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ਰਾਗੁ ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੩ ਘਰੁ ੧੦
रागु सूही महला ३ घरु १०
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਦੁਨੀਆ ਨ ਸਾਲਾਹਿ ਜੋ ਮਰਿ ਵੰਞਸੀ ॥
हे जीव ! दुनिया की झूठी प्रशंसा मत कर, क्योंकि यह तो नाशवान है।
ਲੋਕਾ ਨ ਸਾਲਾਹਿ ਜੋ ਮਰਿ ਖਾਕੁ ਥੀਈ ॥੧॥
लोगों की भी खुशामद मत कर, क्योंकि लोग तो मरकर खाक में मिल जाते हैं।॥ १॥
ਵਾਹੁ ਮੇਰੇ ਸਾਹਿਬਾ ਵਾਹੁ ॥
वाह मेरे मालिक ! तू धन्य है, प्रशंसा का पात्र है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸਲਾਹੀਐ ਸਚਾ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु के सान्निध्य में उस सच्चे एवं बेपरवाह मालिक की सदैव स्तुति करनी चाहिए॥ १॥ रहाउ॥
ਦੁਨੀਆ ਕੇਰੀ ਦੋਸਤੀ ਮਨਮੁਖ ਦਝਿ ਮਰੰਨਿ ॥
दुनिया की दोस्ती में लगकर स्वेच्छाचारी आदमी जलकर मर जाते हैं।
ਜਮ ਪੁਰਿ ਬਧੇ ਮਾਰੀਅਹਿ ਵੇਲਾ ਨ ਲਾਹੰਨਿ ॥੨॥
उन्हें यमपुरी में बाँधकर मारा जाता है और दोबारा मानव-जन्म का सुनहरी अवसर नहीं मिलता ॥ २॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਨਮੁ ਸਕਾਰਥਾ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਲਗੰਨਿ ॥
गुरुमुखों का जन्म सफल हो जाता है और वे सच्चे शब्द में ही मग्न रहते हैं।
ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਪ੍ਰਗਾਸਿਆ ਸਹਜੇ ਸੁਖਿ ਰਹੰਨਿ ॥੩॥
उनके अन्तर्मन में बसा हुआ राम प्रगट हो जाता है और वे सहज ही सुखी रहते हैं।॥ ३॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਰਚੰਨਿ ॥
गुरु के शब्द को भुलाने वाले व्यक्ति द्वैतभाव में ही फंसे रहते हैं।
ਤਿਸਨਾ ਭੁਖ ਨ ਉਤਰੈ ਅਨਦਿਨੁ ਜਲਤ ਫਿਰੰਨਿ ॥੪॥
उनकी तृष्णा की भूख कभी दूर नहीं होती और वे हर समय तृष्णा में ही जलते रहते हैं।॥ ४॥
ਦੁਸਟਾ ਨਾਲਿ ਦੋਸਤੀ ਨਾਲਿ ਸੰਤਾ ਵੈਰੁ ਕਰੰਨਿ ॥
ऐसे स्वेच्छाचारी इन्सान दुष्टों से दोस्ती करते हैं परन्तु संतों से बड़ा बैर करते हैं।
ਆਪਿ ਡੁਬੇ ਕੁਟੰਬ ਸਿਉ ਸਗਲੇ ਕੁਲ ਡੋਬੰਨਿ ॥੫॥
वह अपने परिवार सहित भवसागर में डूब जाते हैं और अपने समूचे वंश को भी डुबा देते हैं।॥ ५॥
ਨਿੰਦਾ ਭਲੀ ਕਿਸੈ ਕੀ ਨਾਹੀ ਮਨਮੁਖ ਮੁਗਧ ਕਰੰਨਿ ॥
किसी की भी निन्दा करना अच्छा नहीं है लेकिन मूर्ख मनमुख निंदा ही करते रहते हैं।
ਮੁਹ ਕਾਲੇ ਤਿਨ ਨਿੰਦਕਾ ਨਰਕੇ ਘੋਰਿ ਪਵੰਨਿ ॥੬॥
परमात्मा के दरबार में उनके मुँह काले किए जाते हैं और वे घोर नरक में डाल दिए जाते हैं।॥ ६॥
ਏ ਮਨ ਜੈਸਾ ਸੇਵਹਿ ਤੈਸਾ ਹੋਵਹਿ ਤੇਹੇ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥
हे मन ! तू जैसे सेवा करता है, वैसा ही बन जाता है और वैसे ही कर्म करता है।
ਆਪਿ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਵਣਾ ਕਹਣਾ ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥੭॥
जीव को स्वयं बीज कर स्वयं ही उसका फल खाना होता है। इस बारे अन्य कुछ कहा नहीं जा सकता ॥ ७ ॥
ਮਹਾ ਪੁਰਖਾ ਕਾ ਬੋਲਣਾ ਹੋਵੈ ਕਿਤੈ ਪਰਥਾਇ ॥
महापुरुषों के प्रवचन किसी परमार्थ के लिए होते हैं
ਓਇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਭਰੇ ਭਰਪੂਰ ਹਹਿ ਓਨਾ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ ॥੮॥
वे अमृतमयी नाम-रस से भरपूर होते हैं और उन्हें तिल भर भी लोभ नहीं होता॥ ८॥
ਗੁਣਕਾਰੀ ਗੁਣ ਸੰਘਰੈ ਅਵਰਾ ਉਪਦੇਸੇਨਿ ॥
वह परोपकारी महापुरुष स्वयं शुभ गुणों को ग्रहण करते हैं और दूसरों को भी उपदेश देते हैं।
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਜਿ ਓਨਾ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਲਏਨਿ ॥੯॥
जो व्यक्ति उनकी संगति में रहते हैं, वे बड़े खुशनसीब हैं और रात-दिन निरंकार का नाम जपते रहते हैं।॥९॥
ਦੇਸੀ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿ ਜਿਨਿ ਉਪਾਈ ਮੇਦਨੀ ॥
जिस ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न की है, वह सबको आहार पहुँचाता है।
ਏਕੋ ਹੈ ਦਾਤਾਰੁ ਸਚਾ ਆਪਿ ਧਣੀ ॥੧੦॥
एक वही सबको देने वाला है, जो सदैव सत्य एवं सबका मालिक है॥ १०॥
ਸੋ ਸਚੁ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲਿ ॥
हे जीव ! वह सत्य तेरे साथ रहता है और गुरुमुखों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल कर देता है।
ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਮੇਲਿ ਲਏ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਸਮਾਲਿ ॥੧੧॥
जो स्वयं ही जीवों को कृपा करके अपने साथ मिला लेता है, सो उस प्रभु को हमेशा याद करते रहो॥ ११॥
ਮਨੁ ਮੈਲਾ ਸਚੁ ਨਿਰਮਲਾ ਕਿਉ ਕਰਿ ਮਿਲਿਆ ਜਾਇ ॥
इन्सान का मन बड़ा मैला है परन्तु सच्चा प्रभु निर्मल है। फिर उस प्रभु से कैसे मिला जा सकता है?
ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਲੇ ਤਾ ਮਿਲਿ ਰਹੈ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇ ॥੧੨॥
यदि प्रभु स्वयं ही इन्सान को अपने साथ मिला ले तो वह उससे मिला रहता है। वह शब्द द्वारा अपने अहंत्व को जला देता है॥ १२ ॥
ਸੋ ਸਹੁ ਸਚਾ ਵੀਸਰੈ ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣੁ ਸੰਸਾਰਿ ॥
यदि इन्सान को सच्चा प्रभु भूल जाए तो उसका संसार में जीना धिक्कार योग्य है।
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਨਾ ਵੀਸਰੈ ਗੁਰਮਤੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥੧੩॥
यदि वह अपनी कृपा करे तो वह उसे कभी भी नहीं भूलता और वह गुरु की शिक्षा द्वारा प्रभु का चिंतन करता रहता है।॥ १३॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲੇ ਤਾ ਮਿਲਿ ਰਹਾ ਸਾਚੁ ਰਖਾ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
यदि सतगुरु उस परमात्मा से मिला दे तो ही मैं उससे मिला रहूँ और परम सत्य को अपने हृदय में बसाकर रखें।
ਮਿਲਿਆ ਹੋਇ ਨ ਵੀਛੁੜੈ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥੧੪॥
जो व्यक्ति गुरु के प्रेम द्वारा प्रभु से मिला होता है, वह फिर उससे कदापि जुदा नहीं होता ॥ १४॥
ਪਿਰੁ ਸਾਲਾਹੀ ਆਪਣਾ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
वह गुरु-शब्द के चिंतन द्वारा अपने प्रभु की स्तुति करता रहता है।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸੋਭਾਵੰਤੀ ਨਾਰਿ ॥੧੫॥
शोभावान जीव-स्त्री ने अपने प्रियतम-प्रभु को मिलकर सुख पा लिया है॥ १५॥
ਮਨਮੁਖ ਮਨੁ ਨ ਭਿਜਈ ਅਤਿ ਮੈਲੇ ਚਿਤਿ ਕਠੋਰ ॥
स्वेच्छाचारी आदमी का मन प्रभु में मग्न नहीं होता। वह बहुत अपवित्र एवं कठोर हदय वाला होता है।
ਸਪੈ ਦੁਧੁ ਪੀਆਈਐ ਅੰਦਰਿ ਵਿਸੁ ਨਿਕੋਰ ॥੧੬॥
यदि सांप को दूध भी पिलाया जाए तो उसके भीतर सिर्फ विष ही भरा रहता है॥ १६॥
ਆਪਿ ਕਰੇ ਕਿਸੁ ਆਖੀਐ ਆਪੇ ਬਖਸਣਹਾਰੁ ॥
इम किसे शिकायत करें? परमात्मा स्वयं ही सबकुछ करता है और वह स्वयं ही क्षमावान है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਮੈਲੁ ਉਤਰੈ ਤਾ ਸਚੁ ਬਣਿਆ ਸੀਗਾਰੁ ॥੧੭॥
गुरु के शब्द द्वारा जब मन की अहंत्व रूपी मेल उतर जाती है तो ही सत्य का श्रृंगार बनता है॥ १७॥