Guru Granth Sahib Translation Project

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ਸਭ ਦੁਨੀਆ ਆਵਣ ਜਾਣੀਆ ॥੩॥ मायके रूपी इस लोक में तुम्हारा सदा के दिए वास नहीं हो सकता॥ ३॥
ਵਿਚਿ ਦੁਨੀਆ ਸੇਵ ਕਮਾਈਐ ॥ इस दुनिया में रहते हुए ही यदि जीव सेवा-सिमरन करता रहे,
ਤਾ ਦਰਗਹ ਬੈਸਣੁ ਪਾਈਐ ॥ तभी प्रभु के दरबार में बैठने के लिए स्थान प्राप्त होता है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਬਾਹ ਲੁਡਾਈਐ ॥੪॥੩੩॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि यह जीव उन्हीं कर्मों द्वारा चिन्ता मुक्त होकर रह सकता है ॥ ४ ॥ ३३ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ਘਰੁ ੧ सिरीरागु महला ३ घरु १
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਹਉ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੀ ਆਪਣਾ ਇਕ ਮਨਿ ਇਕ ਚਿਤਿ ਭਾਇ ॥ मैं अपने सतगुरु,की सेवा एकाग्रचित और मन व प्रेम-भाव के साथ करता हूँ।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਨ ਕਾਮਨਾ ਤੀਰਥੁ ਹੈ ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਬੁਝਾਇ ॥ मेरा सतगुरु मनोकामना पूर्ण करने वाला तीर्थ है, किन्तु जिस पर परमेश्वर की कृपा होती है, उसी को ऐसी समझ होती है।
ਮਨ ਚਿੰਦਿਆ ਵਰੁ ਪਾਵਣਾ ਜੋ ਇਛੈ ਸੋ ਫਲੁ ਪਾਇ ॥ प्रभु की स्तुति करने से ही मनवांछित आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है और इच्छानुसार फल की प्राप्ति होती है।
ਨਾਉ ਧਿਆਈਐ ਨਾਉ ਮੰਗੀਐ ਨਾਮੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ इसलिए उस परमेश्वर का नाम-सिमरन करें, नाम की ही कामना करें, इसी नाम द्वारा हम सहजावस्था में लीन हो सकते हैं ॥१॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖੁ ਤਿਖ ਜਾਇ ॥ हे मेरे मन ! हरि का नाम-रस चखने से ही तृष्णा मिट सकती है।
ਜਿਨੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚਾਖਿਆ ਸਹਜੇ ਰਹੇ ਸਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जिन गुरुमुख जीवों ने इसे चखा है, वे ही सहजावस्था में समाए हैं।॥ ॥१॥ रहाउ ॥
ਜਿਨੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨੀ ਪਾਇਆ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ॥ जिन्होंने सतगुरु की सेवा की है, उन्होंने परमेश्वर का नाम-कोष प्राप्त किया है।
ਅੰਤਰਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਚੂਕਾ ਮਨਿ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥ इससे अंतर्मन में हरिनाम रस भरपूर हो जाता है और मन से अभिमान समाप्त हो जाता है।
ਹਿਰਦੈ ਕਮਲੁ ਪ੍ਰਗਾਸਿਆ ਲਾਗਾ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨੁ ॥ सहजावस्था में लीन हो जाने से हृदय रूपी कमल खिल जाता है।
ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਪਾਇਆ ਦਰਗਹਿ ਮਾਨੁ ॥੨॥ जिस मन में हरि व्याप्त है, वह निर्मल हो जाता है, और उसने प्रभु के दरबार में सम्मान प्राप्त किया है॥ २॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਨਿ ਆਪਣਾ ਤੇ ਵਿਰਲੇ ਸੰਸਾਰਿ ॥ वे जीव इस संसार में बहुत कम हैं जो अपने सतगुरु की सेवा करते हैं।
ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਮਾਰਿ ਕੈ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥ ऐसे जीवों ने अभिमान, मोह आदि विकारों का दमन करके प्रभु को हृदय में धारण कर रखा है।
ਹਉ ਤਿਨ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰਣੈ ਜਿਨਾ ਨਾਮੇ ਲਗਾ ਪਿਆਰੁ ॥ मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ, जिनको प्रभु-नाम के साथ प्रीत हुई है।
ਸੇਈ ਸੁਖੀਏ ਚਹੁ ਜੁਗੀ ਜਿਨਾ ਨਾਮੁ ਅਖੁਟੁ ਅਪਾਰੁ ॥੩॥ वे चारों युगों में सुखी हैं, जिनके पास अक्षय एवं अपार नाम की निधि है॥ ३॥
ਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਨਾਮੁ ਪਾਈਐ ਚੂਕੈ ਮੋਹ ਪਿਆਸ ॥ गुरु के मिलने से नाम की प्राप्ति होती है और इसी नाम के कारण ही माया का मोह व विषयों की तृष्णा समाप्त होती है।
ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਮਨੁ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਘਰ ਹੀ ਮਾਹਿ ਉਦਾਸੁ ॥ ऐसे में जीव का मन हरि के साथ मिल जाता है तथा जीव को गृहस्थ जीवन में रह कर ही उदासीनता प्राप्त हो जाती है।
ਜਿਨਾ ਹਰਿ ਕਾ ਸਾਦੁ ਆਇਆ ਹਉ ਤਿਨ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਸੁ ॥ जिन को हरि की उपासना का आनंद मिला है, उन पर मैं सदा बलिहारी जाऊँ।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥੪॥੧॥੩੪॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि प्रभु की कृपा-दृष्टि से ही गुणों का खज़ाना सत्य नाम प्राप्त किया जा सकता है ॥४॥१॥३४॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ सिरीरागु महला ३ ॥
ਬਹੁ ਭੇਖ ਕਰਿ ਭਰਮਾਈਐ ਮਨਿ ਹਿਰਦੈ ਕਪਟੁ ਕਮਾਇ ॥ मनुष्य कितने ही तरह-तरह के भेष बना कर इधर-उधर भटकता है, ऐसा करके वह हृदय में छल अर्जित करता है।
ਹਰਿ ਕਾ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਵਈ ਮਰਿ ਵਿਸਟਾ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ छलिया मन के साथ मनुष्य प्रभु के दर्शन नहीं पाता और अंततः मर कर वह नरकों की गंदगी में समा जाता है ॥ १॥
ਮਨ ਰੇ ਗ੍ਰਿਹ ਹੀ ਮਾਹਿ ਉਦਾਸੁ ॥ हे मन ! गृहस्थ जीवन में रह कर ही मोह-मायादि बंधनों से उदासीन होकर रहो।
ਸਚੁ ਸੰਜਮੁ ਕਰਣੀ ਸੋ ਕਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਪਰਗਾਸੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ सत्य व संयम की क्रिया वही करता है, जिस मनुष्य को गुरु के उपदेश द्वारा ज्ञान रूपी प्रकाश प्राप्त हो जाता है ॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਜੀਤਿਆ ਗਤਿ ਮੁਕਤਿ ਘਰੈ ਮਹਿ ਪਾਇ ॥ जिसने गुरु के उपदेश द्वारा विषयों-विकारों से मन को जीत लिया है, उसने गृहस्थ जीवन में ही सदगति व मुक्ति पा ली है।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇ ॥੨॥ हरि का नाम-सिमरन करने से ही सत्संगति द्वारा प्रभु से मिलन होता है ॥ २॥
ਜੇ ਲਖ ਇਸਤਰੀਆ ਭੋਗ ਕਰਹਿ ਨਵ ਖੰਡ ਰਾਜੁ ਕਮਾਹਿ ॥ मनुष्य यदि लाखों स्त्रियों का भोग कर ले, सम्पूर्ण सृष्टि पर राज्य कर ले।
ਬਿਨੁ ਸਤਗੁਰ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਵਈ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੋਨੀ ਪਾਹਿ ॥੩॥ तब भी बिना सतगुरु के आत्मिक सुख नहीं मिलता तथा मनुष्य पुनः पुनः योनियों में पड़ता है।॥ ३॥
ਹਰਿ ਹਾਰੁ ਕੰਠਿ ਜਿਨੀ ਪਹਿਰਿਆ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥ जिन्होंने हरि नाम रूपी हार अपने गले में पहन लिया तथा गुरु-चरणों में मन को लीन किया है।
ਤਿਨਾ ਪਿਛੈ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਫਿਰੈ ਓਨਾ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ ॥੪॥ उनके पीछे ऋद्धि -सिद्धि आदि सम्पूर्ण शक्तियाँ फिरती हैं, किन्तु उन्हें इन सब की तिनका मात्र मी लालसा नहीं है॥ ४॥
ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਸੋ ਥੀਐ ਅਵਰੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਇ ॥ जो ईश्वर को अच्छा लगे वही होता है, अन्य कुछ भी नहीं किया जा सकता।
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਜੀਵੈ ਨਾਮੁ ਲੈ ਹਰਿ ਦੇਵਹੁ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥੫॥੨॥੩੫॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि हे प्रभु ! मैं आपके नाम-सिमरन द्वारा ही जीवित रहता हूँ. इसलिए आप मुझे शांत स्वभाव प्रदान कीजिए ॥ ५॥ २॥ ३५ ॥
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