Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 491

Page 491

ਇਹੁ ਕਾਰਣੁ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਸਮਾਇ ॥੪॥੩॥੫॥ वही सृष्टिकर्ता सब कुछ घटित करता है, और अंततः मानव आत्मा उसके शाश्वत दिव्य प्रकाश में विलीन हो जाती है। ॥ ४॥ ३ ॥ ५ ॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गूजरी, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਰਾਮ ਰਾਮ ਸਭੁ ਕੋ ਕਹੈ ਕਹਿਐ ਰਾਮੁ ਨ ਹੋਇ ॥ जिह्वा से ‘राम-राम' तो सभी लोग कहते हैं लेकिन इस तरह कहने से राम प्राप्त नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਰਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਾ ਫਲੁ ਪਾਵੈ ਕੋਇ ॥੧॥ यदि गुरु की कृपा से किसी के मन में राम बस जाए तो तभी कोई राम-नाम जपने का फल प्राप्त करता है॥ १॥
ਅੰਤਰਿ ਗੋਵਿੰਦ ਜਿਸੁ ਲਾਗੈ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥ जिस मनुष्य के हृदय में गोविंद से प्रीति लग गई है,
ਹਰਿ ਤਿਸੁ ਕਦੇ ਨ ਵੀਸਰੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਰਹਿ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚੀਤਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ वह प्रभु को कदाचित् विस्मृत नहीं करता और सदैव ही मन एवं चित्त से हरि-हरि करता रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਹਿਰਦੈ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕੈ ਕਪਟੁ ਵਸੈ ਬਾਹਰਹੁ ਸੰਤ ਕਹਾਹਿ ॥ जिनके हृदय में कपट निवास करता है परन्तु बाहर से संत कहलवाते हैं,
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮੂਲਿ ਨ ਚੁਕਈ ਅੰਤਿ ਗਏ ਪਛੁਤਾਹਿ ॥੨॥ उनकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती और अंतः वह पछताते हुए संसार से चले जाते हैं।॥ २॥
ਅਨੇਕ ਤੀਰਥ ਜੇ ਜਤਨ ਕਰੈ ਤਾ ਅੰਤਰ ਕੀ ਹਉਮੈ ਕਦੇ ਨ ਜਾਇ ॥ चाहे मनुष्य अनेक तीर्थ स्थलों पर स्नान का यत्न करता रहे परन्तु उसके मन का अहंकार कभी दूर नहीं होता।
ਜਿਸੁ ਨਰ ਕੀ ਦੁਬਿਧਾ ਨ ਜਾਇ ਧਰਮ ਰਾਇ ਤਿਸੁ ਦੇਇ ਸਜਾਇ ॥੩॥ जिस मनुष्य की दुविधा दूर नहीं होती, धर्मराज उसे दण्डित करते हैं॥ ३॥
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਕੋਈ ॥ जिस व्यक्ति पर प्रभु की अनुकंपा हो जाती है, वही उसे प्राप्त करता है। कोई गुरुमुख बनकर ही सत्य को समझता है।
ਨਾਨਕ ਵਿਚਹੁ ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਤਾਂ ਹਰਿ ਭੇਟੈ ਸੋਈ ॥੪॥੪॥੬॥ हे नानक ! यदि मनुष्य अपने भीतर से अपना अहंकार नष्ट कर दे तो वह प्रभु से मिल जाता है॥ ४॥ ४॥ ६॥जीव
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गूजरी, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਸਾਂਤਿ ਸਦਾ ਮਤਿ ਨਿਹਚਲ ਜਿਸ ਕਾ ਅਭਿਮਾਨੁ ਗਵਾਏ ॥ ईश्वर जिस जीव का अभिमान दूर कर देते हैं, उसे शांति प्राप्त हो जाती है तथा उसकी बुद्धि सदैव निश्चल रहती है।
ਸੋ ਜਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥੧॥ वह मनुष्य निर्मल है जो गुरु के उपदेश द्वारा सत्य को समझता है तथा अपने चित्त को हरि-चरणों से लगाता है॥ १॥
ਹਰਿ ਚੇਤਿ ਅਚੇਤ ਮਨਾ ਜੋ ਇਛਹਿ ਸੋ ਫਲੁ ਹੋਈ ॥ हे मेरे अचेत मन ! भगवान् को याद कर, तुझे मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵਹਿ ਪੀਵਤ ਰਹਹਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु की कृपा से तुझे हरि-रस प्राप्त होगा, जिसे पान करने से सदैव सुख की उपलब्धि होगी॥ १॥ रहाउ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੇ ਤਾ ਪਾਰਸੁ ਹੋਵੈ ਪਾਰਸੁ ਹੋਇ ਤ ਪੂਜ ਕਰਾਏ ॥ जब मनुष्य की सतगुरु से भेंट होती है तो वह पारस बन जाता है। जय वह पारस (महान्) बन जाता है तो प्रभु जीवों से उसकी पूजा करवाते हैं,
ਜੋ ਉਸੁ ਪੂਜੇ ਸੋ ਫਲੁ ਪਾਏ ਦੀਖਿਆ ਦੇਵੈ ਸਾਚੁ ਬੁਝਾਏ ॥੨॥ जो कोई उसकी पूजा करता है, वह फल प्राप्त कर लेता है। दूसरों को दीक्षा देकर वह उनको सत्य-मार्ग पर प्रेरित करता है॥ २॥
ਵਿਣੁ ਪਾਰਸੈ ਪੂਜ ਨ ਹੋਵਈ ਵਿਣੁ ਮਨ ਪਰਚੇ ਅਵਰਾ ਸਮਝਾਏ ॥ पारस (महान्) बने बिना मनुष्य पूजा के योग्य नहीं होता। अपने मन को समझाने के बिना वह दूसरों को समझाता है।
ਗੁਰੂ ਸਦਾਏ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧਾ ਕਿਸੁ ਓਹੁ ਮਾਰਗਿ ਪਾਏ ॥੩॥ अज्ञानी अंधा मनुष्य अपने आपको गुरु कहलाता है लेकिन क्या वह किसी को मार्गदर्शन कर सकता है ?॥३॥
ਨਾਨਕ ਵਿਣੁ ਨਦਰੀ ਕਿਛੂ ਨ ਪਾਈਐ ਜਿਸੁ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਪਾਏ ॥ हे नानक ! प्रभु की दया के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जिस मनुष्य पर भगवान् दया-दृष्टि करते हैं, वह उसे प्राप्त कर लेता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ਅਪਣਾ ਸਬਦੁ ਵਰਤਾਏ ॥੪॥੫॥੭॥ भगवान् अपनी स्तुति के दिव्य शब्द उसी के हृदय में स्थापित करते हैं, जिसे वे गुरु की कृपा से अपनी महिमा के योग्य बनाते हैं। ॥ ४॥ ५॥ ७ ॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ਪੰਚਪਦੇ ॥ राग गूजरी, तीसरे गुरु, पंच-पद: ॥
ਨਾ ਕਾਸੀ ਮਤਿ ਊਪਜੈ ਨਾ ਕਾਸੀ ਮਤਿ ਜਾਇ ॥ काशी जैसे पवित्र स्थानों पर जाने से न तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है और न ही काशी न जाने से ज्ञान प्राप्त होता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਮਤਿ ਊਪਜੈ ਤਾ ਇਹ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥੧॥ सतगुरु से मिलकर और उनकी शिक्षा को अपनाकर ही दिव्य ज्ञान प्रकट होता है, जिससे आत्मा सत्य को समझने लगती है।॥ १॥
ਹਰਿ ਕਥਾ ਤੂੰ ਸੁਣਿ ਰੇ ਮਨ ਸਬਦੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇ ॥ हे मन ! तू श्रद्धा से हरि कथा सुन तथा उनके नाम को अपने हृदय में बसा।
ਇਹ ਮਤਿ ਤੇਰੀ ਥਿਰੁ ਰਹੈ ਤਾਂ ਭਰਮੁ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ यदि तेरी यह बुद्धि स्थिर रहे तो भीतर से सारा भ्रम निवृत्त हो जाएगा ॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਚਰਣ ਰਿਦੈ ਵਸਾਇ ਤੂ ਕਿਲਵਿਖ ਹੋਵਹਿ ਨਾਸੁ ॥ हे मन ! हरि के सुन्दर चरण अपने हृदय में बसा, तेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे।
ਪੰਚ ਭੂ ਆਤਮਾ ਵਸਿ ਕਰਹਿ ਤਾ ਤੀਰਥ ਕਰਹਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥੨॥ यदि तुम अपने पाँच सूक्ष्म तत्वों से बनी आत्मा को वश में कर लो तो तुम्हारा निवास सत्य के तीर्थ में हो जाएगा।॥ २॥
ਮਨਮੁਖਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੁਗਧੁ ਹੈ ਸੋਝੀ ਕਿਛੂ ਨ ਪਾਇ ॥ मनमुख व्यक्ति का यह मन मूर्ख है और इसे कुछ सूझ प्राप्त नहीं होती।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਨ ਬੁਝਈ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਇ ॥੩॥ मूर्ख मन हरि के नाम को नहीं जानता और अंततः पछताता हुआ दुनिया से चला जाता है॥ ३॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਕਾਸੀ ਸਭਿ ਤੀਰਥ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਤਿਗੁਰ ਦੀਆ ਬੁਝਾਇ ॥ सच्चे गुरु ने मुझे यह समझा दिया है कि यह मन ही काशी, सभी तीर्थ-स्नान एवं स्मृतियाँ हैं।
ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਤਿਸੁ ਸੰਗਿ ਰਹਹਿ ਜਿਨ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੪॥ जिनके हृदय में हरि समाए रहते हैं, उनके साथ अड़सठ तीर्थ सदा रहते हैं।॥ ४॥
ਨਾਨਕ ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਹੁਕਮੁ ਬੁਝਿਆ ਏਕੁ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥ हे नानक ! सतगुरु को मिलने से प्रभु का आदेश जान लिया जाता है और एक ईश्वर आकर मनुष्य के हृदय में बसेरा कर लेता है।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਭੁ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੫॥੬॥੮॥ हे सच्चे प्रभु ! जो तुझे अच्छे लगते हैं, वे सभी सत्य हैं और वे सत्य में ही समाए रहते हैं।॥ ५॥ ६॥ ८॥


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