Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 939

Page 939

ਤੀਰਥਿ ਨਾਈਐ ਸੁਖੁ ਫਲੁ ਪਾਈਐ ਮੈਲੁ ਨ ਲਾਗੈ ਕਾਈ ॥ तीरथि नाईऐ सुखु फलु पाईऐ मैलु न लागै काई ॥ तीर्थों में स्नान करने से हमें आध्यात्मिक सुख रूपी फल प्राप्त करते हैं और मन को विकारों की मैल नहीं लगती।
ਗੋਰਖ ਪੂਤੁ ਲੋਹਾਰੀਪਾ ਬੋਲੈ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਬਿਧਿ ਸਾਈ ॥੭॥ गोरख पूतु लोहारीपा बोलै जोग जुगति बिधि साई ॥७॥ गोरख का पुत्र लोहारीपा कहता है कि ईश्वर से जुड़ने का यही एक मार्ग है।॥ ७ ॥
ਹਾਟੀ ਬਾਟੀ ਨੀਦ ਨ ਆਵੈ ਪਰ ਘਰਿ ਚਿਤੁ ਨ ਡੋੁਲਾਈ ॥ हाटी बाटी नीद न आवै पर घरि चितु न डोलाई ॥ गुरु जी सिद्धों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि, हमें संसार में रहकर भी उसकी उलझनों में नहीं फँसना चाहिए और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਮਨੁ ਟੇਕ ਨ ਟਿਕਈ ਨਾਨਕ ਭੂਖ ਨ ਜਾਈ ॥ बिनु नावै मनु टेक न टिकई नानक भूख न जाई ॥ गुरु नानक कहतें हैं, किन्तु नाम के बिना जीव का मन स्थिर नहीं रहता और न ही उसकी तृष्णा की भूख मिटती है।
ਹਾਟੁ ਪਟਣੁ ਘਰੁ ਗੁਰੂ ਦਿਖਾਇਆ ਸਹਜੇ ਸਚੁ ਵਾਪਾਰੋ ॥ हाटु पटणु घरु गुरू दिखाइआ सहजे सचु वापारो ॥ जिस व्यक्ति को सद्गुरु ने नाम रूपी धाम का बोध करा दिया है, वह संसार के कार्यों में लगा रहकर भी नाम में स्थिर रहता है।
ਖੰਡਿਤ ਨਿਦ੍ਰਾ ਅਲਪ ਅਹਾਰੰ ਨਾਨਕ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੋ ॥੮॥ खंडित निद्रा अलप अहारं नानक ततु बीचारो ॥८॥ हे नानक ! वह थोड़ी ही निद्रा करता है और थोड़ा-ही भोजन करता है। इस बात को लेकर मेरा यही निष्कर्ष है। ॥ ८ ॥
ਦਰਸਨੁ ਭੇਖ ਕਰਹੁ ਜੋਗਿੰਦ੍ਰਾ ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਝੋਲੀ ਖਿੰਥਾ ॥ दरसनु भेख करहु जोगिंद्रा मुंद्रा झोली खिंथा ॥ योगी गुरु जी से कहते हैं कि, इस महान योगियों के संप्रदाय के मत को स्वीकार करो, योगियों के संप्रदाय के वस्त्र पहनो; कानों में कुण्डल, भिक्षापात्र और गोदरी धारण करो।
ਬਾਰਹ ਅੰਤਰਿ ਏਕੁ ਸਰੇਵਹੁ ਖਟੁ ਦਰਸਨ ਇਕ ਪੰਥਾ ॥ बारह अंतरि एकु सरेवहु खटु दरसन इक पंथा ॥ योग की छह प्रमुख शाखाएँ हैं, जो बारह संप्रदायों में बाँटी गई हैं। इनमें से हमारा 'आई' संप्रदाय सर्वोत्तम है, और आपको इसी मार्ग को अपनाना चाहिए।
ਇਨ ਬਿਧਿ ਮਨੁ ਸਮਝਾਈਐ ਪੁਰਖਾ ਬਾਹੁੜਿ ਚੋਟ ਨ ਖਾਈਐ ॥ इन बिधि मनु समझाईऐ पुरखा बाहुड़ि चोट न खाईऐ ॥ हे महापुरुष ! जो व्यक्ति इस विधि द्वारा मन को समझा लेता है, वह पुनः आवागमन की चोटें नहीं खाता।
ਨਾਨਕੁ ਬੋਲੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਇਵ ਪਾਈਐ ॥੯॥ नानकु बोलै गुरमुखि बूझै जोग जुगति इव पाईऐ ॥९॥ गुरु नानक कहते हैं कि जीव गुरुमुख बनकर जब गुरु के पास आता है, तब वह मन को समझाने की सही विधि सीख जाता है, और इसी से योग के मार्ग का ज्ञान हो जाता है।॥ ९ ॥
ਅੰਤਰਿ ਸਬਦੁ ਨਿਰੰਤਰਿ ਮੁਦ੍ਰਾ ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਦੂਰਿ ਕਰੀ ॥ अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ॥ गुरु जी योगियों को समझाते हैं कि, सच्चे गुरु के वचनों को मन में बसाना ही असली मुद्राएँ हैं। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह अहंकार और मोह को त्याग देता है।
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ਨਿਵਾਰੈ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸੁ ਸਮਝ ਪਰੀ ॥ कामु क्रोधु अहंकारु निवारै गुर कै सबदि सु समझ परी ॥ ऐसे ही वह काम, क्रोध एवं अहंकार को दूर कर लेता है, परन्तु गुरु के शब्द द्वारा ही सुमति प्राप्त होती है।
ਖਿੰਥਾ ਝੋਲੀ ਭਰਿਪੁਰਿ ਰਹਿਆ ਨਾਨਕ ਤਾਰੈ ਏਕੁ ਹਰੀ ॥ खिंथा झोली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ॥ गुरु नानक कहते हैं कि एक परमात्मा ही जीव को भवसागर से पार करवाता है और उस सर्वव्यापक का सिमरन करना ही जीव के लिए कफनी एवं झोली धारण करना है।
ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚੀ ਨਾਈ ਪਰਖੈ ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਤ ਖਰੀ ॥੧੦॥ साचा साहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ॥१०॥ जब वह गुरु की वाणी को हृदय में उतारता है, तब उसे बोध होता है कि प्रभु और उसकी महिमा अनंत और शाश्वत है।॥ १० ॥
ਊਂਧਉ ਖਪਰੁ ਪੰਚ ਭੂ ਟੋਪੀ ॥ ऊंधउ खपरु पंच भू टोपी ॥ जिसने अपने मन को विषय-विकारों से उलटा लिया है, यही उसका खप्पर है। आकाश, वायु अग्नि, जल एवं धरती इन पाँच भूतत्वों के गुण ही उसकी टोपी है।
ਕਾਂਇਆ ਕੜਾਸਣੁ ਮਨੁ ਜਾਗੋਟੀ ॥ कांइआ कड़ासणु मनु जागोटी ॥ जिसने काया को पवित्र कर लिया है, यही उसका कुश का आसन है और मन को वशीभूत करना ही उसकी लंगोटी है।
ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਸੰਜਮੁ ਹੈ ਨਾਲਿ ॥ सतु संतोखु संजमु है नालि ॥ सत्य, संतोष एवं संयम-यह शुभ गुण उसके साथ रहने वाले साथी हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥੧੧॥ नानक गुरमुखि नामु समालि ॥११॥ हे नानक ! ऐसा जीव गुरुमुख बनकर नाम-स्मरण करता रहता है ॥११ ॥
ਕਵਨੁ ਸੁ ਗੁਪਤਾ ਕਵਨੁ ਸੁ ਮੁਕਤਾ ॥ कवनु सु गुपता कवनु सु मुकता ॥ सिद्ध योगी गुरु नानक देव जी से प्रश्न करते हैं- वह कौन है, जो गुप्त रहता है ? वह कौन है जो बन्धनों से मुक्त है?
ਕਵਨੁ ਸੁ ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਜੁਗਤਾ ॥ कवनु सु अंतरि बाहरि जुगता ॥ वह कौन है, जो अन्दर-बाहर शब्द से जुड़ा रहता है ?
ਕਵਨੁ ਸੁ ਆਵੈ ਕਵਨੁ ਸੁ ਜਾਇ ॥ कवनु सु आवै कवनु सु जाइ ॥ वह कौन है, जो संसार में जन्म लेकर आता है और वह कौन है, जो चला जाता है ?
ਕਵਨੁ ਸੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੧੨॥ कवनु सु त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥१२॥ वह कौन है, जो आकाश, पाताल, पृथ्वी तीनों लोकों में समाया रहता है ?॥ १२॥
ਘਟਿ ਘਟਿ ਗੁਪਤਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੁਕਤਾ ॥ घटि घटि गुपता गुरमुखि मुकता ॥ गुरु नानक देव जी सिद्धों को उत्तर देते हैं कि, घट-घट में व्यापक परमात्मा गुप्त रहता है और गुरुमुख ही बन्धनों से मुक्त है और
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਸਬਦਿ ਸੁ ਜੁਗਤਾ ॥ अंतरि बाहरि सबदि सु जुगता ॥ अन्दर बाहर व्यवहार करता हुआ शब्द से जुड़ा रहता है।
ਮਨਮੁਖਿ ਬਿਨਸੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ मनमुखि बिनसै आवै जाइ ॥ स्वेच्छाचारी प्राणी नाश हो जाता है और जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧੩॥ नानक गुरमुखि साचि समाइ ॥१३॥ गुरु नानक का कथन है कि गुरुमुख सत्य में ही विलीन रहता है॥ १३॥
ਕਿਉ ਕਰਿ ਬਾਧਾ ਸਰਪਨਿ ਖਾਧਾ ॥ किउ करि बाधा सरपनि खाधा ॥ सिद्ध दोबारा प्रश्न करते हैं कि, कोई मनुष्य बन्धनों में क्यों बंधा हुआ है ? और माया रूपी सर्पिणी ने क्यों ग्रास बना लिया है ?
ਕਿਉ ਕਰਿ ਖੋਇਆ ਕਿਉ ਕਰਿ ਲਾਧਾ ॥ किउ करि खोइआ किउ करि लाधा ॥ किसी जीव ने मनुष्य जन्म का लाभ कैसे खो दिया है और वह इसे कैसे पुनः प्राप्त कर सकता है?
ਕਿਉ ਕਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਕਿਉ ਕਰਿ ਅੰਧਿਆਰਾ ॥ किउ करि निरमलु किउ करि अंधिआरा ॥ जीव का मन कैसे निर्मल होता है और कैसे अज्ञानता का अंधेरा दूर होता है?
ਇਹੁ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੈ ਸੁ ਗੁਰੂ ਹਮਾਰਾ ॥੧੪॥ इहु ततु बीचारै सु गुरू हमारा ॥१४॥ जो इस ज्ञान-तत्व का विचार करे, वही हमारा गुरु है॥ १४॥
ਦੁਰਮਤਿ ਬਾਧਾ ਸਰਪਨਿ ਖਾਧਾ ॥ दुरमति बाधा सरपनि खाधा ॥ गुरु नानक देव जी उत्तर देते हैं कि, मनुष्य को उसकी दुर्मति ने बन्धनों में बांध लिया है और माया रूपी सर्पिणी ने उसे निगल लिया है।
ਮਨਮੁਖਿ ਖੋਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਾਧਾ ॥ मनमुखि खोइआ गुरमुखि लाधा ॥ मनमुखी जीव ने सत्य को खो दिया है और गुरुमुख ने सत्य को पा लिया है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਅੰਧੇਰਾ ਜਾਇ ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ जिसका सतगुरु से साक्षात्कार हो जाता है, उसका अज्ञान रूपी अंधेरा दूर हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਹਉਮੈ ਮੇਟਿ ਸਮਾਇ ॥੧੫॥ नानक हउमै मेटि समाइ ॥१५॥ हे नानक ! गुरुमुख जीव अपने अहंकार को मिटाकर सत्य में विलीन हो जाता है॥ १५ ॥
ਸੁੰਨ ਨਿਰੰਤਰਿ ਦੀਜੈ ਬੰਧੁ ॥ सुंन निरंतरि दीजै बंधु ॥ गुरु साहिब जी सिद्धों को समझाते हैं कि, जब मन की चंचलता प्रभु में एकाग्र हो जाती है, तब उसका सिमरन माया और विकारों के आघातों के विरुद्ध एक अडोल कवच बनकर खड़ा हो जाता है।
ਉਡੈ ਨ ਹੰਸਾ ਪੜੈ ਨ ਕੰਧੁ ॥ उडै न हंसा पड़ै न कंधु ॥ तब हमारा मन, जो हंस की तरह चंचल है, भटकता नहीं और शरीर की ऊर्जा भी नष्ट नहीं होती।
ਸਹਜ ਗੁਫਾ ਘਰੁ ਜਾਣੈ ਸਾਚਾ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਚੇ ਭਾਵੈ ਸਾਚਾ ॥੧੬॥ सहज गुफा घरु जाणै साचा ॥ नानक साचे भावै साचा ॥१६॥ वह सच्चा जीव रूपी हंस सहजावस्था रूपी घर को पहचान लेता है। हे नानक ! सच्चे परमेश्वर को ऐसा सत्यवादी जीव ही प्रिय लगता है॥ १६॥
ਕਿਸੁ ਕਾਰਣਿ ਗ੍ਰਿਹੁ ਤਜਿਓ ਉਦਾਸੀ ॥ किसु कारणि ग्रिहु तजिओ उदासी ॥ सिद्ध गुरु जी से प्रश्न करते हैं कि हे उदासी संत ! तूमने अपना घर किस कारण त्याग दिया है ?
ਕਿਸੁ ਕਾਰਣਿ ਇਹੁ ਭੇਖੁ ਨਿਵਾਸੀ ॥ किसु कारणि इहु भेखु निवासी ॥ तूमने किस कारण यह उदासियों वाला भेष धारण किया है ?
ਕਿਸੁ ਵਖਰ ਕੇ ਤੁਮ ਵਣਜਾਰੇ ॥ किसु वखर के तुम वणजारे ॥ तुम किस सौदे के व्यापारी हो ?
ਕਿਉ ਕਰਿ ਸਾਥੁ ਲੰਘਾਵਹੁ ਪਾਰੇ ॥੧੭॥ किउ करि साथु लंघावहु पारे ॥१७॥ तुम अपने साथियों को कैसे भवसागर से पार करवा सकते हो ?॥ १७॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਖੋਜਤ ਭਏ ਉਦਾਸੀ ॥ गुरमुखि खोजत भए उदासी ॥ गुरु नानक देव जी उत्तर देते हैं कि, हम गुरुमुख संतों की खोज में उदासी बने हैं और
ਦਰਸਨ ਕੈ ਤਾਈ ਭੇਖ ਨਿਵਾਸੀ ॥ दरसन कै ताई भेख निवासी ॥ संतों महापुरुषों के दर्शन करने के लिए यह भेष धारण किया हुआ है।
ਸਾਚ ਵਖਰ ਕੇ ਹਮ ਵਣਜਾਰੇ ॥ साच वखर के हम वणजारे ॥ हम सत्य-नाम रूपी सौदे के व्यापारी हैं और
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਉਤਰਸਿ ਪਾਰੇ ॥੧੮॥ नानक गुरमुखि उतरसि पारे ॥१८॥ गुरुमुख जीव भवसागर से पार हो जाते हैं।॥१८॥
ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਪੁਰਖਾ ਜਨਮੁ ਵਟਾਇਆ ॥ कितु बिधि पुरखा जनमु वटाइआ ॥ सिद्धों ने गुरु जी से पुनः प्रश्न किया- हे महापुरुष ! तूमने किस विधि द्वारा अपना जीवन बदल लिया है और
ਕਾਹੇ ਕਉ ਤੁਝੁ ਇਹੁ ਮਨੁ ਲਾਇਆ ॥ काहे कउ तुझु इहु मनु लाइआ ॥ तूमने किससे अपना यह मन लगा लिया है ?


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