Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 591

Page 591

ਜਿਨਾ ਗੁਰਸਿਖਾ ਕਉ ਹਰਿ ਸੰਤੁਸਟੁ ਹੈ ਤਿਨੀ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਗਲ ਮੰਨੀ ॥ जिन गुरु के शिष्यों पर भगवान परम संतुष्ट हैं, उन्होंने सतिगुरु की बात मानी है। गुरु के वे शिष्य जिनसे भगवान् प्रसन्न होते हैं, सच्चे गुरु की शिक्षा का पालन करते हैं।
ਜੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਦੇ ਤਿਨੀ ਚੜੀ ਚਵਗਣਿ ਵੰਨੀ ॥੧੨॥ जो गुरुमुख हरि-नाम का ध्यान-मनन करते हैं, वे उसके प्रेम रंग के चौगुणा रंग से रंगे जाते हैं।॥ १२ ॥ जो गुरुमुख हरि-नाम का ध्यान-मनन करते हैं, वे उसके प्रेम रंग के चौगुणा रंग से रंगे जाते हैं।॥ १२ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३ ॥ श्लोक, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਮਨਮੁਖੁ ਕਾਇਰੁ ਕਰੂਪੁ ਹੈ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਨਕੁ ਨਾਹਿ ॥ स्वेच्छाचारी पुरुष बड़ा कायर एवं बदशक्ल है और भगवान के नाम के बिना वह नकटा है अर्थात् उसका कोई सम्मान नहीं करता। स्वेच्छाचारी व्यक्ति कायर और कुरूप होता है, और भगवान् के नाम का ध्यान किए बिना उसे कहीं सम्मान नहीं मिलता।
ਅਨਦਿਨੁ ਧੰਧੈ ਵਿਆਪਿਆ ਸੁਪਨੈ ਭੀ ਸੁਖੁ ਨਾਹਿ ॥ ऐसा पुरुष दिन-रात दुनिया के धंधों में व्यस्त रहता है और स्वप्न में भी उसे सुख उपलब्ध नहीं होता। ऐसा पुरुष दिन-रात दुनिया के धंधों में व्यस्त रहता है और स्वप्न में भी उसे सुख उपलब्ध नहीं होता।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵਹਿ ਤਾ ਉਬਰਹਿ ਨਾਹਿ ਤ ਬਧੇ ਦੁਖ ਸਹਾਹਿ ॥੧॥ हे नानक ! ऐसा पुरुष यदि गुरुमुख बन जाए तो ही उसे मुक्ति मिल सकती है, अन्यथा बन्धनों में फँसा हुआ वह दुख ही भोगता रहता है॥ १॥ हे नानक ! ऐसा पुरुष यदि गुरुमुख बन जाए तो ही उसे मुक्ति मिल सकती है, अन्यथा बन्धनों में फँसा हुआ वह दुःख ही भोगता रहता है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥ तीसरे गुरु: ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਦਰਿ ਸੋਹਣੇ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਕਮਾਹਿ ॥ गुरुमुख व्यक्ति भगवान के दरबार में सर्वदा सुन्दर लगते हैं और वे गुरु के शब्द का अभ्यास करते हैं। गुरुमुख व्यक्ति भगवान् के दरबार में सर्वदा सुन्दर लगते हैं और वे गुरु के शब्द का अभ्यास करते हैं।
ਅੰਤਰਿ ਸਾਂਤਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਹਿ ॥ उनके अन्तर में सदा शांति एवं सुख बना रहता है और वे सच्चे परमेश्वर के द्वार पर बड़ी शोभा प्राप्त करते हैं। उनके अन्तर में सदा शांति एवं सुख बना रहता है और वे सच्चे परमेश्वर के द्वार पर बड़ी शोभा प्राप्त करते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਾਇਆ ਸਹਜੇ ਸਚਿ ਸਮਾਹਿ ॥੨॥ हे नानक ! जिन गुरुमुखों ने हरि-नाम पाया है, वे सहज स्वभाव ही सत्य में समा गए हैं ॥२॥ हे नानक ! जिन गुरुमुखों ने हरि-नाम पाया है, वे सहज स्वभाव ही सत्य में समा गए हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी। पौड़ी।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਹਿਲਾਦਿ ਜਪਿ ਹਰਿ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥ गुरु के सान्निध्य में रहकर भक्त प्रहलाद ने हरि का जाप करके गति प्राप्त की थी। गुरु के सान्निध्य में रहकर भक्त प्रहलाद ने हरि का जाप करके गति प्राप्त की थी।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਨਕਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥ गुरु के माध्यम से ही जनक ने हरि के नाम में सुरति लगाई थी। गुरु के माध्यम से ही राजा जनक ने हरि के नाम में सुरति लगाई थी।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਸਿਸਟਿ ਹਰਿ ਉਪਦੇਸੁ ਸੁਣਾਈ ॥ गुरु के माध्यम से ही वसिष्ठ जी ने हरि का उपदेश सुनाया था। अपने गुरु के माध्यम से ही ऋषि वसिष्ठ जी ने दूसरों को हरि का उपदेश सुनाया था।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨ ਕਿਨੈ ਪਾਇਆ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ॥ हे मेरे भाई ! गुरु के बिना किसी को भी हरि का नाम प्राप्त नहीं हुआ। हे मेरे भाई ! गुरु के बिना किसी को भी हरि का नाम प्राप्त नहीं हुआ।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਲਹਾਈ ॥੧੩॥ गुरुमुख व्यक्ति को ही हरि ने स्वयं अपनी भक्ति प्रदान की है॥ १३॥ गुरुमुख व्यक्ति को ही हरि ने स्वयं अपनी भक्ति प्रदान की है॥ १३॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३॥ श्लोक, तीसरे गुरु: ३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਪਰਤੀਤਿ ਨ ਆਈਆ ਸਬਦਿ ਨ ਲਾਗੋ ਭਾਉ ॥ जिस व्यक्ति की सतिगुरु पर श्रद्धा अथवा निष्ठा नहीं बनी और जो शब्द से प्रेम नहीं करता, जिस व्यक्ति की सतगुरु पर श्रद्धा अथवा निष्ठा नहीं बनी और जो शब्द से प्रेम नहीं करता,
ਓਸ ਨੋ ਸੁਖੁ ਨ ਉਪਜੈ ਭਾਵੈ ਸਉ ਗੇੜਾ ਆਵਉ ਜਾਉ ॥ उसे सुख की उपलब्धि नहीं होती, निसंदेह वह सौ बार दुनिया में आता (जन्म लेता) अथवा जाता (मरता) रहे। उसे सुख की उपलब्धि नहीं होती, निसंदेह वह सौ बार दुनिया में आता (जन्म लेता) अथवा जाता (मरता) रहे।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜਿ ਮਿਲੈ ਸਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਉ ॥੧॥ हे नानक! यदि गुरु के सान्निध्य में सच्चे परमेश्वर में सुरति लगाई जाए तो वह सहज स्वभाव ही प्राप्त हो जाता है ॥१॥ हे नानक! यदि गुरु के सान्निध्य में सच्चे परमेश्वर में सुरति लगाई जाए तो वह सहज स्वभाव ही प्राप्त हो जाता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥ तीसरे गुरु: ३॥
ਏ ਮਨ ਐਸਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਖੋਜਿ ਲਹੁ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥ हे मन ! ऐसे सतिगुरु की खोज कर लो, जिसकी सेवा करने से जन्म-मरण का दुःख दूर हो जाता है। हे मन ! ऐसे सतगुरु की खोज कर लो, जिसकी सेवा करने से जन्म-मरण का दुःख दूर हो जाता है।
ਸਹਸਾ ਮੂਲਿ ਨ ਹੋਵਈ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇ ॥ गुरु को पाने से तब तुझे बिल्कुल भी दुविधा नहीं होगी और तेरा अहंकार शब्द के माध्यम से जल जाएगा। गुरु को पाने से तब तुझे बिल्कुल भी दुविधा नहीं होगी और तेरा अहंकार शब्द के माध्यम से जल जाएगा।
ਕੂੜੈ ਕੀ ਪਾਲਿ ਵਿਚਹੁ ਨਿਕਲੈ ਸਚੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥ फिर झूठ की दीवार तेरे अन्तर से निकल जाएगी और तेरे मन में आकर सत्य का निवास हो जाएगा। फिर झूठ की दीवार तेरे अन्तर से निकल जाएगी और तेरे मन में आकर सत्य का निवास हो जाएगा।
ਅੰਤਰਿ ਸਾਂਤਿ ਮਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ਸਚ ਸੰਜਮਿ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥ सत्य की युक्ति अनुसार कर्म करने से तेरे अन्तर्मन के भीतर शांति एवं सुख हो जाएगा। सत्य की युक्ति अनुसार कर्म करने से तेरे अन्तर्मन के भीतर शांति एवं सुख हो जाएगा।
ਨਾਨਕ ਪੂਰੈ ਕਰਮਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਹਰਿ ਜੀਉ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੨॥ हे नानक ! पूर्ण तकदीर से सतिगुरु तभी मिलता है, जब परमात्मा अपनी इच्छा से कृपा-दृष्टि करता है॥ २॥ हे नानक ! जब परमात्मा अपनी इच्छा से कृपा-दृष्टि करते है तभी पूर्ण भाग्य से सतगुरु मिलते हैं॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी। पौड़ी।
ਜਿਸ ਕੈ ਘਰਿ ਦੀਬਾਨੁ ਹਰਿ ਹੋਵੈ ਤਿਸ ਕੀ ਮੁਠੀ ਵਿਚਿ ਜਗਤੁ ਸਭੁ ਆਇਆ ॥ जिस व्यक्ति के हृदय-घर में न्यायदाता श्रीहरि रहता हो, उसकी मुट्ठी में तो सारी दुनिया ही आ जाती है। जिस व्यक्ति के हृदय-घर में न्यायदाता श्रीहरि रहते हो, उसकी मुट्ठी में तो सारी दुनिया ही आ जाती है।
ਤਿਸ ਕਉ ਤਲਕੀ ਕਿਸੈ ਦੀ ਨਾਹੀ ਹਰਿ ਦੀਬਾਨਿ ਸਭਿ ਆਣਿ ਪੈਰੀ ਪਾਇਆ ॥ उस व्यक्ति को किसी की भी अनुसेवा करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि न्यायदाता श्रीहरि ही सारी दुनिया को लाकर उसके चरणों में झुका कर रख देता है। उस व्यक्ति को किसी की भी अनुसेवा करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि न्यायदाता श्रीहरि ही सारी दुनिया को लाकर उसके चरणों में झुका कर रख देते हैं।
ਮਾਣਸਾ ਕਿਅਹੁ ਦੀਬਾਣਹੁ ਕੋਈ ਨਸਿ ਭਜਿ ਨਿਕਲੈ ਹਰਿ ਦੀਬਾਣਹੁ ਕੋਈ ਕਿਥੈ ਜਾਇਆ ॥ मनुष्यों के न्यायालय में से तो कोई भाग-दोड़कर निकल सकता है किन्तु श्रीहरि के न्यायालय में से कोई किधर जा सकता है ? मनुष्यों के न्यायालय में से तो कोई भाग-दोड़कर निकल सकता है किन्तु श्रीहरि के न्यायालय में से कोई किधर जा सकता है ?
ਸੋ ਐਸਾ ਹਰਿ ਦੀਬਾਨੁ ਵਸਿਆ ਭਗਤਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਤਿਨਿ ਰਹਦੇ ਖੁਹਦੇ ਆਣਿ ਸਭਿ ਭਗਤਾ ਅਗੈ ਖਲਵਾਇਆ ॥ सो ऐसा श्रीहरि न्यायदाता बादशाह भक्तों के हृदय में निवास कर रहा है, जिसने शेष बचे-खुचे समस्त लोगों को भी लाकर भक्तों के समक्ष खड़ा कर दिया है। ऐसा दिव्य न्याय भक्तों के हृदय में बसता है, और भगवान् ने बाकी लोगों को इन भक्तों के सामने विनम्र होकर खड़े होने के लिए बनाया है।
ਹਰਿ ਨਾਵੈ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਿਰਲੈ ਕਿਨੈ ਧਿਆਇਆ ॥੧੪॥ हरि-नाम की कीर्ति तकदीर से ही मिलती है और किसी विरले गुरुमुख ने ही उसका ध्यान किया है॥ १४॥ हरि-नाम की कीर्ति भाग्य से ही मिलती है और किसी विरले गुरुमुख ने ही उसका ध्यान किया है॥ १४॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३॥ श्लोक, तीसरे गुरु: ३॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਜਗਤੁ ਮੁਆ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇ ॥ उस व्यक्ति को किसी की भी अनुसेवा करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि न्यायदाता श्रीहरि ही सारी दुनिया को लाकर उसके चरणों में झुका कर रख देता है। सतगुरु की सेवा के बिना जगत् मृतक शरीर के बराबर बना हुआ है और अपना अमूल्य जन्म व्यर्थ ही गंवा रहा है।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਅਤਿ ਦੁਖੁ ਲਗਾ ਮਰਿ ਜੰਮੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ मनुष्यों के न्यायालय में से तो कोई भाग-दोड़कर निकल सकता है किन्तु श्रीहरि के न्यायालय में से कोई किधर जा सकता है ? मोह-माया में फँस कर जगत अत्यंत दुःख भोगता है और यह जन्मता एवं मरता रहता है।
ਵਿਸਟਾ ਅੰਦਰਿ ਵਾਸੁ ਹੈ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਪਾਇ ॥ सो ऐसा श्रीहरि न्यायदाता बादशाह भक्तों के हृदय में निवास कर रहा है, जिसने शेष बचे-खुचे समस्त लोगों को भी लाकर भक्तों के समक्ष खड़ा कर दिया है। वह विष्टा में निवास करता है और बार-बार योनियों में घूमता रहता हे।
ਨਾਨਕ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਜਮੁ ਮਾਰਸੀ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਇ ॥੧॥ हरि-नाम की कीर्ति तकदीर से ही मिलती है और किसी विरले गुरुमुख ने ही उसका ध्यान किया है॥ १४॥ हे नानक ! भगवान् के नाम से विहीन लोगों को यम कठोर दण्ड देते हैं और अन्तिम क्षणों में लोग पश्चाताप में जलते हुए चले जाते हैं।॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ श्लोक महला ३॥ तीसरे गुरु: ३॥
ਇਸੁ ਜਗ ਮਹਿ ਪੁਰਖੁ ਏਕੁ ਹੈ ਹੋਰ ਸਗਲੀ ਨਾਰਿ ਸਬਾਈ ॥ सतिगुरु की सेवा के बिना जगत मुर्दा-लाश के बराबर बना हुआ है और अपना अमूल्य जन्म व्यर्थ ही गंवा रहा है। इस जगत् में एक ही परम पुरुष (भगवान्) है, शेष सारी दुनिया तो उसकी स्त्रियाँ हैं।


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