Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 54

ਗਣਤ ਗਣਾਵਣਿ ਆਈਆ ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਵਿਕਾਰੁ ॥ जो अपने प्राणपति से अनुकंपा करने की जगह उससे हिसाब-किताब का मोल करने आई हैं, उनका दुल्हन-वेष लाल पहरावा भी बेकार है, अर्थात् आडम्बर है l
ਪਾਖੰਡਿ ਪ੍ਰੇਮੁ ਨ ਪਾਈਐ ਖੋਟਾ ਪਾਜੁ ਖੁਆਰੁ ॥੧॥ हे जीवात्मा ! आडम्बर से उसकी प्रीति प्राप्त नहीं होती। खोटा आडम्बर विनाशकारी होता है, इससे प्रभु-पति की प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती॥१॥ भाव प्रभु प्रेम झूठे पाखण्डों से प्राप्त नहीं होता।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਇਉ ਪਿਰੁ ਰਾਵੈ ਨਾਰਿ ॥ हे प्रभु जी ! प्रियवर अपनी स्त्री से ऐसे रमण करता है
ਤੁਧੁ ਭਾਵਨਿ ਸੋਹਾਗਣੀ ਅਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਲੈਹਿ ਸਵਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे ईश्वर ! वही सुहागिन है जो आपको अच्छी लगती है और अपनी दया-दृष्टि से आप उसे संवार लेते हो॥१॥ रहाउ॥
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸੀਗਾਰੀਆ ਤਨੁ ਮਨੁ ਪਿਰ ਕੈ ਪਾਸਿ ॥ गुर-शब्द से वह सुशोभित हुई हैं और उसका तन एवं मन उसके प्रीतम के समक्ष समर्पित है।
ਦੁਇ ਕਰ ਜੋੜਿ ਖੜੀ ਤਕੈ ਸਚੁ ਕਹੈ ਅਰਦਾਸਿ ॥ अपने दोनों हाथ जोड़कर वे प्रभु-परमेश्वर की प्रतीक्षा करती हैं और सच्चे हृदय से उसके समक्ष वंदना करके सत्य प्राप्ति की लालसा बनाए रखती हैं।
ਲਾਲਿ ਰਤੀ ਸਚ ਭੈ ਵਸੀ ਭਾਇ ਰਤੀ ਰੰਗਿ ਰਾਸਿ ॥੨॥ वह अंपने प्रीतम के प्रेम में लिवलीन हो गई हैं और सत्यपुरुष के भय में रहती हैं। उसकी प्रीत में रंग जाने से उसकी सत्य की रंगत में लिवलीन हो जाती हैं।॥२॥
ਪ੍ਰਿਅ ਕੀ ਚੇਰੀ ਕਾਂਢੀਐ ਲਾਲੀ ਮਾਨੈ ਨਾਉ ॥ (दासी) कही जाती है, जो अपने नाम को समर्पण होती है।
ਸਾਚੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਤੁਟਈ ਸਾਚੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਉ ॥ उसका सच्चा प्यार कभी समाप्त नहीं होता क्योंकि उसके सच्चे प्रेम के कारण वह हमेशा अपने शाश्वत जीवनसाथी के साथ जुड़ी रहती है।
ਸਬਦਿ ਰਤੀ ਮਨੁ ਵੇਧਿਆ ਹਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੩॥ गुरुवाणी में रंग जाने से उसका मन बिंध गया है। मैं सदैव उस पर बलिहारी जाता हूँ॥३॥
ਸਾ ਧਨ ਰੰਡ ਨ ਬੈਸਈ ਜੇ ਸਤਿਗੁਰ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥ वह नारी जो अपने सतगुरु के (उपदेशों-शिक्षाओं) भीतर लीन हुई है, वह कदापि विधवा नहीं होती।
ਪਿਰੁ ਰੀਸਾਲੂ ਨਉਤਨੋ ਸਾਚਉ ਮਰੈ ਨ ਜਾਇ ॥ उसका प्रीतम रसों का घर हमेशा नवीन देह वाला एवं सत्यवादी है। वह जीवन-मृत्यु के चक्कर से विमुक्त है।??
ਨਿਤ ਰਵੈ ਸੋਹਾਗਣੀ ਸਾਚੀ ਨਦਰਿ ਰਜਾਇ ॥੪॥ वह हमेशा अपनी पवित्र-पाक नारी को हर्षित करता है और उस पर अपनी सत्य-दृष्टि रखता है, क्योंकि वह उस प्रभु की आज्ञानुसार विचरण करती है॥४॥
ਸਾਚੁ ਧੜੀ ਧਨ ਮਾਡੀਐ ਕਾਪੜੁ ਪ੍ਰੇਮ ਸੀਗਾਰੁ ॥ ऐसी जीवात्माएँ सत्य की माँग संवारती हैं और प्रभु प्रीत को अपनी पोशाक तथा हार-श्रृंगार बनाती हैं।
ਚੰਦਨੁ ਚੀਤਿ ਵਸਾਇਆ ਮੰਦਰੁ ਦਸਵਾ ਦੁਆਰੁ ॥ स्वामी को हृदय में धारण करने का चन्दन लगाती हैं और दसवें द्वार को अपना महल बनाती हैं।
ਦੀਪਕੁ ਸਬਦਿ ਵਿਗਾਸਿਆ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਉਰ ਹਾਰੁ ॥੫॥ वह गुरु-शब्द का दीपक प्रज्वलित करती हैं और राम-नाम ही उनकी माला है॥ ५॥
ਨਾਰੀ ਅੰਦਰਿ ਸੋਹਣੀ ਮਸਤਕਿ ਮਣੀ ਪਿਆਰੁ ॥ नारियों में वह अति रूपवान सुन्दर नारी है और अपने मस्तक पर उसने अपने स्वामी के स्नेह का माणिक्य शोभायमान है।
ਸੋਭਾ ਸੁਰਤਿ ਸੁਹਾਵਣੀ ਸਾਚੈ ਪ੍ਰੇਮਿ ਅਪਾਰ ॥ उसकी महिमा तथा विवेक अति मनोहर है तथा उसकी प्रीति अनंत प्रभु के लिए सच्ची है।
ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਪੁਰਖੁ ਨ ਜਾਣਈ ਸਾਚੇ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥੬॥ वह अपने प्रियतम के अतिरिक्त किसी को भी परम-पुरुष नहीं समझती। केवल सतगुरु हेतु ही वह प्रेम तथा अनुराग रखती है॥ ६ ॥
ਨਿਸਿ ਅੰਧਿਆਰੀ ਸੁਤੀਏ ਕਿਉ ਪਿਰ ਬਿਨੁ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਇ ॥ परन्तु जो अंधेरी निशा में सोई हुई है, वह अपने प्रियतम के अतिरिक्त अपनी रात्रि किस तरह व्यतीत करेगी?"
ਅੰਕੁ ਜਲਉ ਤਨੁ ਜਾਲੀਅਉ ਮਨੁ ਧਨੁ ਜਲਿ ਬਲਿ ਜਾਇ ॥ तेरे अंग जल जाएँगे, तेरी देहि जल जाएगी और तेरा हृदय एवं धन सभी जल जाएँगे।
ਜਾ ਧਨ ਕੰਤਿ ਨ ਰਾਵੀਆ ਤਾ ਬਿਰਥਾ ਜੋਬਨੁ ਜਾਇ || यदि जीव रूपी नारी को प्राणपति सम्मान प्रदान नहीं करता, तब उसका यौवन व्यर्थ जाता है॥ ७ ॥
ਸੇਜੈ ਕੰਤ ਮਹੇਲੜੀ ਸੂਤੀ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥ जीव रूपी स्त्री एवं मालिया प्रभु दोनों का एक ही हृदय रुपी सेज पर निवास है। लेकिन जीव-स्त्री माया के मोह की निद्रा में मग्न है परन्तु सोई हुई पत्नी को उस बारे ज्ञान ही नहीं। भाव संसार के मोह में फंसी उस जीवात्मा को अपने प्रीतम प्रभु का ज्ञान ही नहीं है।
ਹਉ ਸੁਤੀ ਪਿਰੁ ਜਾਗਣਾ ਕਿਸ ਕਉ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ॥ मैं निद्रा-मग्न हूँ, मेरा पति प्रभु जाग रहा है। मैं किसके पास जाकर पूछू?"
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮੇਲੀ ਭੈ ਵਸੀ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰੇਮੁ ਸਖਾਇ ॥੮॥੨॥ हे नानक ! जिस जीव-स्त्री को सतगुरु उसके पति-प्रभु से मिला देते हैं, वह सदैव पति-प्रभु के भय में रहती है। प्रभु का प्रेम उस जीव-स्त्री का साथी बन जाता है।l८ ॥२॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ श्रीरागु महला १ ॥
ਆਪੇ ਗੁਣ ਆਪੇ ਕਥੈ ਆਪੇ ਸੁਣਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥ हे स्वामी ! तू स्वयं ही रत्न में गुण है। तू जौहरी बन कर स्वयं ही रत्न के गुणों को कथन करता है। तुम स्वयं ही ग्राहक बनकर उसके गुणों को सुनते हो एवं विचार करते हो।
ਆਪੇ ਰਤਨੁ ਪਰਖਿ ਤੂੰ ਆਪੇ ਮੋਲੁ ਅਪਾਰੁ ॥ तुम स्वयं ही नाम रूपी रत्न हो तुम स्वयं ही इसकी परख करने वाले हो और तुम अनन्त मूल्यवान हो।
ਸਾਚਉ ਮਾਨੁ ਮਹਤੁ ਤੂੰ ਆਪੇ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥੧॥ हे ईश्वर ! तुम ही मान-प्रतिष्ठा और महत्ता हो और स्वयं ही दानशील प्रभु उनको मान-सम्मान देने वाले हो॥१॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਤੂੰ ਕਰਤਾ ਕਰਤਾਰੁ ॥ हे हरि ! तुम ही जगत् के रचयिता एवं सृजनहार हो।
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਾਖੁ ਤੂੰ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਆਚਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जिस तरह तुझे अच्छा लगता है, मेरी रक्षा करो। हे परमात्मा ! मुझे अपना नाम-सिमरन एवं जीवन आचरण प्रदान करो॥१॥ रहाउ ॥
ਆਪੇ ਹੀਰਾ ਨਿਰਮਲਾ ਆਪੇ ਰੰਗੁ ਮਜੀਠ ॥ तुम स्वयं ही शुद्ध-निर्मल रत्न हो और स्वयं ही भक्ति का मजीठ रंग भी हो।
ਆਪੇ ਮੋਤੀ ਊਜਲੋ ਆਪੇ ਭਗਤ ਬਸੀਠੁ ॥ तुम ही निर्मल मोती हो और स्वयं ही भक्तों में मध्यस्थ भी हो।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਲਾਹਣਾ ਘਟਿ ਘਟਿ ਡੀਠੁ ਅਡੀਠੁ ॥੨॥ गुरु के शब्द द्वारा अदृश्य प्रभु को प्रशंसित किया जाता है और प्रत्येक हृदय में उसके दर्शन किए जाते हैं।॥ २॥
ਆਪੇ ਸਾਗਰੁ ਬੋਹਿਥਾ ਆਪੇ ਪਾਰੁ ਅਪਾਰੁ ॥ हे प्रभु! तुम स्वयं ही सागर तथा इस सागर से पार होने का जहाज हो। तथा स्वयं ही इस पार का किनारा और उस पार का किनारा हो। भाव आपका नाम रूपी जहाज ही दोनों लोकों से पार करने वाला है ।
ਸਾਚੀ ਵਾਟ ਸੁਜਾਣੁ ਤੂੰ ਸਬਦਿ ਲਘਾਵਣਹਾਰੁ ॥ हे सर्वज्ञ स्वामी ! तू ही सत्य मार्ग है। और तेरा नाम पार करने के लिए मल्लाह है।
ਨਿਡਰਿਆ ਡਰੁ ਜਾਣੀਐ ਬਾਝੁ ਗੁਰੂ ਗੁਬਾਰੁ ॥੩॥ जो प्रभु के नाम से भय नहीं रखते, वही भवसागर में भयभीत होते हैं। गुरदेव के अतिरिक्त घनघोर अंधकार है॥३॥ भाव गुरु कृपा के बिना सारा संसार अंधकारमय है।
ਅਸਥਿਰੁ ਕਰਤਾ ਦੇਖੀਐ ਹੋਰੁ ਕੇਤੀ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ केवल सृष्टि का कर्ता ही सदैव स्थिर देखा जाता है। अन्य सभी आवागमन के चक्कर में रहते हैं।
ਆਪੇ ਨਿਰਮਲੁ ਏਕੁ ਤੂੰ ਹੋਰ ਬੰਧੀ ਧੰਧੈ ਪਾਇ ॥ हे पारब्रह्म ! केवल एक तू ही अपने आप शुद्ध है। शेष सांसारिक कर्मों के भीतर अपने-अपने धंधों में बंधे हुए हैं।
ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਸਾਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੪॥ जिन प्राणियों की गुरु जी रक्षा करते हैं, वे प्रभु की भक्ति में लिवलीन सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त करते हैं।॥ ४॥
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