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ਸਾਜਨ ਸੰਤ ਹਮਾਰੇ ਮੀਤਾ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਆਨੀਤਾ ਰੇ ॥
साजन संत हमारे मीता बिनु हरि हरि आनीता रे ॥
हे मेरे मित्रो एवं संतजनो ! हरि-परमेश्वर के नाम के बिना सब कुछ नश्वर है।
ਸਾਧਸੰਗਿ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਏ ਇਹੁ ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਜੀਤਾ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साधसंगि मिलि हरि गुण गाए इहु जनमु पदारथु जीता रे ॥१॥ रहाउ ॥
जिस व्यक्ति ने भी साधु की संगति में मिलकर भगवान का गुणगान किया है उसने यह अमूल्य मानव जन्म जीत लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਮਾਇਆ ਬ੍ਰਹਮ ਕੀ ਕੀਨ੍ਹ੍ਹੀ ਕਹਹੁ ਕਵਨ ਬਿਧਿ ਤਰੀਐ ਰੇ ॥
त्रै गुण माइआ ब्रहम की कीन्ही कहहु कवन बिधि तरीऐ रे ॥
हे भाई ! त्रिगुणात्मक माया ब्रह्म ने उत्पादित की है, बताओ, किस युक्ति से इससे पार हुआ जा सकता है ?
ਘੂਮਨ ਘੇਰ ਅਗਾਹ ਗਾਖਰੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਪਾਰਿ ਉਤਰੀਐ ਰੇ ॥੨॥
घूमन घेर अगाह गाखरी गुर सबदी पारि उतरीऐ रे ॥२॥
हे भाई! यदि हम गुरु की शिक्षा का पालन करें, तो इस विकारों से भरे, भयानक और अथाह संसार-सागर को पार करना संभव है। ॥ २॥
ਖੋਜਤ ਖੋਜਤ ਖੋਜਿ ਬੀਚਾਰਿਓ ਤਤੁ ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਜਾਨਾ ਰੇ ॥
खोजत खोजत खोजि बीचारिओ ततु नानक इहु जाना रे ॥
हे नानक ! जिसने निरन्तर खोज एवं चिन्तन से यह यथार्थ जान लिया है
ਸਿਮਰਤ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਨਿਰਮੋਲਕੁ ਮਨੁ ਮਾਣਕੁ ਪਤੀਆਨਾ ਰੇ ॥੩॥੧॥੧੩੦॥
सिमरत नामु निधानु निरमोलकु मनु माणकु पतीआना रे ॥३॥१॥१३०॥
कि प्रभु का नाम समस्त गुणों का भण्डार है, जिसके तुल्य मोल का कोई पदार्थ नहीं, उसे सिमरन करने से मन मोती जैसा हो जाता है और नाम-स्मरण में लीन हो जाता है। ३॥ १॥ १३० ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ਦੁਪਦੇ ॥
आसा महला ५ दुपदे ॥
राग आसा, दुपद (दो छंद), पाँचवें गुरु: ॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਜੋ ਮਾਗਉ ਸੋ ਪਾਵਉ ਰੇ ॥
गुर परसादि मेरै मनि वसिआ जो मागउ सो पावउ रे ॥
गुरु की कृपा से प्रभु मेरे मन में बस गए हैं और जो कुछ मैं माँगता हूँ वही मुझे मिल जाता है।
ਨਾਮ ਰੰਗਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਾਨਾ ਬਹੁਰਿ ਨ ਕਤਹੂੰ ਧਾਵਉ ਰੇ ॥੧॥
नाम रंगि इहु मनु त्रिपताना बहुरि न कतहूं धावउ रे ॥१॥
नाम के रंग से यह मन तृप्त हो गया है और दोबारा कहीं ओर नहीं जाता॥ १॥
ਹਮਰਾ ਠਾਕੁਰੁ ਸਭ ਤੇ ਊਚਾ ਰੈਣਿ ਦਿਨਸੁ ਤਿਸੁ ਗਾਵਉ ਰੇ ॥
हमरा ठाकुरु सभ ते ऊचा रैणि दिनसु तिसु गावउ रे ॥
हे भाई! मेरे ईश्वर सर्वोच्च है, इसलिए मैं रात-दिन उसका ही गुणगान करता रहता हूँ।
ਖਿਨ ਮਹਿ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪਨਹਾਰਾ ਤਿਸ ਤੇ ਤੁਝਹਿ ਡਰਾਵਉ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
खिन महि थापि उथापनहारा तिस ते तुझहि डरावउ रे ॥१॥ रहाउ ॥
मेरा प्रभु क्षण भर में उत्पन्न करके नाश करने की शक्ति रखने वाला है। मैं तुझे उसके भय में रखना चाहता हूँ॥ १॥ रहाउ॥
ਜਬ ਦੇਖਉ ਪ੍ਰਭੁ ਅਪੁਨਾ ਸੁਆਮੀ ਤਉ ਅਵਰਹਿ ਚੀਤਿ ਨ ਪਾਵਉ ਰੇ ॥
जब देखउ प्रभु अपुना सुआमी तउ अवरहि चीति न पावउ रे ॥
जब मैं अपने प्रभु स्वामी को देख लेता हूँ तो किसी दूसरे को अपने हृदय में नहीं बसाता।
ਨਾਨਕੁ ਦਾਸੁ ਪ੍ਰਭਿ ਆਪਿ ਪਹਿਰਾਇਆ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਮੇਟਿ ਲਿਖਾਵਉ ਰੇ ॥੨॥੨॥੧੩੧॥
नानकु दासु प्रभि आपि पहिराइआ भ्रमु भउ मेटि लिखावउ रे ॥२॥२॥१३१॥
दास नानक को प्रभु ने स्वयं ही प्रतिष्ठा की पोशाक पहनाई है। मैं अपना भ्रम एवं भय को मिटा कर प्रभु की महिमा लिख रहा हूँ॥ २॥ २॥ १३१॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਚਾਰਿ ਬਰਨ ਚਉਹਾ ਕੇ ਮਰਦਨ ਖਟੁ ਦਰਸਨ ਕਰ ਤਲੀ ਰੇ ॥
चारि बरन चउहा के मरदन खटु दरसन कर तली रे ॥
हे बन्धु ! चारों सम्प्रदायों के महानतम शूरवीर, और वे विद्वान जिनकी हथेलियों पर षड्दर्शन (छः शास्त्रों) का ज्ञान सजीव है।
ਸੁੰਦਰ ਸੁਘਰ ਸਰੂਪ ਸਿਆਨੇ ਪੰਚਹੁ ਹੀ ਮੋਹਿ ਛਲੀ ਰੇ ॥੧॥
सुंदर सुघर सरूप सिआने पंचहु ही मोहि छली रे ॥१॥
सुंदर रूप, सुडौल शरीर और प्रखर बुद्धि से युक्त व्यक्ति भी काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार—इन पाँच विकारों के आकर्षण में पड़कर भ्रमित और पतित हो जाते हैं।॥ १ ॥
ਜਿਨਿ ਮਿਲਿ ਮਾਰੇ ਪੰਚ ਸੂਰਬੀਰ ਐਸੋ ਕਉਨੁ ਬਲੀ ਰੇ ॥
जिनि मिलि मारे पंच सूरबीर ऐसो कउनु बली रे ॥
ऐसा महाबली कौन है ? जिसने पाँचों कामादिक शूरवीरों को मार लिया है।
ਜਿਨਿ ਪੰਚ ਮਾਰਿ ਬਿਦਾਰਿ ਗੁਦਾਰੇ ਸੋ ਪੂਰਾ ਇਹ ਕਲੀ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिनि पंच मारि बिदारि गुदारे सो पूरा इह कली रे ॥१॥ रहाउ ॥
वही मनुष्य इस कलियुग में पूर्ण है, जिसने पाँचों विकारों को मारकर टुकड़े-टुकड़े करके अपना जीवन बिताया है॥ १॥ रहाउ ॥
ਵਡੀ ਕੋਮ ਵਸਿ ਭਾਗਹਿ ਨਾਹੀ ਮੁਹਕਮ ਫਉਜ ਹਠਲੀ ਰੇ ॥
वडी कोम वसि भागहि नाही मुहकम फउज हठली रे ॥
कामादिक पाँचों विकारों का बड़ा शक्तिमान वंश है, ये न किसी के वश में आते हैं और न किसी से भयभीत होकर भागते हैं। इनकी सेना बड़ी सशक्त एवं दृढ़ इरादे वाली हठी है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਤਿਨਿ ਜਨਿ ਨਿਰਦਲਿਆ ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਕੈ ਝਲੀ ਰੇ ॥੨॥੩॥੧੩੨॥
कहु नानक तिनि जनि निरदलिआ साधसंगति कै झली रे ॥२॥३॥१३२॥
हे नानक ! उस मनुष्य ने ही इन्हें प्रताड़ित करके कुचल दिया है, जिसने साधु की संगति में शरण ली है।॥ २॥ ३॥ १३२॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਨੀਕੀ ਜੀਅ ਕੀ ਹਰਿ ਕਥਾ ਊਤਮ ਆਨ ਸਗਲ ਰਸ ਫੀਕੀ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
नीकी जीअ की हरि कथा ऊतम आन सगल रस फीकी रे ॥१॥ रहाउ ॥
हरि की उत्तम कथा ही जीव के लिए सर्वोत्तम है, दूसरे समस्त स्वाद नीरस हैं ॥ १ ॥ रहाउ॥
ਬਹੁ ਗੁਨਿ ਧੁਨਿ ਮੁਨਿ ਜਨ ਖਟੁ ਬੇਤੇ ਅਵਰੁ ਨ ਕਿਛੁ ਲਾਈਕੀ ਰੇ ॥੧॥
बहु गुनि धुनि मुनि जन खटु बेते अवरु न किछु लाईकी रे ॥१॥
अनेक गुणी, ज्ञानी, राग विद्या वाले लोग मुनिजन एवं षट्दर्शन के ज्ञाता हरि कथा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों को जीव के लिए लाभदायक नहीं समझते ॥ १॥
ਬਿਖਾਰੀ ਨਿਰਾਰੀ ਅਪਾਰੀ ਸਹਜਾਰੀ ਸਾਧਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਪੀਕੀ ਰੇ ॥੨॥੪॥੧੩੩॥
बिखारी निरारी अपारी सहजारी साधसंगि नानक पीकी रे ॥२॥४॥१३३॥
हे नानक ! हरि की यह कथा विषय-विकारों का नाश करने वाली, निराली, अनूप एवं सुखदायक है। हरि कथा रूपी अमृत-धारा सत्संगति में ही पान की जा सकती है॥ २॥ ४॥ १३३॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਹਮਾਰੀ ਪਿਆਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਧਾਰੀ ਗੁਰਿ ਨਿਮਖ ਨ ਮਨ ਤੇ ਟਾਰੀ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हमारी पिआरी अम्रित धारी गुरि निमख न मन ते टारी रे ॥१॥ रहाउ ॥
गुरुवाणी मुझे बहुत मीठी लगती है। यह अमृत की धारा है। गुरु ने एक निमिष मात्र भी अमृत-धारा का बहना मेरे मन से दूर नहीं किया ॥ १॥ रहाउ॥
ਦਰਸਨ ਪਰਸਨ ਸਰਸਨ ਹਰਸਨ ਰੰਗਿ ਰੰਗੀ ਕਰਤਾਰੀ ਰੇ ॥੧॥
दरसन परसन सरसन हरसन रंगि रंगी करतारी रे ॥१॥
इन दिव्य वचनों के माध्यम से मनुष्य सृष्टिकर्ता के प्रेम में लीन हो जाता है और उसकी करुणामयी दृष्टि तथा कोमल स्पर्श के सुख और आनंद का अनुभव करता है।॥ १॥
ਖਿਨੁ ਰਮ ਗੁਰ ਗਮ ਹਰਿ ਦਮ ਨਹ ਜਮ ਹਰਿ ਕੰਠਿ ਨਾਨਕ ਉਰਿ ਹਾਰੀ ਰੇ ॥੨॥੫॥੧੩੪॥
खिनु रम गुर गम हरि दम नह जम हरि कंठि नानक उरि हारी रे ॥२॥५॥१३४॥
हे नानक, दिव्य शब्द को अपने हृदय में माला के समान धारण करो। जब प्रत्येक श्वास में उसका स्मरण होता है, तब गुरु के प्रति प्रेम प्रकट होता है और मृत्यु रूपी राक्षस निकट नहीं आता। २॥ ५ ॥ १३४॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
राग आसा, पांचवें गुरु: ५ ॥
ਨੀਕੀ ਸਾਧ ਸੰਗਾਨੀ ॥ ਰਹਾਉ ॥
नीकी साध संगानी ॥ रहाउ ॥
मनुष्य हेतु साधु की संगत अति शुभ है॥ रहाउ ॥
ਪਹਰ ਮੂਰਤ ਪਲ ਗਾਵਤ ਗਾਵਤ ਗੋਵਿੰਦ ਗੋਵਿੰਦ ਵਖਾਨੀ ॥੧॥
पहर मूरत पल गावत गावत गोविंद गोविंद वखानी ॥१॥
वहाँ आठ प्रहर, हर पल एवं घड़ी गोविन्द का ही गुणगान होता रहता है और गोविन्द की गुणस्तुति की बातें होती रहती हैं॥१॥
ਚਾਲਤ ਬੈਸਤ ਸੋਵਤ ਹਰਿ ਜਸੁ ਮਨਿ ਤਨਿ ਚਰਨ ਖਟਾਨੀ ॥੨॥
चालत बैसत सोवत हरि जसु मनि तनि चरन खटानी ॥२॥
उठते-बैठते एवं सोते समय वहाँ हरि का यशोगान होता है और उनके मन-तन में भगवान् आ बसते हैं॥ २॥
ਹਂਉ ਹਉਰੋ ਤੂ ਠਾਕੁਰੁ ਗਉਰੋ ਨਾਨਕ ਸਰਨਿ ਪਛਾਨੀ ॥੩॥੬॥੧੩੫॥
हंउ हउरो तू ठाकुरु गउरो नानक सरनि पछानी ॥३॥६॥१३५॥
नानक कहते हैं कि हे ठाकुर जी ! मैं गुणहीन हूँ पर आप मेरे गुणवान प्रभु हैं और मैंने आपकी शरण लेनी ही उपयुक्त समझी है॥ ३ ॥ ६ ॥ १३५ ॥