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ਭਾਈ ਰੇ ਅਵਰੁ ਨਾਹੀ ਮੈ ਥਾਉ ॥
हे भाई ! गुरु के बिना मेरा अन्य कोई भी स्थान नहीं।
ਮੈ ਧਨੁ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਗੁਰਿ ਦੀਆ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु ने कृपा करके मुझे हरि-नाम की दौलत का खजाना प्रदान किया है, मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ ॥१॥ रहाउ॥
ਗੁਰਮਤਿ ਪਤਿ ਸਾਬਾਸਿ ਤਿਸੁ ਤਿਸ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਲਾਉ ॥
गुरु के उपदेश द्वारा बड़ा यश प्राप्त होता है। ईश्वर करे मेरा उनके साथ मेल-मिलाप हो।
ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਘੜੀ ਨ ਜੀਵਊ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਮਰਿ ਜਾਉ ॥
उसके बिना में क्षण-मात्र भी जीवित नहीं रह सकता। उसके नाम के बिना मैं आध्यात्मिक रूप से मृतक हूँ।
ਮੈ ਅੰਧੁਲੇ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਟੇਕ ਟਿਕੀ ਘਰਿ ਜਾਉ ॥੨॥
मुझ अध्यात्मिक नेत्रहीन (ज्ञानहीन) को उस पारब्रह्म-प्रभु का नाम कदापि विस्मृत न हो। उसकी शरण में रह कर मैं अपने धाम (परलोक) में पहुँच जाऊँगा ॥२॥
ਗੁਰੂ ਜਿਨਾ ਕਾ ਅੰਧੁਲਾ ਚੇਲੇ ਨਾਹੀ ਠਾਉ ॥
जिनका गुरु नेत्रहीन (ज्ञानहीन) है, उन शिष्यों को कहीं भी स्थान नहीं मिलता।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਨਾਉ ਨ ਪਾਈਐ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਕਿਆ ਸੁਆਉ ॥
सतगुरु के बिना परमेश्वर का नाम प्राप्त नहीं होता। नाम के बिना मनुष्य जीवन का क्या मनोरथ है?
ਆਇ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਵਣਾ ਜਿਉ ਸੁੰਞੈ ਘਰਿ ਕਾਉ ॥੩॥
प्रभु नाम के बिना हमारा इस संसार में आवागमन, उजाड़ गृह में चक्कर लगाने वाले कौए की भाँति पश्चाताप करवाता है ॥३॥
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਦੁਖੁ ਦੇਹੁਰੀ ਜਿਉ ਕਲਰ ਕੀ ਭੀਤਿ ॥
नाम के बिना मानव देहि अत्यंत संताप झेलती है और रेत की दीवार की तरह ध्वस्त हो जाती है।
ਤਬ ਲਗੁ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਈਐ ਜਬ ਲਗੁ ਸਾਚੁ ਨ ਚੀਤਿ ॥
जब तक सत्य नाम प्राणी के मन में प्रवेश नहीं करता, तब तक सत्य (प्रभु) की संगति इसे प्राप्त नहीं होती।
ਸਬਦਿ ਰਪੈ ਘਰੁ ਪਾਈਐ ਨਿਰਬਾਣੀ ਪਦੁ ਨੀਤਿ ॥੪॥
नाम के साथ रंग जाने से अपने गृह में ही प्राणी को सदैव स्थिर मोक्ष-पद मिल जाता है ॥४॥
ਹਉ ਗੁਰ ਪੂਛਉ ਆਪਣੇ ਗੁਰ ਪੁਛਿ ਕਾਰ ਕਮਾਉ ॥
ऐसी अवस्था प्राप्त करने के लिए मैं अपने गुरु से जाकर पूछूँगी और उससे पूछकर आचरण करूँगी।
ਸਬਦਿ ਸਲਾਹੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਦੁਖੁ ਜਲਿ ਜਾਉ ॥
मैं गुरु के शब्द के माध्यम से भगवान् की महिमा करूंगी चूंकि जो वह मेरे मन में आकर बस जाए और मेरे अहंकार का दुःख जल जाए।
ਸਹਜੇ ਹੋਇ ਮਿਲਾਵੜਾ ਸਾਚੇ ਸਾਚਿ ਮਿਲਾਉ ॥੫॥
सहज रूप से भगवान् के साथ आनंदमय मिलन हो सकता है, और उनके शाश्वत नाम के माध्यम से मैं शाश्वत भगवान् के साथ एक हो सकती हूँ॥ ५॥
ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਸੇ ਨਿਰਮਲੇ ਤਜਿ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
वही पवित्र पावन हैं जो काम, क्रोध एवं अहंकार को त्याग कर नाम में मग्न रहते हैं।
ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਨਿ ਸਦ ਸਦਾ ਹਰਿ ਰਾਖਹਿ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
वह सदैव ही नाम की महिमा का यशोगान करते हैं और भगवान् की याद को सदा अपने हृदय में धारण करते हैं।
ਸੋ ਕਿਉ ਮਨਹੁ ਵਿਸਾਰੀਐ ਸਭ ਜੀਆ ਕਾ ਆਧਾਰੁ ॥੬॥
अपने चित्त के अंदर हम उसको क्यों भुलाएँ, जो समस्त प्राणियों का आधार है? ॥ ६ ॥
ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਸੋ ਮਰਿ ਰਹੈ ਫਿਰਿ ਮਰੈ ਨ ਦੂਜੀ ਵਾਰ ॥
जो व्यक्ति शब्द द्वारा अपने अहंकार को मार लेता है। वे मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और पुनः दूसरी बार नहीं मरता।
ਸਬਦੈ ਹੀ ਤੇ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਨਾਮੇ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
गुर-उपदेश से ही ईश्वर के नाम हेतु प्रीति उत्पन्न हो जाती है और परमात्मा मिल जाता है।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਜਗੁ ਭੂਲਾ ਫਿਰੈ ਮਰਿ ਜਨਮੈ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥੭॥
ईश्वर के नाम बिना जगत् यथार्थ से अनजान होकर भटकता फिरता और पुनः पुनः आवागमन में पड़ता है।॥७॥
ਸਭ ਸਾਲਾਹੈ ਆਪ ਕਉ ਵਡਹੁ ਵਡੇਰੀ ਹੋਇ ॥
प्रत्येक स्वयं की प्रशंसा करता है और अपने आप को सर्वस्व महान् बताना चाहता है।
ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਆਪੁ ਨ ਚੀਨੀਐ ਕਹੇ ਸੁਣੇ ਕਿਆ ਹੋਇ ॥
गुरु के बिना आत्मज्ञान नहीं हो सकता। केवल कहने-सुनने से क्या हो सकता है?
ਨਾਨਕ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੀਐ ਹਉਮੈ ਕਰੈ ਨ ਕੋਇ ॥੮॥੮॥
हे नानक ! जो मनुष्य प्रभु के सिमरन द्वारा आत्म-स्वरूप की पहचान कर लेता तो वह अपने बड़प्पन की बात नहीं करता भाव अपने आप पर अहंकार नहीं करता ॥ ८ ॥ ८ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਧਨ ਸੀਗਾਰੀਐ ਜੋਬਨੁ ਬਾਦਿ ਖੁਆਰੁ ॥
प्राणपति परमेश्वर के बिना भार्या का हार-श्रृंगार एवं सुन्दर यौवन व्यर्थ एवं विनष्ट है।
ਨਾ ਮਾਣੇ ਸੁਖਿ ਸੇਜੜੀ ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਬਾਦਿ ਸੀਗਾਰੁ ॥
वह अपने प्राणपति की सेज का आनंद नहीं भोगती। पति की अनुपस्थिति पर उसका समस्त हार-श्रृंगार व्यर्थ है।
ਦੂਖੁ ਘਣੋ ਦੋਹਾਗਣੀ ਨਾ ਘਰਿ ਸੇਜ ਭਤਾਰੁ ॥੧॥
भाग्यहीन पत्नी को अत्यंत कष्ट होता है। उसका पति उसके घर(मन) में निवास नहीं करता ॥१॥
ਮਨ ਰੇ ਰਾਮ ਜਪਹੁ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
हे मेरे मन ! राम नाम जप, तभी सुख मिलेगा।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਪ੍ਰੇਮੁ ਨ ਪਾਈਐ ਸਬਦਿ ਮਿਲੈ ਰੰਗੁ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु के बिना भगवान् से प्रेम नहीं होता। यदि नाम धन मिल जाए तभी प्यार का रंग चढ़ता है॥१॥ रहाउ॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਵਰੁ ਸਹਜਿ ਸੀਗਾਰੁ ॥
गुरु की सेवा से बड़ा सुख मिलता है और ज्ञान का हार-श्रृंगार करने से पत्नी ईश्वर को अपने पति के रूप में प्राप्त कर लेती है।
ਸਚਿ ਮਾਣੇ ਪਿਰ ਸੇਜੜੀ ਗੂੜਾ ਹੇਤੁ ਪਿਆਰੁ ॥
प्रभु के प्रगाढ़ प्रेम द्वारा पत्नी निश्चित ही अपने प्रीतम की सेज पर आनंद प्राप्त करती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਣਿ ਸਿਞਾਣੀਐ ਗੁਰਿ ਮੇਲੀ ਗੁਣ ਚਾਰੁ ॥੨॥
गुरु की कृपा से पत्नी की अपने प्राणपति प्रभु से पहचान होती है। गुरु के मिलन से वह सुशील नेक आचरण वाली हो जाती है।॥२॥
ਸਚਿ ਮਿਲਹੁ ਵਰ ਕਾਮਣੀ ਪਿਰਿ ਮੋਹੀ ਰੰਗੁ ਲਾਇ ॥
हे जीव-स्त्री ! सत्य के द्वारा तू अपने पति से मिलन कर। उससे प्रेम करके तुम अपने प्रियतम पर आकर्षित हो जाओगी। हे जीव-स्त्री ! तेरे पति ने तुझे अपने प्रेम पर आकर्षित किया है, इसलिए उसके प्रेम में लीन हो जा।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸਾਚਿ ਵਿਗਸਿਆ ਕੀਮਤਿ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਇ ॥
सत्य परमेश्वर के साथ मिलन से आत्मा और देही दोनों प्रफुल्लित हो जाएँगे और उस जीवन का मोल नहीं पाया जा सकता।
ਹਰਿ ਵਰੁ ਘਰਿ ਸੋਹਾਗਣੀ ਨਿਰਮਲ ਸਾਚੈ ਨਾਇ ॥੩॥
जिस जीव-स्त्री के हृदय में उसका पति-परमेश्वर समाया है, वह उसके सत्य नाम के साथ पवित्र हुई है॥३॥
ਮਨ ਮਹਿ ਮਨੂਆ ਜੇ ਮਰੈ ਤਾ ਪਿਰੁ ਰਾਵੈ ਨਾਰਿ ॥
यदि वह अपने अहंकार को चित्त के भीतर ही कुचल दे तो प्राणपति प्रभु उसे भरपूर सुख सम्मान देता है।
ਇਕਤੁ ਤਾਗੈ ਰਲਿ ਮਿਲੈ ਗਲਿ ਮੋਤੀਅਨ ਕਾ ਹਾਰੁ ॥
धागे पिरोए हुए मोतियों की माला जैसे गले से मिलकर सुन्दर बनावट होती है, वैसे ही पति-पत्नी एक-दूसरे से मिल जाते हैं।
ਸੰਤ ਸਭਾ ਸੁਖੁ ਊਪਜੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮ ਅਧਾਰੁ ॥੪॥
सत्संग के भीतर गुरु द्वारा नाम का आश्रय लेने से शांति प्राप्त होती है। ४॥
ਖਿਨ ਮਹਿ ਉਪਜੈ ਖਿਨਿ ਖਪੈ ਖਿਨੁ ਆਵੈ ਖਿਨੁ ਜਾਇ ॥
क्षण में मन उत्पन्न होता है और एक क्षण में चला जाता है।
ਸਬਦੁ ਪਛਾਣੈ ਰਵਿ ਰਹੈ ਨਾ ਤਿਸੁ ਕਾਲੁ ਸੰਤਾਇ ॥
यदि मनुष्य प्रभु नाम को पहचान ले और नाम-सिमरन में लगा रहे तो फिर उसे मृत्यु का भय संतप्त नहीं करता ।