Page 364
ਸੋ ਬੂਝੈ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਬੁਝਾਏ ॥
जिसे ईश्वर सूझ प्रदान करते हैं, केवल वही मनुष्य इस भेद को समझता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸੇਵ ਕਰਾਏ ॥੧॥
गुरु की कृपा से ही मनुष्य प्रभु की सेवा-भक्ति करता है॥ १॥
ਗਿਆਨ ਰਤਨਿ ਸਭ ਸੋਝੀ ਹੋਇ ॥
गुरु के प्रदान किए हुए ज्ञान-रत्न से ही मनुष्य को पूर्ण सूझ प्राप्त होती है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਅਗਿਆਨੁ ਬਿਨਾਸੈ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੈ ਵੇਖੈ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु के प्रसाद से अज्ञानता का नाश हो जाता है। मनुष्य रात-दिन सतर्क रहता है और सत्य प्रभु को देख लेता है॥ १॥ रहाउ॥
ਮੋਹੁ ਗੁਮਾਨੁ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਜਲਾਏ ॥
गुरु के शब्द से मोह एवं अभिमान जल जाते हैं और
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਸੋਝੀ ਪਾਏ ॥
पूर्ण गुरु से मनुष्य को सूझ प्राप्त होती है।
ਅੰਤਰਿ ਮਹਲੁ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੈ ॥
गुरु के शब्द से मनुष्य अपने अन्तर्मन में आत्मस्वरूप को पहचान लेता है,
ਆਵਣ ਜਾਣੁ ਰਹੈ ਥਿਰੁ ਨਾਮਿ ਸਮਾਣੇ ॥੨॥
उसका जन्म-मरण का चक्र मिट जाता है, वह स्थिरचित होकर प्रभु नाम में समा जाता है॥ २॥
ਜੰਮਣੁ ਮਰਣਾ ਹੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
यह संसार जन्म-मरण ही है परन्तु
ਮਨਮੁਖੁ ਅਚੇਤੁ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਗੁਬਾਰੁ ॥
स्वेच्छाछरी मूर्ख मनुष्य माया-मोह के अन्धकार में फँसा हुआ है।
ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਬਹੁ ਕੂੜੁ ਕਮਾਵੈ ॥
ऐसा स्वेच्छाचारी मनुष्य दूसरों की निन्दा करता हुआ हर प्रकार से झूठ का आचरण करता है।
ਵਿਸਟਾ ਕਾ ਕੀੜਾ ਵਿਸਟਾ ਮਾਹਿ ਸਮਾਵੈ ॥੩॥
वह विष्टा का कीड़ा बनकर विष्टा में ही समा जाता है॥ ३॥
ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਸਭ ਸੋਝੀ ਪਾਏ ॥
सत्संगति में सम्मिलित होकर मनुष्य को पूर्ण सूझ प्राप्त हो जाती है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਦ੍ਰਿੜਾਏ ॥
गुरु का शब्द हरि की भक्ति को चित्त में दृढ़ कर देता है।
ਭਾਣਾ ਮੰਨੇ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
जो प्रभु की इच्छा को मानता है, वह सदा सुखी रहता है।
ਨਾਨਕ ਸਚਿ ਸਮਾਵੈ ਸੋਇ ॥੪॥੧੦॥੪੯॥
हे नानक ! ऐसा जीव सत्य में ही समा जाता है॥ ४ ॥ १० ॥ ४६ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ਪੰਚਪਦੇ ॥
राग आसा, पंच-पद (पांच पंक्तियाँ), तीसरे गुरु: ॥
ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਤਿਸੁ ਸਦਾ ਅਨੰਦ ॥
जो पुरुष प्रभु-शब्द में जुड़कर आत्माभिमान को मार देता है, वह सदा आनंद प्राप्त करता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਭੇਟੇ ਗੁਰ ਗੋਬਿੰਦ ॥
वह सच्चे गुरु से मिलकर परमात्मा से मिल जाता है।
ਨਾ ਫਿਰਿ ਮਰੈ ਨ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
फिर वह दोबारा मरता नहीं और जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है।
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਸਾਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥
पूर्ण गुरु के माध्यम से वह सत्य में ही समा जाता है॥ १॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕਉ ਨਾਮੁ ਲਿਖਿਆ ਧੁਰਿ ਲੇਖੁ ॥
जिनके माथे पर विधाता ने नाम-सिमरन का लेख लिखा होता है,"
ਤੇ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਸਦਾ ਧਿਆਵਹਿ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਤੇ ਭਗਤਿ ਵਿਸੇਖੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
वह पुरुष दिन-रात नाम सिमरन करते हैं और पूर्ण गुरु के माध्यम से उन्हें प्रभु भक्ति की देन प्राप्त हो जाती है॥ १॥ रहाउ॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕਉ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥
जिन्हें हरि-प्रभु अपने साथ मिला लेता है,
ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕੀ ਗਹਣ ਗਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥
उनकी श्रेष्ठ आध्यात्मिक अवस्था कही नहीं जा सकती।
ਪੂਰੈ ਸਤਿਗੁਰ ਦਿਤੀ ਵਡਿਆਈ ॥
पूर्ण सतगुरु ने उसे नाम की महानता प्रदान की है।
ਊਤਮ ਪਦਵੀ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਈ ॥੨॥
वह हरि नाम में लीन रहता है और उसने उत्तम पदवी पा ली है॥ २॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰੇ ਸੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ॥
प्रभु जो कुछ भी करता है, उसे वह आप ही करता है।
ਏਕ ਘੜੀ ਮਹਿ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪਿ ॥
ईश्वर एक ही क्षण में सृष्टि की रचना भी कर सकता है और उसका विनाश भी कर सकता है।
ਕਹਿ ਕਹਿ ਕਹਣਾ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ॥
केवल बातें करते रहने एवं सुनाते रहने से
ਜੇ ਸਉ ਘਾਲੇ ਥਾਇ ਨ ਪਾਏ ॥੩॥
सैकड़ों प्रयासों के बाद भी यदि वे ईश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं हैं, तो उनमें से कोई भी भगवान् के दरबार में स्वीकार नहीं होता। ॥ ३॥
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕੈ ਪੋਤੈ ਪੁੰਨੁ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹਾ ਗੁਰੂ ਮਿਲਾਏ ॥
जिनके प्रारब्ध के भण्डार में पुण्य हैं, उन्हें गुरु ही मिलते हैं।
ਸਚੁ ਬਾਣੀ ਗੁਰੁ ਸਬਦੁ ਸੁਣਾਏ ॥
वे सच्ची वाणी एवं गुरु-शब्द सुनते हैं।
ਜਹਾਂ ਸਬਦੁ ਵਸੈ ਤਹਾਂ ਦੁਖੁ ਜਾਏ ॥
जहाँ नाम का निवास है, वहाँ से दुःख दौड़ जाता है।
ਗਿਆਨਿ ਰਤਨਿ ਸਾਚੈ ਸਹਜਿ ਸਮਾਏ ॥੪॥
अनमोल दिव्य ज्ञान रूपी रत्न के माध्यम से मनुष्य सहज ही सत्य में समा जाता है।॥ ४॥
ਨਾਵੈ ਜੇਵਡੁ ਹੋਰੁ ਧਨੁ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
प्रभु-नाम जैसा दूसरा कोई धन नहीं।
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
परन्तु यह धन उसे ही प्राप्त होता है, जिसे सत्य प्रभु प्रदान करता है।
ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
पूर्ण शब्द द्वारा नाम चित्त में बसता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥੫॥੧੧॥੫੦॥
हे नानक ! नाम में अनुरक्त होने से मनुष्य सुख प्राप्त करता है। ॥५॥११॥५०॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਨਿਰਤਿ ਕਰੇ ਬਹੁ ਵਾਜੇ ਵਜਾਏ ॥
जो मनुष्य नृत्य करता और अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाता है,
ਇਹੁ ਮਨੁ ਅੰਧਾ ਬੋਲਾ ਹੈ ਕਿਸੁ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ॥
उसका यह मन ज्ञानहीन एवं बहरा है। तब वह कहकर किसे सुना रहा है ?
ਅੰਤਰਿ ਲੋਭੁ ਭਰਮੁ ਅਨਲ ਵਾਉ ॥
उसके अन्तर्मन में तृष्णा की अग्नि एवं भ्रम की हवा है।
ਦੀਵਾ ਬਲੈ ਨ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥੧॥
इसलिए ज्ञान का दीपक प्रज्वलित नहीं होता और न ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है॥ १॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਘਟਿ ਚਾਨਣੁ ਹੋਇ ॥
गुरुमुख के मन में भक्ति का प्रकाश होता है।
ਆਪੁ ਪਛਾਣਿ ਮਿਲੈ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
वह अपने आत्मस्वरूप को पहचान कर ईश्वर से मिल जाता है॥ १॥ रहाउ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਰਤਿ ਹਰਿ ਲਾਗੈ ਭਾਉ ॥
गुरुमुख के लिए प्रभु से प्रेम करना ही नृत्य है और
ਪੂਰੇ ਤਾਲ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ॥
अन्तर्मन से अहंकार को मारना ही सुरताल को पूर्णतया स्थिर रखने के बराबर है।
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਆਪੇ ਜਾਣੁ ॥
मेरा सच्चा प्रभु स्वयं ही सब कुछ जानता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਅੰਤਰਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਣੁ ॥੨॥
(हे भाई !) गुरु के शब्द द्वारा ब्रह्म को अन्तर्मन में ही पहचान लो॥ २॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਅੰਤਰਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਪਿਆਰੁ ॥
अन्तर्मन में ईश्वर हेतु प्रेम एवं प्रीति ही गुरुमुख की भक्ति है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਸਹਜਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥
वह सहज ही गुरु के शब्द का चिन्तन करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਜੁਗਤਿ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥
गुरुमुख की भक्ति एवं जीवन-युक्ति सत्य ही है।
ਪਾਖੰਡਿ ਭਗਤਿ ਨਿਰਤਿ ਦੁਖੁ ਹੋਇ ॥੩॥
पाखण्डपूर्ण की भक्ति एवं नृत्य से दुःख ही मिलता है।॥ ३॥