Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 388

Page 388

ਦਿਨੁ ਰੈਣਿ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਵਖਾਨਾ ॥੧॥ हे प्रभु ! मैं दिन-रात आपका ही नाम जपता रहता हूँ॥ १
ਮੈ ਨਿਰਗੁਨ ਗੁਣੁ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥ मैं निर्गुण हूँ, मुझमें कोई गुण नहीं।
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨਹਾਰ ਪ੍ਰਭ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ यह प्रभु ही करने एवं जीवों से करवाने वाला है। १॥ रहाउ॥
ਮੂਰਖ ਮੁਗਧ ਅਗਿਆਨ ਅਵੀਚਾਰੀ ॥ हे ईश्वर ! मैं मूर्ख, मूढ, अज्ञानी एवं विचारहीन हूँ।
ਨਾਮ ਤੇਰੇ ਕੀ ਆਸ ਮਨਿ ਧਾਰੀ ॥੨॥ मेरे मन को आपके ही नाम की आशा है॥ २॥
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਕਰਮ ਨ ਸਾਧਾ ॥ मैंने कोई जप, तप, संयम एवं धर्म-कर्म नहीं किया
ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭੂ ਕਾ ਮਨਹਿ ਅਰਾਧਾ ॥੩॥ परन्तु अपने मन में केवल प्रभु के नाम की आराधना की है॥ ३॥
ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਨਾ ਮਤਿ ਮੇਰੀ ਥੋਰੀ ॥ हे ईश्वर, मुझे न तप करना आता है, न पूजा-पाठ क्योंकि मैं अल्पबुद्धि, कुछ नहीं जानता।
ਬਿਨਵਤਿ ਨਾਨਕ ਓਟ ਪ੍ਰਭ ਤੋਰੀ ॥੪॥੧੮॥੬੯॥ नानक वन्दना करते हैं कि हे प्रभु ! मैंने आपकी ही ओट ली है॥ ४॥ १८॥ ६६ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਅਖਰ ਦੁਇ ਇਹ ਮਾਲਾ ॥ ‘हरि-हरि' यह दो अक्षरों की मेरी माला है।
ਜਪਤ ਜਪਤ ਭਏ ਦੀਨ ਦਇਆਲਾ ॥੧॥ ‘हरि-हरि' नाम की माला को जपने से भगवान् मुझ दीन पर दयावान हो गए हैं॥ १ ॥
ਕਰਉ ਬੇਨਤੀ ਸਤਿਗੁਰ ਅਪੁਨੀ ॥ मैं अपने सतगुरु के समक्ष यही विनती करता हूँ कि
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਰਾਖਹੁ ਸਰਣਾਈ ਮੋ ਕਉ ਦੇਹੁ ਹਰੇ ਹਰਿ ਜਪਨੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे सतगुरु ! कृपा करके मुझे अपनी शरण में रखो एवं मुझे हरि-नाम की माला प्रदान करो॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਮਾਲਾ ਉਰ ਅੰਤਰਿ ਧਾਰੈ ॥ जो मनुष्य हरि-नाम की माला अपने हृदय में धारण करता है,"
ਜਨਮ ਮਰਣ ਕਾ ਦੂਖੁ ਨਿਵਾਰੈ ॥੨॥ वह जन्म-मरण के दु:ख से मुक्ति प्राप्त कर लेता है॥ २ ॥
ਹਿਰਦੈ ਸਮਾਲੈ ਮੁਖਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਬੋਲੈ ॥ जो मनुष्य अपने मुँह से हरि-हरि बोलता है और अपने हृदय में हरि-परमेश्वर को याद करता है,"
ਸੋ ਜਨੁ ਇਤ ਉਤ ਕਤਹਿ ਨ ਡੋਲੈ ॥੩॥ वह इधर-उधर (लोक-परलोक) में डगमगाता नहीं होता।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜੋ ਰਾਚੈ ਨਾਇ ॥ हे नानक ! जो मनुष्य हरि-नाम में लीन रहता है,"
ਹਰਿ ਮਾਲਾ ਤਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ਜਾਇ ॥੪॥੧੯॥੭੦॥ हरि-नाम की माला उसके साथ परलोक में जाती है ॥ ४॥ १६॥ ७०॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਜਿਸ ਕਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਸ ਕਾ ਹੋਇ ॥ जो भगवान् का उपासक बना रहता है, जिसका यह सब कुछ बनाया हुआ है,"
ਤਿਸੁ ਜਨ ਲੇਪੁ ਨ ਬਿਆਪੈ ਕੋਇ ॥੧॥ उस मनुष्य पर मोह-माया का कोई असर नहीं होता।॥ १॥
ਹਰਿ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸਦ ਹੀ ਮੁਕਤਾ ॥ भगवान् का सेवक हमेशा ही मोह-माया से मुक्त है,"
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰੈ ਸੋਈ ਭਲ ਜਨ ਕੈ ਅਤਿ ਨਿਰਮਲ ਦਾਸ ਕੀ ਜੁਗਤਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ वह जो कुछ करता है, उसके सेवक को वह भला ही लगता है। भगवान् के सेवक का जीवन-आचरण बड़ा निर्मल होता है॥ १॥ रहाउ॥
ਸਗਲ ਤਿਆਗਿ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ਆਇਆ ॥ जो सबकुछ छोड़कर श्रीहरि की शरण में आ गया है,"
ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਹਾ ਬਿਆਪੈ ਮਾਇਆ ॥੨॥ उस मनुष्य को माया कैसे प्रभावित कर सकती है॥ २॥
ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਜਾ ਕੇ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥ जिस के मन में नाम का भण्डार है,"
ਤਿਸ ਕਉ ਚਿੰਤਾ ਸੁਪਨੈ ਨਾਹਿ ॥੩॥ उसे स्वप्न में भी चिन्ता नहीं होती।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਪਾਇਆ ॥ हे नानक ! मैंने पूर्ण गुरु को पा लिया है और
ਭਰਮੁ ਮੋਹੁ ਸਗਲ ਬਿਨਸਾਇਆ ॥੪॥੨੦॥੭੧॥ मेरे भ्रम एवं सांसारिक मोह सब नाश हो गए हैं।॥ ४॥ २० ॥ ७१ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਜਉ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਹੋਇਓ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰਾ ॥ जब मेरा भगवान् मुझ पर सुप्रसन्न हो गए हैं तो
ਤਾਂ ਦੂਖੁ ਭਰਮੁ ਕਹੁ ਕੈਸੇ ਨੇਰਾ ॥੧॥ बताओ दु:ख एवं भ्रम कैसे मेरे पास आ सकते हैं ? ॥१॥
ਸੁਨਿ ਸੁਨਿ ਜੀਵਾ ਸੋਇ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੀ ॥ हे भगवान् ! आपकी शोभा सुन-सुनकर मैं जीवित हूँ।
ਮੋਹਿ ਨਿਰਗੁਨ ਕਉ ਲੇਹੁ ਉਧਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मुझ गुणहीन का संसार-सागर से उद्धार कर दो ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਿਟਿ ਗਇਆ ਦੂਖੁ ਬਿਸਾਰੀ ਚਿੰਤਾ ॥ मेरा दुःख मिट गया है और चिन्ता को मैंने भुला दिया है ।
ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਜਪਿ ਸਤਿਗੁਰ ਮੰਤਾ ॥੨॥ सतगुरु के दिए हुए मंत्र का जाप करने से मुझे फल मिल गया है॥ २॥
ਸੋਈ ਸਤਿ ਸਤਿ ਹੈ ਸੋਇ ॥ भगवान् ही सत्य है और उसकी शोभा भी सत्य है।
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਰਖੁ ਕੰਠਿ ਪਰੋਇ ॥੩॥ उसके नाम को याद कर करके अपने हृदय में पिरो कर रखों॥३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਕਉਨ ਉਹ ਕਰਮਾ ॥ हे नानक ! वह कौन-सा कर्म है
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ॥੪॥੨੧॥੭੨॥ जिसे करने से मन में भगवान् का नाम आ बसता है॥ ४ ॥ २१॥ ७२ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥ राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਅਹੰਕਾਰਿ ਵਿਗੂਤੇ ॥ काम, क्रोध एवं अहंकार ने (मायाग्रस्त) जीवों को नष्ट कर दिया है।
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨੁ ਕਰਿ ਹਰਿ ਜਨ ਛੂਟੇ ॥੧॥ भगवान् का सिमरन करने से भक्तजन विकारों से छूट गए हैं।॥ १॥
ਸੋਇ ਰਹੇ ਮਾਇਆ ਮਦ ਮਾਤੇ ॥ माया के नशे में मस्त हुए जीव अज्ञानता की नींद में सोए हुए हैं।
ਜਾਗਤ ਭਗਤ ਸਿਮਰਤ ਹਰਿ ਰਾਤੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ भगवान् के सिमरन में रंगे हुए भक्त मोह-माया से सचेत रहते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
ਮੋਹ ਭਰਮਿ ਬਹੁ ਜੋਨਿ ਭਵਾਇਆ ॥ मोह की दुविधा में फँसकर मनुष्य अनेक योनियों में भटकते हैं।
ਅਸਥਿਰੁ ਭਗਤ ਹਰਿ ਚਰਣ ਧਿਆਇਆ ॥੨॥ जिन भक्तों ने श्रीहरि के सुन्दर चरणों का ध्यान किया है वे अमर हो गए हैं॥२॥
ਬੰਧਨ ਅੰਧ ਕੂਪ ਗ੍ਰਿਹ ਮੇਰਾ ॥ जो कहता है कि यह मेरा घर है, उसे माया के बन्धन घेर लेते हैं और वह मोह के अंधै कुँए में जा गिरता है।
ਮੁਕਤੇ ਸੰਤ ਬੁਝਹਿ ਹਰਿ ਨੇਰਾ ॥੩॥ लेकिन वे संतजन माया के बंधनों से छूट जाते हैं जो भगवान् को अपने निकट ही बसता समझते हैं।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਈ ॥ हे नानक ! जो भगवान् की शरण में पड़ा रहता है,"
ਈਹਾ ਸੁਖੁ ਆਗੈ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੪॥੨੨॥੭੩॥ उसे यहाँ इहलोक में सुख मिलता है और परलोक में भी गति हो जाती है॥ ४ ॥ २२ ॥ ७३ ॥


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