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                    ਪੀਊ ਦਾਦੇ ਕਾ ਖੋਲਿ ਡਿਠਾ ਖਜਾਨਾ ॥
                   
                    
                                              
                        जब मैंने अपने पिता और दादा का भण्डार अर्थात् गुरुओं की वाणी का भण्डार खोल कर देखा
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਾ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਭਇਆ ਨਿਧਾਨਾ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        तो मेरे मन को ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो उसे आध्यात्मिक आनंद का भण्डार मिल गया है। ॥ १॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਰਤਨ ਲਾਲ ਜਾ ਕਾ ਕਛੂ ਨ ਮੋਲੁ ॥ ਭਰੇ ਭੰਡਾਰ ਅਖੂਟ ਅਤੋਲ ॥੨॥
                   
                    
                                              
                        जो रत्नों और माणिकों की तरह अमूल्य हैं। भगवान की स्तुति से भरे हुए दिव्य शब्दों के ये खजाने अक्षय और अथाह हैं,॥ २॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਖਾਵਹਿ ਖਰਚਹਿ ਰਲਿ ਮਿਲਿ ਭਾਈ ॥
                   
                    
                                              
                        हे भाई ! हम सभी मिलकर इन भण्डारों को सेवन और इस्तेमाल करते हैं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤੋਟਿ ਨ ਆਵੈ ਵਧਦੋ ਜਾਈ ॥੩॥
                   
                    
                                              
                        इस भण्डार में कोई कमी नहीं और प्रतिदिन वह अधिकाधिक बढ़ते जाते हैं॥ ३ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਾਇ ॥
                   
                    
                                              
                        हे नानक ! जिस व्यक्ति के मस्तक पर विधाता ने ऐसी भाग्य रेखाएँ विद्यमान की हैं,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸੁ ਏਤੁ ਖਜਾਨੈ ਲਇਆ ਰਲਾਇ ॥੪॥੩੧॥੧੦੦॥
                   
                    
                                              
                        वह इस (गुणस्तुति के) भण्डार में भागीदार बन जाता है ॥४॥ ३१॥१००॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
                   
                    
                                              
                        पांचवें गुरु द्वारा राग गौड़ी : ५ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਡਰਿ ਡਰਿ ਮਰਤੇ ਜਬ ਜਾਨੀਐ ਦੂਰਿ ॥
                   
                    
                                              
                        जब मैं प्रभु को दूर समझता था तो मैं डर-डर कर मरता रहता था।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਡਰੁ ਚੂਕਾ ਦੇਖਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        उस प्रभु को सर्वव्यापक देखकर मेरा भय दूर हो गया है॥ १॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸਤਿਗੁਰ ਅਪਨੇ ਕਉ ਬਲਿਹਾਰੈ ॥
                   
                    
                                              
                        में अपने सतगुरु पर बलिहारी जाता हूँ।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਛੋਡਿ ਨ ਜਾਈ ਸਰਪਰ ਤਾਰੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
                   
                    
                                              
                        मुझे छोड़कर वह कहीं नहीं जाता और निश्चित ही मुझे भवसागर से पार कर देगा ॥ १॥ रहाउ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਦੂਖੁ ਰੋਗੁ ਸੋਗੁ ਬਿਸਰੈ ਜਬ ਨਾਮੁ ॥
                   
                    
                                              
                        जब प्राणी ईश्वर के नाम को भुला देता है तो उसे दुःख, रोग एवं संताप लग जाते हैं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸਦਾ ਅਨੰਦੁ ਜਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਮੁ ॥੨॥
                   
                    
                                              
                        लेकिन जब वह प्रभु का यश गायन करता है, उसको सदैव सुख प्राप्त हो जाता है॥ ३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਬੁਰਾ ਭਲਾ ਕੋਈ ਨ ਕਹੀਜੈ ॥
                   
                    
                                              
                        हमें किसी को बूरा-भला नहीं कहना चाहिए
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਛੋਡਿ ਮਾਨੁ ਹਰਿ ਚਰਨ ਗਹੀਜੈ ॥੩॥
                   
                    
                                              
                        और अपना अहंकार त्याग कर भगवान के चरण पकड़ लेने चाहिए॥ ३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਮੰਤ੍ਰੁ ਚਿਤਾਰਿ ॥
                   
                    
                                              
                        गुरु नानक कहते हैं कि हे प्राणी ! गुरु के मंत्र (उपदेश) को स्मरण करो।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਸਾਚੈ ਦਰਬਾਰਿ ॥੪॥੩੨॥੧੦੧॥
                   
                    
                                              
                        सत्य के दरबार में बड़ा सुख प्राप्त होगा ॥ ४॥ ३२॥ १०१॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
                   
                    
                                              
                        राग गौड़ी, पांचवें गुरु द्वारा: ५ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕਾ ਮੀਤੁ ਸਾਜਨੁ ਹੈ ਸਮੀਆ ॥
                   
                    
                                              
                        हे भाई ! जिसका मित्र एवं सज्जन सर्वव्यापक प्रभु है।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਕਹੁ ਕਾ ਕੀ ਕਮੀਆ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        बताओ-उस पुरुष को किस पदार्थ की कमी हो सकती है॥ १॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿਉ ਲਾਗੀ ॥
                   
                    
                                              
                        जिसका प्रेम गोविन्द से हो जाता है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਦੂਖੁ ਦਰਦੁ ਭ੍ਰਮੁ ਤਾ ਕਾ ਭਾਗੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
                   
                    
                                              
                        उसके दुःख-दर्द एवं संशय नष्ट हो जाते हैं।॥ १ ॥ रहाउ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕਉ ਰਸੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਹੈ ਆਇਓ ॥
                   
                    
                                              
                        जिस व्यक्ति को हरि-रस का आनंद प्राप्त हो जाता है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸੋ ਅਨ ਰਸ ਨਾਹੀ ਲਪਟਾਇਓ ॥੨॥
                   
                    
                                              
                        वह हरि-रस के अतिरिक्त अन्य रसों से प्रभावित नहीं होता। ॥ २॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕਾ ਕਹਿਆ ਦਰਗਹ ਚਲੈ ॥
                   
                    
                                              
                        जिसकी बात भगवान् के दरबार में स्वीकार की जाती है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸੋ ਕਿਸ ਕਉ ਨਦਰਿ ਲੈ ਆਵੈ ਤਲੈ ॥੩॥
                   
                    
                                              
                        वह किसी अन्य के प्रति बाध्य नहीं है। ॥ ३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਾ ਕਾ ਹੋਇ ॥
                   
                    
                                              
                        जिस ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, जीव-जन्तु अथवा समूचा जगत् उसका है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਨਾਨਕ ਤਾ ਕਉ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੪॥੩੩॥੧੦੨॥
                   
                    
                                              
                        हे नानक ! जो मनुष्य उस ईश्वर का भक्त  बनता है, उसे सदैव सुख प्राप्त होता है ॥ ४॥ ३३ ॥ १०२ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
                   
                    
                                              
                        राग गौड़ी, पांचवें गुरु द्वारा: ५ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕੈ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਸਮ ਕਰਿ ਜਾਪੈ ॥
                   
                    
                                              
                        जिस व्यक्ति को दुःख एवं सुख एक समान प्रतीत होते हैं,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਾ ਕਉ ਕਾੜਾ ਕਹਾ ਬਿਆਪੈ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        उसे कोई चिन्ता कैसे हो सकती है ? ॥१॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸਹਜ ਅਨੰਦ ਹਰਿ ਸਾਧੂ ਮਾਹਿ ॥
                   
                    
                                              
                        जिस भगवान के साधू के मन में सहज आनंद उत्पन्न हो जाता है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਆਗਿਆਕਾਰੀ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
                   
                    
                                              
                        वह सदैव प्रभु-परमेश्वर का आज्ञाकारी बना रहता है॥ १ ॥ रहाउ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕੈ ਅਚਿੰਤੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥
                   
                    
                                              
                        जिस व्यक्ति के मन में भगवान का वास होता है वह सभी चिंताओं से मुक्त हो जाता है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਾ ਕਉ ਚਿੰਤਾ ਕਤਹੂੰ ਨਾਹਿ ॥੨॥
                   
                    
                                              
                        उसको चिन्ता कदापि नहीं लगती॥ २॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕੈ ਬਿਨਸਿਓ ਮਨ ਤੇ ਭਰਮਾ ॥
                   
                    
                                              
                        जिसके हृदय से भ्रम निवृत्त हो गया है,
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਾ ਕੈ ਕਛੂ ਨਾਹੀ ਡਰੁ ਜਮਾ ॥੩॥
                   
                    
                                              
                        उसको मृत्यु का लेशमात्र भी भय नहीं रहता ॥ ३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਦੀਓ ਗੁਰਿ ਨਾਮਾ ॥
                   
                    
                                              
                        जिसके हृदय में गुरदेव ने प्रभु-नाम प्रदान किया है।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੈ ਸਗਲ ਨਿਧਾਨਾ ॥੪॥੩੪॥੧੦੩॥
                   
                    
                                              
                        हे नानक ! वह समस्त निधियों का स्वामी बन जाता है ॥ ४॥ ३४॥ १०३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗਉੜੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
                   
                    
                                              
                        राग गौड़ी, पांचवें गुरु द्वारा: ५ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਅਗਮ ਰੂਪ ਕਾ ਮਨ ਮਹਿ ਥਾਨਾ ॥
                   
                    
                                              
                        अगम्य स्वरूप परमेश्वर का मनुष्य के मन में निवास है।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਕਿਨੈ ਵਿਰਲੈ ਜਾਨਾ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        गुरु की कृपा से कोई विरला पुरुष ही इस तथ्य को समझता है॥ १॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸਹਜ ਕਥਾ ਕੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਕੁੰਟਾ ॥
                   
                    
                                              
                        प्रभु की सहज कथा के अमृत-कुण्ड हैं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਜਿਸਹਿ ਪਰਾਪਤਿ ਤਿਸੁ ਲੈ ਭੁੰਚਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
                   
                    
                                              
                        जिसकी इनको प्राप्ति हो जाती है, वह अमृत पान करता रहता है। १॥ रहाउ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਅਨਹਤ ਬਾਣੀ ਥਾਨੁ ਨਿਰਾਲਾ ॥
                   
                    
                                              
                        बैकुण्ठ में एक अद्भुत स्थान है, जहाँ हर पल अनहद वाणी की मधुर ध्वनि गूंजती रहती है।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਾ ਕੀ ਧੁਨਿ ਮੋਹੇ ਗੋਪਾਲਾ ॥੨॥
                   
                    
                                              
                        इस मधुर ध्वनि को सुनकर गोपाल भी मुग्ध हो जाते हैं॥ २॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਤਹ ਸਹਜ ਅਖਾਰੇ ਅਨੇਕ ਅਨੰਤਾ ॥
                   
                    
                                              
                        वहाँ विभिन्न प्रकार के आनंददायक एवं अनन्त सुख के निवास स्थान हैं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੇ ਸੰਗੀ ਸੰਤਾ ॥੩॥
                   
                    
                                              
                        वहाँ पारब्रह्म प्रभु के साथी, साधु निवास करते हैं।॥ ३॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਹਰਖ ਅਨੰਤ ਸੋਗ ਨਹੀ ਬੀਆ ॥
                   
                    
                                              
                        वहाँ अनन्त हर्ष है और दुःख अथवा द्वैत भाव नहीं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਸੋ ਘਰੁ ਗੁਰਿ ਨਾਨਕ ਕਉ ਦੀਆ ॥੪॥੩੫॥੧੦੪॥
                   
                    
                                              
                        गुरु ने नानक को उस मनःस्थिति का आशीर्वाद दिया है। ॥ ४ ॥ ३५ ॥ १०४॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਗਉੜੀ ਮਃ ੫ ॥
                   
                    
                                              
                        राग गौड़ी, पांचवें गुरु द्वारा: ५ ॥
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਕਵਨ ਰੂਪੁ ਤੇਰਾ ਆਰਾਧਉ ॥
                   
                    
                                              
                        हे प्रभु ! आपके तो अनन्त रूप हैं। इसलिए आपका वह कौन-सा रूप है, जिसकी मैं आराधना करूं।
                                            
                    
                    
                
                                   
                    ਕਵਨ ਜੋਗ ਕਾਇਆ ਲੇ ਸਾਧਉ ॥੧॥
                   
                    
                                              
                        हे ईश्वर ! योग का वह कौन-सा साधन है जिससे मैं अपने तन को वश में करूँ॥ १॥