Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 661

Page 661

ਜਬ ਲਗੁ ਦੁਨੀਆ ਰਹੀਐ ਨਾਨਕ ਕਿਛੁ ਸੁਣੀਐ ਕਿਛੁ ਕਹੀਐ ॥ हे नानक ! जब तक हमने दुनिया में रहना है, हमें प्रभु के बारे में कुछ कहना एवं कुछ सुनना चाहिए।
ਭਾਲਿ ਰਹੇ ਹਮ ਰਹਣੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜੀਵਤਿਆ ਮਰਿ ਰਹੀਐ ॥੫॥੨॥ हमने बड़ी खोज-तलाश की है, किन्तु सदैव रहने का कोई मार्ग नहीं मिला। इसलिए जब तक जीना है, अहंकार को मारकर जीवन बिताना चाहिए।५।।२।।
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ਦੂਜਾ धनासरी महला १ घरु दूजा
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਕਿਉ ਸਿਮਰੀ ਸਿਵਰਿਆ ਨਹੀ ਜਾਇ ॥ मैं कैसे सिमरन करूं ? मुझ से तो परमात्मा का भजन-सिमरन नहीं किया जाता।
ਤਪੈ ਹਿਆਉ ਜੀਅੜਾ ਬਿਲਲਾਇ ॥ सिमरन के बिना मेरा हृदय अग्नि की भांति जल रहा है और मेरी आत्मा भी दु:ख में विलाप कर रही है।
ਸਿਰਜਿ ਸਵਾਰੇ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥ जब परम-सत्य परमात्मा सब जीवों को पैदा करके स्वयं ही उन्हें गुणवान बनाता है तो
ਤਿਸੁ ਵਿਸਰਿਐ ਚੰਗਾ ਕਿਉ ਹੋਇ ॥੧॥ फिर उस प्रभु को विस्मृत करने से भला कैसे हो सकता है ॥१॥
ਹਿਕਮਤਿ ਹੁਕਮਿ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥ किसी चतुराई एवं हुक्म द्वारा प्रभु प्राप्त नहीं किया जा सकता।
ਕਿਉ ਕਰਿ ਸਾਚਿ ਮਿਲਉ ਮੇਰੀ ਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे मेरी माता ! उस परम-सत्य ईश्वर को मैं कैसे मिल सकता हूँ? ॥१॥ रहाउ ॥
ਵਖਰੁ ਨਾਮੁ ਦੇਖਣ ਕੋਈ ਜਾਇ ॥ कोई विरला मनुष्य ही नाम रूपी सौदा देखने के लिए जाता है।
ਨਾ ਕੋ ਚਾਖੈ ਨਾ ਕੋ ਖਾਇ ॥ इस नामामृत को न कोई चखता है और न ही कोई खाता है।
ਲੋਕਿ ਪਤੀਣੈ ਨਾ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥ लोगों की खुशामद करने से मनुष्य को मान-सम्मान प्राप्त नही होता।
ਤਾ ਪਤਿ ਰਹੈ ਰਾਖੈ ਜਾ ਸੋਇ ॥੨॥ मनुष्य का मान-सम्मान तभी रहता है, यदि वह सच्चा परमेश्वर स्वयं ही लाज रखे ॥२॥
ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥ हे ईश्वर ! मैं जिधर भी देखता हूँ, तू उधर ही विद्यमान है।
ਤੁਧੁ ਬਿਨੁ ਦੂਜੀ ਨਾਹੀ ਜਾਇ ॥ तेरे सिवाय मेरा अन्य कोई सुख का स्थान नहीं।
ਜੇ ਕੋ ਕਰੇ ਕੀਤੈ ਕਿਆ ਹੋਇ ॥ यदि कोई मनुष्य कुछ करने का प्रयास भी करे तो भी उसका किया कुछ नहीं होता।
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥੩॥ वह सच्चा परमेश्वर जिस पर करुणा करता है, वही कुछ कर सकता है॥३॥
ਹੁਣਿ ਉਠਿ ਚਲਣਾ ਮੁਹਤਿ ਕਿ ਤਾਲਿ ॥ अब एक मुहूर्त अथवा हाथ की ताली बजाने जितने समय में ही उठकर मैंने यहाँ से चले जाना है।
ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਦੇਸਾ ਗੁਣ ਨਹੀ ਨਾਲਿ ॥ मुझ में तो कोई भी गुण विद्यमान नहीं, फिर मैं उस प्रभु को अपना कौन-सा मुँह दिखाऊँगा ?
ਜੈਸੀ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤੈਸਾ ਹੋਇ ॥ जैसी दृष्टि परमात्मा करता है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है।
ਵਿਣੁ ਨਦਰੀ ਨਾਨਕ ਨਹੀ ਕੋਇ ॥੪॥੧॥੩॥ हे नानक ! उसकी (कृपा) दृष्टि के बिना कोई भी जीव नहीं है॥ ॥४॥१॥३॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ धनासरी महला १ ॥
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਾ ਸਿਮਰਿਆ ਜਾਇ ॥ यदि परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि करे तो ही उसका भजन-सिमरन किया जाता है।
ਆਤਮਾ ਦ੍ਰਵੈ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥ जब मनुष्य की आत्मा द्रवित हो जाती है तो वह अपना ध्यान सत्य में ही लगाता है।
ਆਤਮਾ ਪਰਾਤਮਾ ਏਕੋ ਕਰੈ ॥ जब वह आत्मा-परमात्मा को एक रूप समझ लेता है तो
ਅੰਤਰ ਕੀ ਦੁਬਿਧਾ ਅੰਤਰਿ ਮਰੈ ॥੧॥ उसके मन की दुविधा उसके मन में ही मर जाती है ॥१॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥ भगवान की प्राप्ति तो गुरु की अपार कृपा से ही होती है।
ਹਰਿ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਗੈ ਫਿਰਿ ਕਾਲੁ ਨ ਖਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ यदि मनुष्य का चित्त भगवान के साथ लग जाए तो फिर काल उसे नहीं निगलता ॥१॥ रहाउ॥
ਸਚਿ ਸਿਮਰਿਐ ਹੋਵੈ ਪਰਗਾਸੁ ॥ उस सच्चे प्रभु का सिमरन करने से मन में ही सत्य का आलोक हो जाता है और
ਤਾ ਤੇ ਬਿਖਿਆ ਮਹਿ ਰਹੈ ਉਦਾਸੁ ॥ वह विष रूपी माया में ही निर्लिप्त रहता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਐਸੀ ਵਡਿਆਈ ॥ सतगुरु की ऐसी बड़ाई है कि
ਪੁਤ੍ਰ ਕਲਤ੍ਰ ਵਿਚੇ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੨॥ मनुष्य अपने पुत्रों एवं अपनी पत्नी के बीच रहता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२॥
ਐਸੀ ਸੇਵਕੁ ਸੇਵਾ ਕਰੈ ॥ प्रभु का सेवक उसकी ऐसी सेवा करता है कि
ਜਿਸ ਕਾ ਜੀਉ ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਧਰੈ ॥ जिस प्रभु ने यह प्राण उसे दिए हुए हैं, वह उसके समक्ष अर्पित कर देता है।
ਸਾਹਿਬ ਭਾਵੈ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ॥ जो मनुष्य प्रभु को अच्छा लगता है, वह परवान हो जाता है।
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਦਰਗਹ ਪਾਵੈ ਮਾਣੁ ॥੩॥ ऐसा सेवक प्रभु के दरबार में बड़ी शोभा प्राप्त करता है ॥३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਮੂਰਤਿ ਹਿਰਦੈ ਵਸਾਏ ॥ सतगुरु की मूर्त को वह अपने हृदय में बसाता है, और
ਜੋ ਇਛੈ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਏ ॥ जो उसकी इच्छा होती है, वही फल प्राप्त कर लेता है।
ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਕਿਰਪਾ ਕਰੈ ॥ सच्चा परमेश्वर स्वयं उस पर अपनी कृपा करता है तो
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਜਮ ਤੇ ਕੈਸਾ ਡਰੈ ॥੪॥ ऐसा सेवक फिर मृत्यु से कैसे डर सकता है ॥४॥
ਭਨਤਿ ਨਾਨਕੁ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥ हे नानक ! जो मनुष्य शब्द पर विचार करता है और
ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਸਿਉ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥ सच्ची वाणी से प्रेम करता है,
ਤਾ ਕੋ ਪਾਵੈ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥ उसे मोक्ष के द्वार की प्राप्ति हो जाती है।
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸਭੁ ਇਹੁ ਸਬਦੁ ਹੈ ਸਾਰੁ ॥੫॥੨॥੪॥ यह शब्द ही समस्त जप एवं तप का सार है ॥५॥२॥४॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ धनासरी महला १ ॥
ਜੀਉ ਤਪਤੁ ਹੈ ਬਾਰੋ ਬਾਰ ॥ मेरी आत्मा बार-बार अग्नि की तरह जलती है।
ਤਪਿ ਤਪਿ ਖਪੈ ਬਹੁਤੁ ਬੇਕਾਰ ॥ यह जल-जल कर दुखी होती रहती है और अनेक विकारों में फंस जाती है।
ਜੈ ਤਨਿ ਬਾਣੀ ਵਿਸਰਿ ਜਾਇ ॥ जिस शरीर को वाणी विस्मृत हो जाती है,
ਜਿਉ ਪਕਾ ਰੋਗੀ ਵਿਲਲਾਇ ॥੧॥ वह पक्के रोगी की तरह विलाप करता रहता है ॥१॥
ਬਹੁਤਾ ਬੋਲਣੁ ਝਖਣੁ ਹੋਇ ॥ अधिकतर बोलना व्यर्थ बकवास हो जाता है क्योंकि
ਵਿਣੁ ਬੋਲੇ ਜਾਣੈ ਸਭੁ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ वह प्रभु तो हमारे बोले बिना ही हमारे बारे में सब कुछ जानता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਜਿਨਿ ਕਨ ਕੀਤੇ ਅਖੀ ਨਾਕੁ ॥ जिसने हमारे कान, नेत्र एवं नाक बनाया है,
ਜਿਨਿ ਜਿਹਵਾ ਦਿਤੀ ਬੋਲੇ ਤਾਤੁ ॥ जिसने हमें जिव्हा दी है, जो शीघ्र बोलती है,


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