Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 32

ਹਉ ਹਉ ਕਰਤੀ ਜਗੁ ਫਿਰੀ ਨਾ ਧਨੁ ਸੰਪੈ ਨਾਲਿ ॥ ऐसी जीव-कामिनी ‘मैं-मैं करती हुई सम्पूर्ण संसार में भटकती फिरती है, किन्तु यह धन-सम्पति किसी के साथ नहीं गई।
ਅੰਧੀ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਈ ਸਭ ਬਾਧੀ ਜਮਕਾਲਿ ॥ भौतिक पदार्थों के लोभ में अंधी हुई सम्पूर्ण सृष्टि प्रभु का नाम-सिमरन नहीं करती और वह यमों के जाल में बंधी पड़ी है।
ਸਤਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਧਨੁ ਪਾਇਆ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਰਿਦੈ ਸਮਾਲਿ ॥੩॥ सतगुरु के मिलाप से जिसने हरि-नाम को हृदय में सम्भाला है, उसने ही सत्य पूँजी अर्जित की है॥ ३॥
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੇ ਨਿਰਮਲੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥ जो जीव गुरु के उपदेशानुसार नाम में अनुरक्त हुए हैं, वे ही निर्मल व शांत स्वभाव वाले हुए है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਾਤਾ ਰੰਗ ਸਿਉ ਰਸਨਾ ਰਸਨ ਰਸਾਇ ॥ उनका मन व तन प्रभु के प्रेम-रंग में अनुरक्त हुआ है और जिव्हा नाम-रस में रत हो गई।
ਨਾਨਕ ਰੰਗੁ ਨ ਉਤਰੈ ਜੋ ਹਰਿ ਧੁਰਿ ਛੋਡਿਆ ਲਾਇ ॥੪॥੧੪॥੪੭॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि जो रंग अकाल-पुरुष ने आरम्भ से लगा दिया है वह कभी नहीं उतरता ॥ ४॥ १४॥ ४७॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ सिरीरागु महला ३ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਭਗਤਿ ਕੀਜੈ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥ सतगुरु की कृपा हो तो प्रभु-भक्ति की जा सकती है, अन्यथा गुरु के बिना भक्ति संभव नहीं है।
ਆਪੈ ਆਪੁ ਮਿਲਾਏ ਬੂਝੈ ਤਾ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਸੋਈ ॥ जो जीव स्वयं को गुरु के साथ मिला कर नाम का रहस्य समझता है तो वह निर्मल होता है।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਾਚਾ ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਈ ॥੧॥ हरि-प्रभु स्वयं सत्य है, उसका नाम सत्य है, परन्तु गुरु-उपदेश द्वारा उस सत्य स्वरूप से मिलन हो सकता है॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਭਗਤਿਹੀਣੁ ਕਾਹੇ ਜਗਿ ਆਇਆ ॥ हे जीव ! जिसने प्रभु-भक्ति नहीं की, उसका इस संसार में आना व्यर्थ है।
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵ ਨ ਕੀਨੀ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ पूर्ण गुरु की जिसने सेवा नहीं की, उसने अपना मानव जन्म व्यर्थ गंवा लिया ॥ १॥ रहाउ ॥
ਆਪੇ ਜਗਜੀਵਨੁ ਸੁਖਦਾਤਾ ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਏ ॥ परमात्मा स्वयं ही सांसारिक जीवों का जीवनाधार व सुखों का दाता है और वह जीवों के अवगुण क्षमा करके स्वयं में अभेद कर लेता है।
ਜੀਅ ਜੰਤ ਏ ਕਿਆ ਵੇਚਾਰੇ ਕਿਆ ਕੋ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ॥ ये बेचारे दीन-हीन जीव-जन्तु क्या समर्था रखते हैं और क्या कुछ कह कर सुना सकते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਪੇ ਦੇਇ ਵਡਾਈ ਆਪੇ ਸੇਵ ਕਰਾਏ ॥੨॥ वह परमेश्वर स्वयं ही गुरुमुख जीवों को नाम द्वारा प्रतिष्ठित करता है और स्वयं ही उन से सेवा करवाता है॥ २॥
ਦੇਖਿ ਕੁਟੰਬੁ ਮੋਹਿ ਲੋਭਾਣਾ ਚਲਦਿਆ ਨਾਲਿ ਨ ਜਾਈ ॥ स्वेच्छाचारी जीव अपने कुटुम्ब-मोह में लिप्त हो रहा है, किन्तु अंतकाल में किसी ने भी साथ नहीं देना।
ਸਤਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਗੁਣ ਨਿਧਾਨੁ ਪਾਇਆ ਤਿਸ ਦੀ ਕੀਮ ਨ ਪਾਈ ॥ जिसने सतगुरु की सेवा करके गुणों के खजाने वाले परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती।
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸਖਾ ਮੀਤੁ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰਾ ਅੰਤੇ ਹੋਇ ਸਖਾਈ ॥੩॥ हरि-परमेश्वर सदैवकाल मेरा मित्र व साथी है और अंतकाल में भी वह सहायक होगा ॥ ३॥
ਆਪਣੈ ਮਨਿ ਚਿਤਿ ਕਹੈ ਕਹਾਏ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਆਪੁ ਨ ਜਾਈ ॥ अपने मन-चित्त में कोई चाहे कहता रहे अथवा किसी अन्य से कहलाए कि मुझ में अभिमान नहीं है, किन्तु गुरु की कृपा के बिना जीव के अंतर्मन से अभिमान समाप्त नहीं होता।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਦਾਤਾ ਭਗਤਿ ਵਛਲੁ ਹੈ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈ ॥ परमेश्वर समस्त जीवों का दाता एवं भक्त-वत्सल है, और वह स्वयं ही कृपा करके जीव के हृदय में भक्ति बसाता है।
ਨਾਨਕ ਸੋਭਾ ਸੁਰਤਿ ਦੇਇ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥੪॥੧੫॥੪੮॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि परमात्मा स्वयं ही यश व ज्ञान देता है और स्वयं गुरु द्वारा प्रतिष्ठा प्रदान करता है अर्थात्-अकाल-पुरुष स्वयं ही गुरुमुख जीव को आत्म ज्ञान देकर इस लोक में यश तथा परलोक में प्रतिष्ठित पद प्रदान करता है ॥ ४ ॥ १५॥ ४८ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ सिरीरागु महला ३ ॥
ਧਨੁ ਜਨਨੀ ਜਿਨਿ ਜਾਇਆ ਧੰਨੁ ਪਿਤਾ ਪਰਧਾਨੁ ॥ वह माता धन्य है, जिसने (गुरु को) जन्म दिया और पिता भी श्रेष्ठ है।
ਸਤਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਵਿਚਹੁ ਗਇਆ ਗੁਮਾਨੁ ॥ ऐसे सतगुरु की सेवा करके जिन जीवों ने आत्मिक सुख प्राप्त किया है और अपने अंतर्मन से अभिमान को समाप्त किया है।
ਦਰਿ ਸੇਵਨਿ ਸੰਤ ਜਨ ਖੜੇ ਪਾਇਨਿ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੧॥ ऐसे सद्कर्मी पुरुष के द्वार पर अनेक जिज्ञासु खड़े सेवा करते हुए गुणनिधान परमात्मा को पा रहे हैं।॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਗੁਰ ਮੁਖਿ ਧਿਆਇ ਹਰਿ ਸੋਇ ॥ हे मेरी जीवात्मा ! तुम गुरु के मुँह से उच्चारण होने वाले उपदेश द्वारा आचरण करते हुए उस अकाल-पुरुष हरि का सिमरन करो।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जब गुरु-उपदेश हृदय में धारण हो जाता है तो तन व मन दोनों पवित्र हो जाते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਘਰਿ ਆਇਆ ਆਪੇ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ॥ गुरु उपदेशानुसार चिन्तन करने से परमात्मा जीव पर कृपालु होकर उसके अंतर्मन में वास करता है और स्वयं उसे आकर मिलता है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਾਲਾਹੀਐ ਰੰਗੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥ इसलिए गुरु-उपदेश द्वारा उस परमात्मा का गुणगान करें तो स्वाभाविक ही उसके प्रेम का रंग चढ़ जाता है।
ਸਚੈ ਸਚਿ ਸਮਾਇਆ ਮਿਲਿ ਰਹੈ ਨ ਵਿਛੁੜਿ ਜਾਇ ॥੨॥ इस प्रकार जीव निर्मल होकर उस सत्य स्वरूप में लीन हो जाता है और उसके साथ ही मिला रहता है, फिर कभी उससे विमुक्त होकर आवागमन के चक्र में नहीं पड़ता ॥ २॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰਣਾ ਸੁ ਕਰਿ ਰਹਿਆ ਅਵਰੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਇ ॥ उस परमात्मा ने जो कुछ करना है, वह कर रहा है, इसके अतिरिक्त कुछ किया भी नहीं जा सकता।
ਚਿਰੀ ਵਿਛੁੰਨੇ ਮੇਲਿਅਨੁ ਸਤਗੁਰ ਪੰਨੈ ਪਾਇ ॥ सतगुरु की शरण में डाल कर परमात्मा ने चिरकाल से विमुक्त हुई जीवात्मा को अपने स्वरूप में अभेद कर लिया।
ਆਪੇ ਕਾਰ ਕਰਾਇਸੀ ਅਵਰੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਇ ॥੩॥ वह अपनी इच्छानुसार ही जीवों से कर्म करवाएगा, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता ॥ ३॥
ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਤਾ ਰੰਗ ਸਿਉ ਹਉਮੈ ਤਜਿ ਵਿਕਾਰ ॥ जिस जीव ने अहंत्व और विषय-विकारों का त्याग करके अपना मन व तन परमात्मा के प्रेम-रंग में लीन कर लिया है,
ਅਹਿਨਿਸਿ ਹਿਰਦੈ ਰਵਿ ਰਹੈ ਨਿਰਭਉ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥ वह जीव निर्भय होकर अपने हृदय में परमात्मा का नाम-सिमरन करता रहता है।
ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਮਿਲਾਇਅਨੁ ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਅਪਾਰ ॥੪॥੧੬॥੪੯॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि परमात्मा ने स्वयं ही ऐसे जीव को परिपूर्ण गुरु के उपदेश द्वारा अपने स्वरुप में मिला लिया है ॥ ४ ॥ १६॥ ४९ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ सिरीरागु महला ३ ॥
ਗੋਵਿਦੁ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥ गुरुवाणी द्वारा लब्ध पारब्रह्म गुणों का भण्डार है, उसका अंत नहीं पाया जा सकता।
ਕਥਨੀ ਬਦਨੀ ਨ ਪਾਈਐ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥ मात्र कथन कर देने से उसकी प्राप्ति संभव नहीं है, बल्कि वह तो हृदय से अहंत्व का त्याग करने से ही मिलता है।
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