Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 170

Page 170

ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਮਿਲਿ ਸਤਿਗੁਰ ਮੀਠ ਰਸ ਗਾਨੇ ॥੨॥ सतगुरु से मिलकर मैंने हरि-नाम रूपी अमृत रस चख लिया है, जो गन्ने के रस के समान बड़ा मीठा है॥ २ ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਨਹੀ ਭੇਟਿਆ ਤੇ ਸਾਕਤ ਮੂੜ ਦਿਵਾਨੇ ॥ जो व्यक्ति सतगुरु से नहीं मिले, वह मूर्ख, दीवाने एवं शाक्त(अविश्वासी निंदक) हैं।
ਤਿਨ ਕੇ ਕਰਮਹੀਨ ਧੁਰਿ ਪਾਏ ਦੇਖਿ ਦੀਪਕੁ ਮੋਹਿ ਪਚਾਨੇ ॥੩॥ (लेकिन उनके भी क्या वश ?) उन भाग्यहीनों की किस्मत में प्रारम्भ से ही ऐसे नीचे कर्म लिखे हुए हैं। ये माया के मोह में फँसकर यूं जलते हैं जैसे पतंगा दीपक को देखकर जल जाता है।॥३॥
ਜਿਨ ਕਉ ਤੁਮ ਦਇਆ ਕਰਿ ਮੇਲਹੁ ਤੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੇਵ ਲਗਾਨੇ ॥ हे हरि-परमेश्वर! जिन्हें आप दया करके गुरु से मिला देते हो, वे आपकी सेवा-भक्ति में जुट जाते हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਪਿ ਪ੍ਰਗਟੇ ਮਤਿ ਗੁਰਮਤਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਨੇ ॥੪॥੪॥੧੮॥੫੬॥ हे नानक ! गुरु की शिक्षा का पालन करके, वे नाम के प्रति सजग रहते हैं और वे हमेशा भगवान् के नाम का ध्यान करने से प्रसिद्ध हो जाते हैं। ॥४॥४॥१८॥५६॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ राग गौड़ी पूरबी, चौथे गुरु: ४ ॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਨਾਲਿ ਹੈ ਸੁਆਮੀ ਕਹੁ ਕਿਥੈ ਹਰਿ ਪਹੁ ਨਸੀਐ ॥ हे मेरे मन ! वह स्वामी-प्रभु सदैव हमारे साथ रहता है। मुझे बताओ! परमेश्वर से भागकर हम कहाँ जा सकते हैं ?
ਹਰਿ ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਲਏ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਹਰਿ ਆਪਿ ਛਡਾਏ ਛੁਟੀਐ ॥੧॥ सत्यस्वरूप प्रभु-परमेश्वर स्वयं ही जीवों को क्षमा कर देता है। यदि प्रभु स्वयं मनुष्य को मुक्त करे तो ही वह विकारों से मुक्त होता है॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਮਨਿ ਜਪੀਐ ॥ हे मेरे मन ! सदैव प्रेमपूर्वक हृदय से हरि-परमेश्वर का हरि-नाम ही जपते रहना चाहिए।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸਰਣਾਈ ਭਜਿ ਪਉ ਮੇਰੇ ਮਨਾ ਗੁਰ ਸਤਿਗੁਰ ਪੀਛੈ ਛੁਟੀਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे मेरे मन ! भाग कर सतगुरु की शरण लो। सतगुरु का आश्रय लेने से मोह-माया के बंधनों से मुक्ति हो जाएगी॥ १॥ रहाउ॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੇਵਹੁ ਸੋ ਪ੍ਰਭ ਸ੍ਰਬ ਸੁਖਦਾਤਾ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਸੀਐ ॥ हे मेरे मन ! प्रेमपूर्वक भगवान् का ध्यान करो, जो शांति के दाता हैं। प्रेम और भक्ति के साथ उनका स्मरण करने से हम हृदय में उनकी उपस्थिति महसूस कर सकते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਇ ਲਹਹੁ ਘਰੁ ਅਪਨਾ ਘਸਿ ਚੰਦਨੁ ਹਰਿ ਜਸੁ ਘਸੀਐ ॥੨॥ गुरु के माध्यम से अपने आत्मस्वरूप रूपी घर में जाकर निवास करो और जैसे चन्दन को शिला पर घिसाया जाता है, वैसे ही हरि-यश को अपने मन पर घिसाओ॥ २॥|2|
ਮੇਰੇ ਮਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਊਤਮੁ ਲੈ ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਮਨਿ ਹਸੀਐ ॥ हे मेरे मन ! हरि-परमेश्वर का हरि-नाम जप। हरि-परमेश्वर का यश सर्वोत्तम है। हरि-परमेश्वर का नाम रूपी लाभ प्राप्त करके हृदय सुप्रसन्न होना चाहिए।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਦੇਵੈ ਤਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਖੀਐ ॥੩॥ यदि हरि-परमेश्वर स्वयं दया कर दे तो मनुष्य हरि-रस रूपी अमृत को चखता है॥ ३॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਜੋ ਦੂਜੈ ਲਾਗੇ ਤੇ ਸਾਕਤ ਨਰ ਜਮਿ ਘੁਟੀਐ ॥ हे मेरे मन ! नाम के बिना और द्वैत में आसक्त होकर, अविश्वासी निंदक ऐसे महान दुःख भोगते हैं, मानो मृत्यु के राक्षस ने उनका गला घोंट दिया हो।
ਤੇ ਸਾਕਤ ਚੋਰ ਜਿਨਾ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਮਨ ਤਿਨ ਕੈ ਨਿਕਟਿ ਨ ਭਿਟੀਐ ॥੪॥ हे मेरे मन ! जिन्होंने परमात्मा के नाम को भुला दिया है, उनके निकट नहीं आना चाहिए, क्योंकि वे तो शाक्त(अविश्वासी निंदक) एवं प्रभु के चोर हैं।॥ ४॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੇਵਹੁ ਅਲਖ ਨਿਰੰਜਨ ਨਰਹਰਿ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਲੇਖਾ ਛੁਟੀਐ ॥ हे मेरे मन ! उस अलख निरंजन नृसिंह भगवान् की सेवा-भक्ति करो, जिसकी सेवा-भक्ति करने से कर्मों का लेखा जोखा समाप्त हो जाता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭਿ ਪੂਰੇ ਕੀਏ ਖਿਨੁ ਮਾਸਾ ਤੋਲੁ ਨ ਘਟੀਐ ॥੫॥੫॥੧੯॥੫੭॥ हे नानक ! जिन्हें हरि-प्रभु ने तोल में पूर्ण कर दिया है, उनका फिर तोल एक माशा मात्र भी कम नहीं होता भाव जिनको ईश्वर ने धार्मिक जीवन प्रदान किया है, उनमें सद्गुणों की रत्ती भर भी कमी नहीं होती। ॥५॥५॥१९॥५७॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ राग गौड़ी पूरबी, चौथे गुरु: ४ ॥
ਹਮਰੇ ਪ੍ਰਾਨ ਵਸਗਤਿ ਪ੍ਰਭ ਤੁਮਰੈ ਮੇਰਾ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭ ਤੇਰੀ ॥ हे मेरे ईश्वर ! मेरे प्राण तेरे ही वश में हैं। मेरी आत्मा एवं शरीर सभी तेरे ही हैं।
ਦਇਆ ਕਰਹੁ ਹਰਿ ਦਰਸੁ ਦਿਖਾਵਹੁ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਲੋਚ ਘਣੇਰੀ ॥੧॥ हे प्रभु ! मुझ पर दया करके अपने दर्शन दीजिए, क्योंकि मेरे मन एवं तन में तेरे दर्शनों की तीव्र लालसा है॥ १॥
ਰਾਮ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਲੋਚ ਮਿਲਣ ਹਰਿ ਕੇਰੀ ॥ हे मेरे राम ! मेरे मन एवं तन में प्रभु-मिलन की तीव्र लालसा है।
ਗੁਰ ਕ੍ਰਿਪਾਲਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਿੰਚਤ ਗੁਰਿ ਕੀਨੀ ਹਰਿ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे प्राणी ! जब कृपा के घर गुरु ने मुझ पर थोड़ी-सी कृपा की, तो मेरा प्रभु-परमेश्वर मेरे भीतर ही मुझे मिल गया।॥ १ ॥ रहाउ ॥
ਜੋ ਹਮਰੈ ਮਨ ਚਿਤਿ ਹੈ ਸੁਆਮੀ ਸਾ ਬਿਧਿ ਤੁਮ ਹਰਿ ਜਾਨਹੁ ਮੇਰੀ ॥ हे प्रभु-परमेश्वर ! जो कुछ भी मेरे मन एवं चित्त में है, मेरी उस अवस्था को तुम जानते हो।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਜਪੀ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ਨਿਤ ਜੀਵਾ ਆਸ ਹਰਿ ਤੇਰੀ ॥੨॥ हे प्रभु ! रात-दिन मैं तेरे नाम का जाप करता और सुख पाता हूँ। मैं सदा ही तेरी आशा में जीता हूँ॥ २॥
ਗੁਰਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਾਤੈ ਪੰਥੁ ਬਤਾਇਆ ਹਰਿ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰੀ ॥ जब दाता सतगुरु ने मुझे सन्मार्ग दिखाया तो हरि-प्रभु आकर मुझसे प्रत्यक्ष आ मिला।
ਅਨਦਿਨੁ ਅਨਦੁ ਭਇਆ ਵਡਭਾਗੀ ਸਭ ਆਸ ਪੁਜੀ ਜਨ ਕੇਰੀ ॥੩॥ सौभाग्य से मेरे हृदय में रात-दिन आनंद बना रहता है। प्रभु ने मुझ सेवक की सब अभिलाषाएं पूरी कर दी है॥ ३॥
ਜਗੰਨਾਥ ਜਗਦੀਸੁਰ ਕਰਤੇ ਸਭ ਵਸਗਤਿ ਹੈ ਹਰਿ ਕੇਰੀ ॥ हे जगन्नाथ ! हे जगदीश्वर ! हे कर्ता-प्रभु ! सारी जगत् क्रीड़ा आपके वश में है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਰਣਾਗਤਿ ਆਏ ਹਰਿ ਰਾਖਹੁ ਪੈਜ ਜਨ ਕੇਰੀ ॥੪॥੬॥੨੦॥੫੮॥ हे प्रभु ! नानक आपकी शरणा आया है, अपने सेवक की लाज-प्रतिष्ठा रखो ॥४॥६॥२०॥५८॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ राग गौड़ी पूरबी, चौथे गुरु: ४ ॥
ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਖਿਨੁ ਨ ਟਿਕੈ ਬਹੁ ਰੰਗੀ ਦਹ ਦਹ ਦਿਸਿ ਚਲਿ ਚਲਿ ਹਾਢੇ ॥ यह मन सभी प्रकार के सांसारिक आकर्षणों में लिप्त होकर एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहता, तथा सभी दिशाओं में निरुद्देश्य ही घूमता रहता है।


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