਰਵਰਿ ਮੈਲੁ ਨ ਧੋਵੈ ॥
सुभर सरवरि मैलु न धोवै ॥
अपनी मलिनता को धोने के लिए नामामृत के सरोवर में स्नान करना चाहिए।
ਜੈ ਸਿਉ ਰਾਤਾ ਤੈਸੋ ਹੋਵੈ ॥
जै सिउ राता तैसो होवै ॥
जिसके साथ वह रंग जाता है, मनुष्य उस जैसा हो जाता है।
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਵੈ ॥੩॥
आपे करता करे सु होवै ॥३॥
जो कुछ कर्ता प्रभु स्वयं करता है, वही होता है॥ ३॥
ਗੁਰ ਹਿਵ ਸੀਤਲੁ ਅਗਨਿ ਬੁਝਾਵੈ ॥
गुर हिव सीतलु अगनि बुझावै ॥
बर्फ जैसे शीतल हृदय वाले गुरु से मिलकर मनुष्य अपनी तृष्णाग्नि को बुझाए।
ਸੇਵਾ ਸੁਰਤਿ ਬਿਭੂਤ ਚੜਾਵੈ ॥
सेवा सुरति बिभूत चड़ावै ॥
वह मन से पूर्ण समर्पित होकर, गुरु की शिक्षा-रूपी भस्म से स्वयं को अभिषिक्त करता है।
ਦਰਸਨੁ ਆਪਿ ਸਹਜ ਘਰਿ ਆਵੈ ॥
दरसनु आपि सहज घरि आवै ॥
शांति और स्थिरता उनका जीवन-सिद्धांत बन जाता है।
ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਨਾਦੁ ਵਜਾਵੈ ॥੪॥
निरमल बाणी नादु वजावै ॥४॥
ऐसा व्यक्ति ईश्वर का गुणगान करता है मानो वह गुरु-वाणी की पवित्र बांसुरी बजा रहा हो।॥ ४॥
ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਸਾਰਾ ॥
अंतरि गिआनु महा रसु सारा ॥
जिसके भीतर दिव्य ज्ञान रचा-बसा है और जो निरंतर नाम का स्मरण करता है, वह मानो परम अमृत का पान कर रहा है।
ਤੀਰਥ ਮਜਨੁ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਾ ॥
उसके लिए गुरु-वाणी का विचार तीर्थ-स्थल का स्नान है।
ਅੰਤਰਿ ਪੂਜਾ ਥਾਨੁ ਮੁਰਾਰਾ ॥
अन्तर्मन में प्रभु का निवास ही पूजा है।
ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਵਣਹਾਰਾ ॥੫॥
यह मनुष्य ज्योति को ईश्वरीय ज्योत से मिलाने वाला है॥ ५॥
ਰਸਿ ਰਸਿਆ ਮਤਿ ਏਕੈ ਭਾਇ ॥
जिस का मन नाम-रस में भीगा रहता है, जिसकी मति एक प्रभु के प्रेम में लगी रहती है।
ਤਖਤ ਨਿਵਾਸੀ ਪੰਚ ਸਮਾਇ ॥
ऐसा व्यक्ति राजसिंहासन पर विराजमान होने वाले प्रभु में समा जाता है।
ਕਾਰ ਕਮਾਈ ਖਸਮ ਰਜਾਇ ॥
परमात्मा की इच्छानुसार चलना ही उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या एवं दैनिक कमाई हो जाती है।
ਅਵਿਗਤ ਨਾਥੁ ਨ ਲਖਿਆ ਜਾਇ ॥੬॥
प्रभु अमूर्त हैं और जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ६॥
ਜਲ ਮਹਿ ਉਪਜੈ ਜਲ ਤੇ ਦੂਰਿ ॥
जैसे कमल जल में से उत्पन्न होता है और जल से दूर रहता है,
ਜਲ ਮਹਿ ਜੋਤਿ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
इसी तरह प्रभु की ज्योति समस्त जीवों में सर्वव्यापक है।
ਕਿਸੁ ਨੇੜੈ ਕਿਸੁ ਆਖਾ ਦੂਰਿ ॥
मैं किसे प्रभु के निकट एवं किसे दूर कहूँ?
ਨਿਧਿ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਦੇਖਿ ਹਦੂਰਿ ॥੭॥
उस परमात्मा को सर्वव्यापक देखकर मैं गुणों के भण्डार का यशोगान करता हूँ॥ ७॥
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
भीतर एवं बाहर प्रभु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं।