Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 432

Page 432

ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਭਲਾ ਪਿਆਰੇ ਤੇਰੀ ਅਮਰੁ ਰਜਾਇ ॥੭॥ हे प्रिय भगवान! जो कुछ भी आपकी इच्छा है, वही सबके लिए कल्याणकारी है। आपकी इच्छा शाश्वत और अटल है। ७
ਨਾਨਕ ਰੰਗਿ ਰਤੇ ਨਾਰਾਇਣੈ ਪਿਆਰੇ ਮਾਤੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥੮॥੨॥੪॥ हे नानक ! जो व्यक्ति नारायण के प्रेम रंग में अनुरक्त रहते हैं, वे सहज ही उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। ८ ॥ २ ॥ ४॥
ਸਭ ਬਿਧਿ ਤੁਮ ਹੀ ਜਾਨਤੇ ਪਿਆਰੇ ਕਿਸੁ ਪਹਿ ਕਹਉ ਸੁਨਾਇ ॥੧॥ हे प्रिय भगवान, तू तो मेरे मन की हर बात जानता है; फिर मैं किससे जाकर अपने दुख-दर्द कहूं?॥ १॥
ਤੂੰ ਦਾਤਾ ਜੀਆ ਸਭਨਾ ਕਾ ਤੇਰਾ ਦਿਤਾ ਪਹਿਰਹਿ ਖਾਇ ॥੨॥ हे प्रभु! आप सब जीवों के दाता है, जो कुछ आप देते हैंं, उसे ही वे खाते और पहनते हैं। २॥
ਸੁਖੁ ਦੁਖੁ ਤੇਰੀ ਆਗਿਆ ਪਿਆਰੇ ਦੂਜੀ ਨਾਹੀ ਜਾਇ ॥੩॥ हे प्यारे ! सुख-दुःख आपके आज्ञाकारी हैं। आपके अतिरिक्त दूसरा कोई ठिकाना नहीं। ३॥
ਜੋ ਤੂੰ ਕਰਾਵਹਿ ਸੋ ਕਰੀ ਪਿਆਰੇ ਅਵਰੁ ਕਿਛੁ ਕਰਣੁ ਨ ਜਾਇ ॥੪॥ जो कुछ आप करवाते हो, मैं वही करता हूँ। अन्य कुछ भी मैं कर नहीं सकता। ४ ।
ਦਿਨੁ ਰੈਣਿ ਸਭ ਸੁਹਾਵਣੇ ਪਿਆਰੇ ਜਿਤੁ ਜਪੀਐ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥੫॥ सभी दिन-रात सुहावने हैं जब हरि का नाम सिमरन किया जाता है। ५ ।
ਸਾਈ ਕਾਰ ਕਮਾਵਣੀ ਪਿਆਰੇ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਾਇ ॥੬॥ जीव वही कर्म करता है, जो धुर से उसके भाग्य का लेख उसके मस्तक पर लिखा हुआ है। ६॥
ਏਕੋ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਪਿਆਰੇ ਘਟਿ ਘਟਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੭॥ एक ईश्वर स्वयं ही सर्वव्यापक हैं और वह घट-घट में समाए हुए हैं। ७ ।
ਸੰਸਾਰ ਕੂਪ ਤੇ ਉਧਰਿ ਲੈ ਪਿਆਰੇ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਸਰਣਾਇ ॥੮॥੩॥੨੨॥੧੫॥੨॥੪੨॥ हे हरि प्रभु! नानक ने आपकी शरण ली है, इसलिए मुझे संसार के माया रूपी कूप में से बाहर निकाल कर उद्धार कर दीजिए ॥ ८ ॥३॥ २२॥ १५॥ २॥ ४२ ॥
ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ਪਟੀ ਲਿਖੀ राग आसा, प्रथम गुरु, पाती लिखी, वर्णमाला का भजन:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਸਸੈ ਸੋਇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਜਿਨਿ ਸਾਜੀ ਸਭਨਾ ਸਾਹਿਬੁ ਏਕੁ ਭਇਆ ॥ स-जिसने यह सृष्टि-रचना की है, वही एक परम स्वामी-ईश्वर है।
ਸੇਵਤ ਰਹੇ ਚਿਤੁ ਜਿਨ੍ਹ੍ ਕਾ ਲਾਗਾ ਆਇਆ ਤਿਨ੍ਹ੍ ਕਾ ਸਫਲੁ ਭਇਆ ॥੧॥ जिनका चित प्रभु की सेवा-भक्ति में लीन रहता है, उनका इस दुनिया में जन्म लेकर आना सफल हो गया है। १॥
ਮਨ ਕਾਹੇ ਭੂਲੇ ਮੂੜ ਮਨਾ ॥ हे मेरे मूर्ख मन ! तू परमात्मा को क्यों भुला रहा है ?
ਜਬ ਲੇਖਾ ਦੇਵਹਿ ਬੀਰਾ ਤਉ ਪੜਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे भाई! जब तुम्हारा सारा हिसाब ईश्वर की उपस्थिति में पूरा होगा, तो तभी तुम विद्वान समझे जाओगे। १॥ रहाउ
ਈਵੜੀ ਆਦਿ ਪੁਰਖੁ ਹੈ ਦਾਤਾ ਆਪੇ ਸਚਾ ਸੋਈ ॥ इ-आदिपुरुष ही समस्त जीवों का दाता है और वही सत्य है।
ਏਨਾ ਅਖਰਾ ਮਹਿ ਜੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਤਿਸੁ ਸਿਰਿ ਲੇਖੁ ਨ ਹੋਈ ॥੨॥ इन अक्षरों के माध्यम से जो गुरुमुख बनकर भगवान् को समझता है, उसके सिर पर कोई भी कर्मों का लेखा नहीं रहता। २॥
ਊੜੈ ਉਪਮਾ ਤਾ ਕੀ ਕੀਜੈ ਜਾ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥ उ-उपमा उस परमात्मा की करनी चाहिए, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता।
ਸੇਵਾ ਕਰਹਿ ਸੇਈ ਫਲੁ ਪਾਵਹਿ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸਚੁ ਕਮਾਇਆ ॥੩॥ जो मनुष्य सेवा करते हैं और सत्य की साधना करते हैं उन्हें जीवन का फल मिल जाता है॥३॥
ਙੰਙੈ ਙਿਆਨੁ ਬੂਝੈ ਜੇ ਕੋਈ ਪੜਿਆ ਪੰਡਿਤੁ ਸੋਈ ॥ ड-यदि कोई व्यक्ति वास्तव में ज्ञान को जान लेता है तो वह पढ़ा लिखा विद्वान पण्डित बन जाता है।
ਸਰਬ ਜੀਆ ਮਹਿ ਏਕੋ ਜਾਣੈ ਤਾ ਹਉਮੈ ਕਹੈ ਨ ਕੋਈ ॥੪॥ यदि कोई व्यक्ति समस्त जीवों में एक ईश्वर को बसा हुआ समझे तो वह अहम् की बात नहीं करता ॥ ४॥
ਕਕੈ ਕੇਸ ਪੁੰਡਰ ਜਬ ਹੂਏ ਵਿਣੁ ਸਾਬੂਣੈ ਉਜਲਿਆ ॥ क-जब आदमी के सिर के बाल सफेद हो जाते हैं तो वे साबुन के बिना ही चमकते रहते हैं।
ਜਮ ਰਾਜੇ ਕੇ ਹੇਰੂ ਆਏ ਮਾਇਆ ਕੈ ਸੰਗਲਿ ਬੰਧਿ ਲਇਆ ॥੫॥ यमराज के भेजे हुए दूत जब आ जाते हैं तो वे उसे माया की जंजीर से बांधकर जकड़ लेते ॥ ५ ॥
ਖਖੈ ਖੁੰਦਕਾਰੁ ਸਾਹ ਆਲਮੁ ਕਰਿ ਖਰੀਦਿ ਜਿਨਿ ਖਰਚੁ ਦੀਆ ॥ ख-उस ईश्वर की स्तुति में लगो, जो संपूर्ण ब्रह्मांड का अधिपति है और सबको आजीविका देने वाले हैं।
ਬੰਧਨਿ ਜਾ ਕੈ ਸਭੁ ਜਗੁ ਬਾਧਿਆ ਅਵਰੀ ਕਾ ਨਹੀ ਹੁਕਮੁ ਪਇਆ ॥੬॥ प्रभु ने समूचे जगत् को बन्धनों में जकड़ा हुआ है। उस प्रभु के अतिरिक्त किसी दूसरे का आदेश जीवों पर नहीं चलता। ६॥
ਗਗੈ ਗੋਇ ਗਾਇ ਜਿਨਿ ਛੋਡੀ ਗਲੀ ਗੋਬਿਦੁ ਗਰਬਿ ਭਇਆ ॥ ग-जो मनुष्य गोविन्द का गुणानुवाद करना छोड़ देता है, वह गोविन्द की बातें करके ही घमण्डी हो जाता है। ॥
ਘੜਿ ਭਾਂਡੇ ਜਿਨਿ ਆਵੀ ਸਾਜੀ ਚਾੜਣ ਵਾਹੈ ਤਈ ਕੀਆ ॥੭॥ गोविन्द ने जीव रूपी बर्तन बनाए हैं और सृष्टि रूपी भट्टी की रचना की है, उनको उसमें डालने हेतु समय नियत किया हुआ है। ७ ॥
ਘਘੈ ਘਾਲ ਸੇਵਕੁ ਜੇ ਘਾਲੈ ਸਬਦਿ ਗੁਰੂ ਕੈ ਲਾਗਿ ਰਹੈ ॥ घ-यदि मनुष्य सेवक बनकर गुरु की अथक साधना करता रहे और गुरु के शब्द से जुड़ा रहे अर्थात् पूर्ण आस्था रखे,
ਬੁਰਾ ਭਲਾ ਜੇ ਸਮ ਕਰਿ ਜਾਣੈ ਇਨ ਬਿਧਿ ਸਾਹਿਬੁ ਰਮਤੁ ਰਹੈ ॥੮॥ यदि वह दु:ख-सुख को एक समान समझता रहे तो वह इस विधि से प्रभु में लीन हो जाता है। ८ ॥
ਚਚੈ ਚਾਰਿ ਵੇਦ ਜਿਨਿ ਸਾਜੇ ਚਾਰੇ ਖਾਣੀ ਚਾਰਿ ਜੁਗਾ ॥ च-जिस प्रभु ने चारों वेद रचे हैं, जिसने चारों स्रोत (अंडज, जेरज, स्वदेज एवं उद्भज) एवं चारों युगों-सतयुग, त्रैता, द्वापर एवं कलियुग की रचना की है,
ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਜੋਗੀ ਖਾਣੀ ਭੋਗੀ ਪੜਿਆ ਪੰਡਿਤੁ ਆਪਿ ਥੀਆ ॥੯॥ सभी युगों में वह स्वयं ही व्यापक होकर योगी, जीवन के स्रोतों का आनंद प्राप्त करने वाला भोगी एवं विद्वान और पण्डित बना हुआ है ll ६ ॥


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