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ਸਭਿ ਜੀਅ ਤੇਰੇ ਤੂ ਸਭਸ ਦਾ ਤੂ ਸਭ ਛਡਾਹੀ ॥੪॥
सभि जीअ तेरे तू सभस दा तू सभ छडाही ॥४॥
हे प्रभु! सारे जीव-जंतु आपके हैं, आप ही उनका संरक्षक, और आप ही उन्हें मोक्ष देने वाला है।॥ ४॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४॥
ਸੁਣਿ ਸਾਜਨ ਪ੍ਰੇਮ ਸੰਦੇਸਰਾ ਅਖੀ ਤਾਰ ਲਗੰਨਿ ॥
सुणि साजन प्रेम संदेसरा अखी तार लगंनि ॥
साजन प्रभु का प्रेम भरा सन्देश सुनकर जिनके नेत्र दर्शनों की आशा में लग जाते हैं,
ਗੁਰਿ ਤੁਠੈ ਸਜਣੁ ਮੇਲਿਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਸੁਖਿ ਸਵੰਨਿ ॥੧॥
गुरि तुठै सजणु मेलिआ जन नानक सुखि सवंनि ॥१॥
हे नानक ! गुरु ने प्रसन्न होकर उन्हें साजन प्रभु से मिला दिया है एवं वे सुखपूर्वक रहते हैं॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਦਇਆਲੁ ਹੈ ਜਿਸ ਨੋ ਦਇਆ ਸਦਾ ਹੋਇ ॥
सतिगुरु दाता दइआलु है जिस नो दइआ सदा होइ ॥
सतगुरु परोपकारी और दयालु होते हैं; वे सदैव सभी प्राणियों के प्रति करुणा रखते हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਅੰਦਰਹੁ ਨਿਰਵੈਰੁ ਹੈ ਸਭੁ ਦੇਖੈ ਬ੍ਰਹਮੁ ਇਕੁ ਸੋਇ ॥
सतिगुरु अंदरहु निरवैरु है सभु देखै ब्रहमु इकु सोइ ॥
सतगुरु के ह्रदय में किसी के साथ शत्रुता नहीं, वह सर्वत्र एक ईश्वर को देखते रहते हैं।
ਨਿਰਵੈਰਾ ਨਾਲਿ ਜਿ ਵੈਰੁ ਚਲਾਇਦੇ ਤਿਨ ਵਿਚਹੁ ਤਿਸਟਿਆ ਨ ਕੋਇ ॥
निरवैरा नालि जि वैरु चलाइदे तिन विचहु तिसटिआ न कोइ ॥
जो प्राणी निर्वैर के साथ वैर करते हैं, उनमें से कोई सुखी नहीं होता।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਭਨਾ ਦਾ ਭਲਾ ਮਨਾਇਦਾ ਤਿਸ ਦਾ ਬੁਰਾ ਕਿਉ ਹੋਇ ॥
सतिगुरु सभना दा भला मनाइदा तिस दा बुरा किउ होइ ॥
सतगुरु जी सबका भला चाहते हैं। उनका बुरा किस तरह हो सकता है ?
ਸਤਿਗੁਰ ਨੋ ਜੇਹਾ ਕੋ ਇਛਦਾ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਪਾਏ ਕੋਇ ॥
सतिगुर नो जेहा को इछदा तेहा फलु पाए कोइ ॥
जिस श्रद्धा भावना से कोई मनुष्य सतगुरु के पास जाता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है।
ਨਾਨਕ ਕਰਤਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਜਾਣਦਾ ਜਿਦੂ ਕਿਛੁ ਗੁਝਾ ਨ ਹੋਇ ॥੨॥
नानक करता सभु किछु जाणदा जिदू किछु गुझा न होइ ॥२॥
हे नानक ! विश्व की रचना करने वाले परमात्मा से कोई बात छिपाई नहीं जा सकती, चूंकि वह सबकुछ जानता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਜਿਸ ਨੋ ਸਾਹਿਬੁ ਵਡਾ ਕਰੇ ਸੋਈ ਵਡ ਜਾਣੀ ॥
जिस नो साहिबु वडा करे सोई वड जाणी ॥
जिसे मालिक महान बनाते हैं, उसे ही महान समझना चाहिए।
ਜਿਸੁ ਸਾਹਿਬ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਬਖਸਿ ਲਏ ਸੋ ਸਾਹਿਬ ਮਨਿ ਭਾਣੀ ॥
जिसु साहिब भावै तिसु बखसि लए सो साहिब मनि भाणी ॥
ईश्वर जिसे चाहते हैं उसे क्षमा कर देते हैं और वह उसे प्रसन्न कर देते हैं।
ਜੇ ਕੋ ਓਸ ਦੀ ਰੀਸ ਕਰੇ ਸੋ ਮੂੜ ਅਜਾਣੀ ॥
जे को ओस दी रीस करे सो मूड़ अजाणी ॥
वह (जीव-स्त्री) मूर्ख एवं बुद्धिहीन है, जो उससे तुलना करती है।
ਜਿਸ ਨੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲੇ ਸੁ ਗੁਣ ਰਵੈ ਗੁਣ ਆਖਿ ਵਖਾਣੀ ॥
जिस नो सतिगुरु मेले सु गुण रवै गुण आखि वखाणी ॥
जिसे सतगुरु प्रभु से मिलाते हैं वही उनसे मिलता है एवं प्रभु की गुणस्तुति करके दूसरों को सुनाता है।
ਨਾਨਕ ਸਚਾ ਸਚੁ ਹੈ ਬੁਝਿ ਸਚਿ ਸਮਾਣੀ ॥੫॥
नानक सचा सचु है बुझि सचि समाणी ॥५॥
हे नानक ! परमात्मा सदैव सत्य है, जो इस तथ्य को समझता है, वह सत्य में ही समा जाता है। ॥ ५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४ ॥
ਹਰਿ ਸਤਿ ਨਿਰੰਜਨ ਅਮਰੁ ਹੈ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
हरि सति निरंजन अमरु है निरभउ निरवैरु निरंकारु ॥
भगवान् सत्य, माया से रहित, अनश्वर, निडर, निर्वेर एवं निराकार है।
ਜਿਨ ਜਪਿਆ ਇਕ ਮਨਿ ਇਕ ਚਿਤਿ ਤਿਨ ਲਥਾ ਹਉਮੈ ਭਾਰੁ ॥
जिन जपिआ इक मनि इक चिति तिन लथा हउमै भारु ॥
जो मनुष्य एकाग्रचित होकर उसका सिमरन करते हैं, वे अहंकार के भार से मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
ਜਿਨ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਆਰਾਧਿਆ ਤਿਨ ਸੰਤ ਜਨਾ ਜੈਕਾਰੁ ॥
जिन गुरमुखि हरि आराधिआ तिन संत जना जैकारु ॥
जिन गुरमुखों ने भगवान् की आराधना की है, ऐसे संतजनों को विश्व में बड़ी लोकप्रियता प्राप्त होती है।
ਕੋਈ ਨਿੰਦਾ ਕਰੇ ਪੂਰੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਕੀ ਤਿਸ ਨੋ ਫਿਟੁ ਫਿਟੁ ਕਹੈ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥
कोई निंदा करे पूरे सतिगुरू की तिस नो फिटु फिटु कहै सभु संसारु ॥
यदि कोई व्यक्ति पूर्ण सतगुरु की निन्दा करता है तो उसको सारी दुनिया प्रताड़ित करती है।
ਸਤਿਗੁਰ ਵਿਚਿ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਹਰਿ ਆਪੇ ਰਖਣਹਾਰੁ ॥
सतिगुर विचि आपि वरतदा हरि आपे रखणहारु ॥
सतगुरु के भीतर स्वयं भगवान् बसते है और स्वयं ही उनके रक्षक है।
ਧਨੁ ਧੰਨੁ ਗੁਰੂ ਗੁਣ ਗਾਵਦਾ ਤਿਸ ਨੋ ਸਦਾ ਸਦਾ ਨਮਸਕਾਰੁ ॥
धनु धंनु गुरू गुण गावदा तिस नो सदा सदा नमसकारु ॥
धन्य हैं वह गुरु ! जो प्रभु की गुणस्तुति करते रहते हैं। उसको मैं सदैव प्रणाम करता हूँ।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਕਉ ਵਾਰਿਆ ਜਿਨ ਜਪਿਆ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ॥੧॥
जन नानक तिन कउ वारिआ जिन जपिआ सिरजणहारु ॥१॥
हे नानक ! मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर हूँ, जिन्होंने सृजनहार परमेश्वर की आराधना की है॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४॥
ਆਪੇ ਧਰਤੀ ਸਾਜੀਅਨੁ ਆਪੇ ਆਕਾਸੁ ॥
आपे धरती साजीअनु आपे आकासु ॥
ईश्वर ने स्वयं ही धरती बनाई और स्वयं ही आकाश बनाया।
ਵਿਚਿ ਆਪੇ ਜੰਤ ਉਪਾਇਅਨੁ ਮੁਖਿ ਆਪੇ ਦੇਇ ਗਿਰਾਸੁ ॥
विचि आपे जंत उपाइअनु मुखि आपे देइ गिरासु ॥
इस धरती में ईश्वर ने जीव-जन्तु उत्पन्न किए और स्वयं ही प्राणियों के मुख में भोजन दिया है।
ਸਭੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਆਪੇ ਹੀ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥
सभु आपे आपि वरतदा आपे ही गुणतासु ॥
अपने आप ही वह सर्वव्यापक हो रहा है और स्वयं ही गुणों का भण्डार है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਤੂ ਸਭਿ ਕਿਲਵਿਖ ਕਟੇ ਤਾਸੁ ॥੨॥
जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख कटे तासु ॥२॥
हे नानक ! तू प्रभु के नाम की आराधना कर, वह तेरे सभी पाप नाश कर देगा ॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਤੂ ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੁ ਸਚੇ ਭਾਵੈ ॥
तू सचा साहिबु सचु है सचु सचे भावै ॥
हे सत्य के पुंज परमात्मा ! आप सदैव सत्य है। उस सत्य के पुंज को सत्य ही प्रिय लगता है।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਸਚੁ ਸਲਾਹਦੇ ਤਿਨ ਜਮ ਕੰਕਰੁ ਨੇੜਿ ਨ ਆਵੈ ॥
जो तुधु सचु सलाहदे तिन जम कंकरु नेड़ि न आवै ॥
हे सत्यस्वरूप प्रभु ! जो-जो प्राणी तेरी प्रशंसा करते हैं, यमदूत उनके निकट नहीं आता।
ਤਿਨ ਕੇ ਮੁਖ ਦਰਿ ਉਜਲੇ ਜਿਨ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਸਚਾ ਭਾਵੈ ॥
तिन के मुख दरि उजले जिन हरि हिरदै सचा भावै ॥
जिनके हृदय को सत्य प्रभु अच्छा लगता है, उनके मुख उसके दरबार में उज्ज्वल हो जाते हैं।
ਕੂੜਿਆਰ ਪਿਛਾਹਾ ਸਟੀਅਨਿ ਕੂੜੁ ਹਿਰਦੈ ਕਪਟੁ ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਪਾਵੈ ॥
कूड़िआर पिछाहा सटीअनि कूड़ु हिरदै कपटु महा दुखु पावै ॥
झूठे लोग पीछे छूट जाते हैं; मन में झूठ एवं छल-कपट होने के कारण वह महा कष्ट सहन करते हैं।
ਮੁਹ ਕਾਲੇ ਕੂੜਿਆਰੀਆ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੋ ਹੋਇ ਜਾਵੈ ॥੬॥
मुह काले कूड़िआरीआ कूड़िआर कूड़ो होइ जावै ॥६॥
झूठों के मुख सत्य के दरबार में काले होते हैं। झूठे केवल झूठे ही रहते हैं।॥ ६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਧਰਤੀ ਧਰਮ ਹੈ ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਜੇਹਾ ਕੋ ਬੀਜੇ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਪਾਏ ॥
सतिगुरु धरती धरम है तिसु विचि जेहा को बीजे तेहा फलु पाए ॥
सतगुरु धर्मभूमि के समान है — जो जैसा बीज उसमें बोता है, वही फल उसे प्राप्त होता है।
ਗੁਰਸਿਖੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਬੀਜਿਆ ਤਿਨ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਫਲੁ ਹਰਿ ਪਾਏ ॥
गुरसिखी अम्रितु बीजिआ तिन अम्रित फलु हरि पाए ॥
गुरु के सिक्ख नाम-अमृत बोते हैं एवं ईश्वर को अपने अमृत फल के रूप में प्राप्त करते हैं।
ਓਨਾ ਹਲਤਿ ਪਲਤਿ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਓਇ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਸਚੀ ਪੈਨਾਏ ॥
ओना हलति पलति मुख उजले ओइ हरि दरगह सची पैनाए ॥
इस लोक एवं परलोक में उनके मुख उज्ज्वल होते हैं। प्रभु के सच्चे दरबार में उनको मान-सम्मान मिलता है।
ਇਕਨ੍ਹ੍ਹਾ ਅੰਦਰਿ ਖੋਟੁ ਨਿਤ ਖੋਟੁ ਕਮਾਵਹਿ ਓਹੁ ਜੇਹਾ ਬੀਜੇ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਖਾਏ ॥
इकन्हा अंदरि खोटु नित खोटु कमावहि ओहु जेहा बीजे तेहा फलु खाए ॥
कुछ लोगों के मन में कपट होता है और वह सदैव ही कपट कमाते हैं, जैसा वह बोते हैं, वैसा ही फल खाते हैं।