Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 20

ਪੰਚ ਭੂਤ ਸਚਿ ਭੈ ਰਤੇ ਜੋਤਿ ਸਚੀ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥ जिस सत्य स्वरूप के भय में पांचों भौतिक तत्व (सम्पूर्ण मानव शरीर) अनुरक्त हैं उस सत्य स्वरूप परमात्मा की परम ज्योति मन में निवास करती है।
ਨਾਨਕ ਅਉਗਣ ਵੀਸਰੇ ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਪਤਿ ਤਾਹਿ ॥੪॥੧੫॥ सतगुरु जी कथन करते हैं कि उस मानव जीव को समस्त अवगुण विस्मृत हो गए हैं और उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा स्वयं गुरु करते हैं। ॥४॥१५॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ सिरीरागु महला १ ॥
ਨਾਨਕ ਬੇੜੀ ਸਚ ਕੀ ਤਰੀਐ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਿ ॥ गुरु नानक देव जी कथन करते हैं गुरु-उपदेश का मनन करने से ही सत्य नाम रूपी नौका में सवार होकर जीव भवसागर को पार कर सकता है।
ਇਕਿ ਆਵਹਿ ਇਕਿ ਜਾਵਹੀ ਪੂਰਿ ਭਰੇ ਅਹੰਕਾਰਿ ॥ लेकिन अनेक जीव अभिमान करते हुए जन्म ले रहे हैं और मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं।
ਮਨਹਠਿ ਮਤੀ ਬੂਡੀਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਸੁ ਤਾਰਿ ॥੧॥ हठी इन्सान मन की बुद्धि के कारण संसार-सागर के विकारों में डूबा रहता है, लेकिन गुरु के बताए सत्य मार्ग पर चल कर इस संसार सागर को पार किया जा सकता है॥ १॥
ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਕਿਉ ਤਰੀਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥ गुरु के आश्रय बिना कैसे यह भवसागर पार किया जा सकता है और कैसे आत्मिक-आनंद प्राप्त किया जा सकता है।
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਾਖੁ ਤੂ ਮੈ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਕੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ इसलिए उस परमात्मा में ऐसा निश्चय रख कर विनती करो कि जैसे आप को अच्छा लगता है, वैसे ही मेरी रक्षा करो, आप के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई आश्रय नहीं है।॥ १॥ रहाउ॥
ਆਗੈ ਦੇਖਉ ਡਉ ਜਲੈ ਪਾਛੈ ਹਰਿਓ ਅੰਗੂਰੁ ॥ सृष्टि के आश्चर्यजनक दृश्य का वर्णन करते हुए गुरु जी कथन करते हैं कि हे मानव ! जब संसार के आगे (श्मशान भूमि में) मैं देखता हूँ तो दावानल प्रज्वलित है और पीछे (संसार में) देखता हूँ तो अंकुर स्फुटित हो रहे हैं अर्थात् नए जीव पैदा हो रहे हैं।
ਜਿਸ ਤੇ ਉਪਜੈ ਤਿਸ ਤੇ ਬਿਨਸੈ ਘਟਿ ਘਟਿ ਸਚੁ ਭਰਪੂਰਿ ॥ जिस सृष्टिकर्ता के आदेश से यह सांसारिक जीव पैदा हो रहे हैं और जिस संहारक शक्ति की आज्ञा से नष्ट हो रहे हैं, वह परिपूर्ण सत्य परमेश्वर कण-कण में व्याप्त हैं।
ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਵਹੀ ਸਾਚੈ ਮਹਲਿ ਹਦੂਰਿ ॥੨॥ वह स्वयं गुरु से मिलाप करवाता है और गुरु से मिलकर जीव सत्य स्वरूप के समक्ष होता है॥ २॥
ਸਾਹਿ ਸਾਹਿ ਤੁਝੁ ਸੰਮਲਾ ਕਦੇ ਨ ਵਿਸਾਰੇਉ ॥ हे प्रभु ! कृपा करो, मैं श्वास-श्वास आप को स्मरण करूँ, कभी भी न भुलाऊं।
ਜਿਉ ਜਿਉ ਸਾਹਬੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੇਉ ॥ हे साहिब ! जब-जब तुम मेरे मन में वास करोगे, तब-तब मैं आत्मिक आनंद देने वाला नाम रूपी अमृत पीता रहूँगा।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਤੇਰਾ ਤੂ ਧਣੀ ਗਰਬੁ ਨਿਵਾਰਿ ਸਮੇਉ ॥੩॥ हे परमात्मा ! मेरा यह तन और मन तुम्हारा ही दिया हुआ है, तुम मेरे स्वामी हो, इसलिए कृपा करके मेरे अंतर्मन से अहंकार दूर करके मुझे अपने में लीन कर लो॥ ३॥
ਜਿਨਿ ਏਹੁ ਜਗਤੁ ਉਪਾਇਆ ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਕਰਿ ਆਕਾਰੁ ॥ जिस परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण किया है, उसने इसे तीन लोकों का आकार दिया है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਚਾਨਣੁ ਜਾਣੀਐ ਮਨਮੁਖਿ ਮੁਗਧੁ ਗੁਬਾਰੁ ॥ इस रहस्यमयी ज्ञान को गुरमुख जीव ही जानते है, मायाधारी मनमुख विमूढ़ जीव अंधकार में रहते हैं।
ਘਟਿ ਘਟਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰੀ ਬੂਝੈ ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਰੁ ॥੪॥ श्रेष्ठ गुरु की शिक्षा प्राप्त जीव ही सर्वव्यापक ज्योति को निरंतर जान सकता है II ४ II
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਿਨੀ ਜਾਣਿਆ ਤਿਨ ਕੀਚੈ ਸਾਬਾਸਿ ॥ जिन गुरमुख जीवों ने उस परमात्मा को जान लिया है, वे धन्य हैं।
ਸਚੇ ਸੇਤੀ ਰਲਿ ਮਿਲੇ ਸਚੇ ਗੁਣ ਪਰਗਾਸਿ ॥ जो परमात्मा के सत्य नाम में लिप्त होकर उसी सत्य में अभेद हो गए हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸੰਤੋਖੀਆ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਪ੍ਰਭ ਪਾਸਿ ॥੫॥੧੬॥ श्री गुरु नानक जी कथन करते हैं कि वे नाम द्वारा संतुष्ट हो गए हैं और उन्होंने अपने प्राण व शरीर उस परमेश्वर को ही अर्पित कर दिए हैं।॥ ५॥ १६॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ सिरीरागु महला १ ॥
ਸੁਣਿ ਮਨ ਮਿਤ੍ਰ ਪਿਆਰਿਆ ਮਿਲੁ ਵੇਲਾ ਹੈ ਏਹ ॥ हे प्रिय मित्र मन ! सुनो, यह समय (मानव जन्म) परमात्मा से मिलने का है।
ਜਬ ਲਗੁ ਜੋਬਨਿ ਸਾਸੁ ਹੈ ਤਬ ਲਗੁ ਇਹੁ ਤਨੁ ਦੇਹ ॥ जब तक यह यौवनावस्था के श्वास चल रहे हैं, तब तक ही यह शरीर नाम सिमरन करने के योग्य है। अर्थात्-वृद्धावस्था में निर्बलता सिमरन नहीं करने देती।
ਬਿਨੁ ਗੁਣ ਕਾਮਿ ਨ ਆਵਈ ਢਹਿ ਢੇਰੀ ਤਨੁ ਖੇਹ ॥੧॥ शुभ गुणों के बिना यह तन किसी काम का नहीं है, अंत में इसने नष्ट होकर राख का ढेर बन जाना है॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਲੈ ਲਾਹਾ ਘਰਿ ਜਾਹਿ ॥ हे मेरे प्रिय मन ! तुम नाम-स्मरण का लाभ उठा कर सत्य स्वरूप के घर जाओ।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹੀਐ ਹਉਮੈ ਨਿਵਰੀ ਭਾਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु के उन्मुख होकर नाम-स्मरण कर, इससे अहंकार की अग्नि बुझ जाएगी॥ १॥ रहाउ॥
ਸੁਣਿ ਸੁਣਿ ਗੰਢਣੁ ਗੰਢੀਐ ਲਿਖਿ ਪੜਿ ਬੁਝਹਿ ਭਾਰੁ ॥ अनेकानेक कथा-कहानियाँ सुन-सुन कर बौद्धिक उधेड़बुन में लगे रहते हैं, और अनेकानेक लिख-लिख कर, पढ़-पढ़ कर तथा सोच-विचार कर पदों का संग्रह करते हैं वह स्वयं एक बोझ के समान हैं।
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਹਿਨਿਸਿ ਅਗਲੀ ਹਉਮੈ ਰੋਗੁ ਵਿਕਾਰੁ ॥ उनकी तृष्णा में दिन-रात वृद्धि होती रहती है और अहंकार के रोग में ग्रस्त होकर कई तरह के विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
ਓਹੁ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ਅਤੋਲਵਾ ਗੁਰਮਤਿ ਕੀਮਤਿ ਸਾਰੁ ॥੨॥ वह प्रभु निश्चित तथा अपरिमेय है, उसके बारे में ज्ञान गुरु की शिक्षा द्वारा ही होता है॥ २॥
ਲਖ ਸਿਆਣਪ ਜੇ ਕਰੀ ਲਖ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਮਿਲਾਪੁ ॥ हम लाखों तरह की चतुराई कर लें और लाखों ही लोगों के साथ प्रीत कर लें।
ਬਿਨੁ ਸੰਗਤਿ ਸਾਧ ਨ ਧ੍ਰਾਪੀਆ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਦੂਖ ਸੰਤਾਪੁ ॥ (तो भी) संतों की संगति किए बिना तृप्ति नहीं होती तथा नाम सिमरन के बिना सांसारिक दुःख एवं संताप बने रहते हैं।
ਹਰਿ ਜਪਿ ਜੀਅਰੇ ਛੁਟੀਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚੀਨੈ ਆਪੁ ॥੩॥ हे जीव ! गुरु उपदेश द्वारा स्वयं को पहचान कर हरि सिमरन करके इन विकारों से छुटकारा पाया जा सकता है॥ ३॥
ਤਨੁ ਮਨੁ ਗੁਰ ਪਹਿ ਵੇਚਿਆ ਮਨੁ ਦੀਆ ਸਿਰੁ ਨਾਲਿ ॥ जिसने अपना तन-मन गुरु के पास बेच दिया है, अंतः करण और सिर भी अर्पित कर दिया है।
ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਖੋਜਿ ਢੰਢੋਲਿਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਖੋਜਿ ਨਿਹਾਲਿ ॥ उसने जिस प्रभु को तीनों लोकों में ढूंढा था, उसे गुरु उपदेश द्वारा खोज कर प्रसन्नता प्राप्त की है।
ਸਤਗੁਰਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਆ ਨਾਨਕ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਨਾਲਿ ॥੪॥੧੭॥ गुरु नानक देव जी कथन करते हैं कि सतिगुरु ने अपने साथ मिला कर उस प्रभु से मिलाप करवा दिया है॥ ४॥ १७॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ सिरीरागु महला १ ॥
ਮਰਣੈ ਕੀ ਚਿੰਤਾ ਨਹੀ ਜੀਵਣ ਕੀ ਨਹੀ ਆਸ ॥ गुरु के उन्मुख जीवों को न मरने की चिन्ता होती है और न ही जीने की आशा।
ਤੂ ਸਰਬ ਜੀਆ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲਹੀ ਲੇਖੈ ਸਾਸ ਗਿਰਾਸ ॥ वह निश्चय करके कहते हैं कि हे प्रभु ! तुम समस्त प्राणियों की प्रतिपालना करने वाले हो, प्रत्येक के श्वास-ग्रास का लेखा तुम्हारे पास है।
ਅੰਤਰਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਤੂ ਵਸਹਿ ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਨਿਰਜਾਸਿ ॥੧॥ गुरमुखों के हृदय मैं तुम वास करते हो, जैसे आपको अच्छा लगता है, वैसे तुम निर्णय लेते हो॥ १॥
ਜੀਅਰੇ ਰਾਮ ਜਪਤ ਮਨੁ ਮਾਨੁ ॥ हे जीव! अकाल पुरख का चिंतन करते हुए मन में निश्चय धारण करो।
ਅੰਤਰਿ ਲਾਗੀ ਜਲਿ ਬੁਝੀ ਪਾਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जब गुरु द्वारा गुरमुख को ज्ञान प्राप्त हुआ तो अंतर्मन में लगी तृष्णा रूपी आग की जलन समाप्त हो गई॥ १॥ रहाउ॥
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