Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 587

Page 587

ਦੁਖਿ ਲਗੈ ਘਰਿ ਘਰਿ ਫਿਰੈ ਅਗੈ ਦੂਣੀ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥ दुखि लगै घरि घरि फिरै अगै दूणी मिलै सजाइ ॥ जो व्यक्ति केवल पवित्र वस्त्र पहनकर साधु जैसा दिखावा करता है, वह इस संसार में अपनी आजीविका के लिए दर-दर भटकता है और कष्ट सहता है, और मरने के बाद उसे उसके छल का दुगुना दंड भोगना पड़ता है।
ਅੰਦਰਿ ਸਹਜੁ ਨ ਆਇਓ ਸਹਜੇ ਹੀ ਲੈ ਖਾਇ ॥ अंदरि सहजु न आइओ सहजे ही लै खाइ ॥ उसे कभी भी आंतरिक शांति नहीं मिलती, इसलिए वह लोगों से कुछ न कुछ मांगता रहता है, लेकिन जो कुछ भी पाता है, उसे खाकर भी कभी संतुष्ट नहीं होता।
ਮਨਹਠਿ ਜਿਸ ਤੇ ਮੰਗਣਾ ਲੈਣਾ ਦੁਖੁ ਮਨਾਇ ॥ मनहठि जिस ते मंगणा लैणा दुखु मनाइ ॥ हठ अपनाकर अपनी इच्छा थोपते हुए किसी से भीख मांगना, न केवल स्वयं को शारीरिक कष्ट देना है, बल्कि दाता के मन को भी भावनात्मक पीड़ा पहुंचाना है।
ਇਸੁ ਭੇਖੈ ਥਾਵਹੁ ਗਿਰਹੋ ਭਲਾ ਜਿਥਹੁ ਕੋ ਵਰਸਾਇ ॥ इसु भेखै थावहु गिरहो भला जिथहु को वरसाइ ॥ इस आडम्बर का वेष करने से तो गृहस्थी होना बेहतर है, जो किसी न किसी को तो कुछ देता ही है।
ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਤਿਨਾ ਸੋਝੀ ਪਈ ਦੂਜੈ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇ ॥ सबदि रते तिना सोझी पई दूजै भरमि भुलाइ ॥ जो व्यक्ति शब्द में मग्न हैं, उन्हें सूझ आ जाती है और कुछ लोग तो दुविधा में ही भूले हुए हैं।
ਪਇਐ ਕਿਰਤਿ ਕਮਾਵਣਾ ਕਹਣਾ ਕਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥ पइऐ किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ ॥ लोगों को वही करना पड़ता है जो उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार पहले से निर्धारित होता है, और इसके बारे में अधिक कुछ कहा नहीं जा सकता।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵਹਿ ਸੇ ਭਲੇ ਜਿਨ ਕੀ ਪਤਿ ਪਾਵਹਿ ਥਾਇ ॥੧॥ नानक जो तिसु भावहि से भले जिन की पति पावहि थाइ ॥१॥ हे नानक ! वास्तव में अच्छे वही हैं जो ईश्वर को प्रिय हैं और जिन्हें ईश्वर स्वयं सम्मान देते हैं। ॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरु: ३॥
ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੇਵਿਐ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥ सतिगुरि सेविऐ सदा सुखु जनम मरण दुखु जाइ ॥ सतगुरु की सेवा करने से मनुष्य हमेशा सुखी रहता है और उसकी जन्म-मरण की पीड़ा दूर हो जाती है।
ਚਿੰਤਾ ਮੂਲਿ ਨ ਹੋਵਈ ਅਚਿੰਤੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥ चिंता मूलि न होवई अचिंतु वसै मनि आइ ॥ उसे बिल्कुल ही चिन्ता नहीं होती और अचिंत प्रभु उसके मन में आकर निवास कर लेता है।
ਅੰਤਰਿ ਤੀਰਥੁ ਗਿਆਨੁ ਹੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦੀਆ ਬੁਝਾਇ ॥ अंतरि तीरथु गिआनु है सतिगुरि दीआ बुझाइ ॥ सतगुरु ने यह ज्ञान प्रदान किया है कि मनुष्य के हृदय में ही ज्ञान रूपी तीर्थ-स्थान है।
ਮੈਲੁ ਗਈ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਆ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਰਿ ਤੀਰਥਿ ਨਾਇ ॥ मैलु गई मनु निरमलु होआ अम्रित सरि तीरथि नाइ ॥ इस ज्ञान रूपी तीर्थ-स्थान के अमृत-सरोवर में स्नान करने से सर्व प्रकार की मैल उतर जाती है और मन निर्मल हो जाता है ।
ਸਜਣ ਮਿਲੇ ਸਜਣਾ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸੁਭਾਇ ॥ सजण मिले सजणा सचै सबदि सुभाइ ॥ सच्चे शब्द के प्रेम द्वारा सज्जनों को अपना सज्जन (प्रभु) मिल जाता है।
ਘਰ ਹੀ ਪਰਚਾ ਪਾਇਆ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇ ॥ घर ही परचा पाइआ जोती जोति मिलाइ ॥ अपने घर में ही वे दिव्य ज्ञान को पा लेते हैं और उनकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है।
ਪਾਖੰਡਿ ਜਮਕਾਲੁ ਨ ਛੋਡਈ ਲੈ ਜਾਸੀ ਪਤਿ ਗਵਾਇ ॥ पाखंडि जमकालु न छोडई लै जासी पति गवाइ ॥ ढोंगी पुरुष को यमदूत नहीं छोड़ता और उसे तिरस्कृत करके परलोक में ले जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਸਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੨॥ नानक नामि रते से उबरे सचे सिउ लिव लाइ ॥२॥ हे नानक ! जो सत्य-नाम में मग्न रहते हैं, उनका उद्धार हो जाता है और सच्चे प्रभु के साथ ही उनकी वृति लगी रहती है।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी।
ਤਿਤੁ ਜਾਇ ਬਹਹੁ ਸਤਸੰਗਤੀ ਜਿਥੈ ਹਰਿ ਕਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਬਿਲੋਈਐ ॥ तितु जाइ बहहु सतसंगती जिथै हरि का हरि नामु बिलोईऐ ॥ उस सत्संगति में जाकर बैठो, जहाँ हरि-नाम का मंथन अर्थात् सिमरन किया जाता है।
ਸਹਜੇ ਹੀ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਲੇਹੁ ਹਰਿ ਤਤੁ ਨ ਖੋਈਐ ॥ सहजे ही हरि नामु लेहु हरि ततु न खोईऐ ॥ वहां बहुत शांतिपूर्ण और संयमित ढंग से भगवान् के नाम का ध्यान करें, ताकि आप इसका असली अर्थ न खो दें।
ਨਿਤ ਜਪਿਅਹੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਦਿਨਸੁ ਰਾਤਿ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਢੋਈਐ ॥ नित जपिअहु हरि हरि दिनसु राति हरि दरगह ढोईऐ ॥ नित्य ही हरि-परमेश्वर का भजन करते रहो, हरि के दरबार में आश्रय प्राप्त हो जाएगा।
ਸੋ ਪਾਏ ਪੂਰਾ ਸਤਗੁਰੂ ਜਿਸੁ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲਿਲਾਟਿ ਲਿਖੋਈਐ ॥ सो पाए पूरा सतगुरू जिसु धुरि मसतकि लिलाटि लिखोईऐ ॥ जिस व्यक्ति के माथे पर शुभ-कर्मों के फलस्वरूप विधाता द्वारा भाग्य लिखा होता है, उसे पूर्ण सतगुरु मिल जाते है।
ਤਿਸੁ ਗੁਰ ਕੰਉ ਸਭਿ ਨਮਸਕਾਰੁ ਕਰਹੁ ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਕੀ ਹਰਿ ਗਾਲ ਗਲੋਈਐ ॥੪॥ तिसु गुर कंउ सभि नमसकारु करहु जिनि हरि की हरि गाल गलोईऐ ॥४॥ सभी लोग उस गुरु को नमस्कार करो, जिसने हरि की कथा कथन की है॥ ४ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक, तृतीय गुरु: ३॥
ਸਜਣ ਮਿਲੇ ਸਜਣਾ ਜਿਨ ਸਤਗੁਰ ਨਾਲਿ ਪਿਆਰੁ ॥ सजण मिले सजणा जिन सतगुर नालि पिआरु ॥ जिनका सतगुरु से प्यार होता है, उन सज्जनों को सज्जन ही मिलते हैं।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਤਿਨੀ ਧਿਆਇਆ ਸਚੈ ਪ੍ਰੇਮਿ ਪਿਆਰੁ ॥ मिलि प्रीतम तिनी धिआइआ सचै प्रेमि पिआरु ॥ सच्चे प्रेम-प्यार के कारण वे मिलकर प्रियतम-परमेश्वर को याद करते हैं।
ਮਨ ਹੀ ਤੇ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਅਪਾਰਿ ॥ मन ही ते मनु मानिआ गुर कै सबदि अपारि ॥ गुरु के अपार शब्द के कारण उनके मन में प्रभु के प्रति आस्था हो जाती है।
ਏਹਿ ਸਜਣ ਮਿਲੇ ਨ ਵਿਛੁੜਹਿ ਜਿ ਆਪਿ ਮੇਲੇ ਕਰਤਾਰਿ ॥ एहि सजण मिले न विछुड़हि जि आपि मेले करतारि ॥ यदि परमात्मा स्वयं मिलन करवा दे तो ऐसे सज्जन कभी अलग नहीं होते।
ਇਕਨਾ ਦਰਸਨ ਕੀ ਪਰਤੀਤਿ ਨ ਆਈਆ ਸਬਦਿ ਨ ਕਰਹਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥ इकना दरसन की परतीति न आईआ सबदि न करहि वीचारु ॥ कुछ लोग इस तरह के भी हैं, जिनके हृदय में भगवान् के दर्शनों की प्रतीति नहीं होती और शब्द के बारे में भी विचार नहीं करते।
ਵਿਛੁੜਿਆ ਕਾ ਕਿਆ ਵਿਛੁੜੈ ਜਿਨਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰੁ ॥ विछुड़िआ का किआ विछुड़ै जिना दूजै भाइ पिआरु ॥ जो द्वैतभाव से स्नेह करते हैं, उन प्रभु से अलग हुए मनुष्यों का और क्या वियोग हो सकता है?
ਮਨਮੁਖ ਸੇਤੀ ਦੋਸਤੀ ਥੋੜੜਿਆ ਦਿਨ ਚਾਰਿ ॥ मनमुख सेती दोसती थोड़ड़िआ दिन चारि ॥ मनमुख लोगों के साथ दोस्ती थोड़े समय केवल चार दिन ही रहती है।
ਇਸੁ ਪਰੀਤੀ ਤੁਟਦੀ ਵਿਲਮੁ ਨ ਹੋਵਈ ਇਤੁ ਦੋਸਤੀ ਚਲਨਿ ਵਿਕਾਰ ॥ इसु परीती तुटदी विलमु न होवई इतु दोसती चलनि विकार ॥ इस प्रेम के टूटते विलम्ब नहीं होता और ऐसी दोस्ती से तो केवल विकार ही उत्पन्न होते हैं।
ਜਿਨਾ ਅੰਦਰਿ ਸਚੇ ਕਾ ਭਉ ਨਾਹੀ ਨਾਮਿ ਨ ਕਰਹਿ ਪਿਆਰੁ ॥ जिना अंदरि सचे का भउ नाही नामि न करहि पिआरु ॥ जिनके हृदय में सच्चे परमात्मा का भय विद्यमान नहीं होता और भगवान् के नाम से प्यार नहीं करते,
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਸਿਉ ਕਿਆ ਕੀਚੈ ਦੋਸਤੀ ਜਿ ਆਪਿ ਭੁਲਾਏ ਕਰਤਾਰਿ ॥੧॥ नानक तिन सिउ किआ कीचै दोसती जि आपि भुलाए करतारि ॥१॥ हे नानक ! इस तरह के मनुष्यों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनको सृष्टिकर्ता ने स्वयं ही विस्मृत करके कुमार्गगामी कर दिया है॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरु: ३॥
ਇਕਿ ਸਦਾ ਇਕਤੈ ਰੰਗਿ ਰਹਹਿ ਤਿਨ ਕੈ ਹਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥ इकि सदा इकतै रंगि रहहि तिन कै हउ सद बलिहारै जाउ ॥ कुछ लोग हमेशा भगवान् के प्रेम-रंग में मग्न रहते हैं और मैं उन पर हमेशा बलिहारी जाता हूँ।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਧਨੁ ਅਰਪੀ ਤਿਨ ਕਉ ਨਿਵਿ ਨਿਵਿ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥ तनु मनु धनु अरपी तिन कउ निवि निवि लागउ पाइ ॥ मैं अपना तन-मन-धन उन्हें समर्पित करता हूँ और झुक-झुक कर उनके चरण छूता हूँ।
ਤਿਨ ਮਿਲਿਆ ਮਨੁ ਸੰਤੋਖੀਐ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਭੁਖ ਸਭ ਜਾਇ ॥ तिन मिलिआ मनु संतोखीऐ त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ उन लोगों से भेंट करके मन को बड़ा संतोष होता है और तृष्णा व भूख इत्यादि सभी मिट जाते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੀਏ ਸਦਾ ਸਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੨॥ नानक नामि रते सुखीए सदा सचे सिउ लिव लाइ ॥२॥ हे नानक ! जो भगवान् के नाम में मग्न हैं, वे सदा सुखी रहते हैं और उनकी सत्य में ही लगन लगी रहती है।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी॥
ਤਿਸੁ ਗੁਰ ਕਉ ਹਉ ਵਾਰਿਆ ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਕੀ ਹਰਿ ਕਥਾ ਸੁਣਾਈ ॥ तिसु गुर कउ हउ वारिआ जिनि हरि की हरि कथा सुणाई ॥ मैं उस गुरु पर बलिहारी जाता हूँ, जिसने हरि की कथा सुनाई है।


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