Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 158

Page 158

ਮਨਿ ਨਿਰਮਲਿ ਵਸੈ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥ इस तरह मन निर्मल हो जाता है और उसे सत्यस्वरूप परमेश्वर का अनुभव होता है।
ਸਾਚਿ ਵਸਿਐ ਸਾਚੀ ਸਭ ਕਾਰ ॥ यदि मनुष्य सत्य में निवास कर ले तो उसके कर्म सच्चे (श्रेष्ठ) हो जाते हैं।
ਊਤਮ ਕਰਣੀ ਸਬਦ ਬੀਚਾਰ ॥੩॥ तब उसे एहसास होता है कि ईश्वर का नाम-सिमरन ही शुभ कर्म है ॥३॥
ਗੁਰ ਤੇ ਸਾਚੀ ਸੇਵਾ ਹੋਇ ॥ गुरु के द्वारा सत्यस्वरूप प्रभु की सेवा-भक्ति की जाती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਛਾਣੈ ਕੋਇ ॥ गुरु की दया से कोई विरला पुरुष ही हरिनाम को पहचानता है।
ਜੀਵੈ ਦਾਤਾ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥ उनका दृढ़ विश्वास है कि समस्त जीवों को देने वाला दाता सदैव ही जीवित रहता है।
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਨਾਮੇ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥੪॥੧॥੨੧॥ हे नानक ! मनुष्य को हरि-नाम से ही प्रेम हो जाता है॥ ४ ॥ १ ॥ २१ ॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गौडी ग्वरायरी, तृतीय गुरु: ३ ॥
ਗੁਰ ਤੇ ਗਿਆਨੁ ਪਾਏ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥ कोई विरला पुरुष ही गुरु से दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है।
ਗੁਰ ਤੇ ਬੂਝੈ ਸੀਝੈ ਸੋਇ ॥ जो व्यक्ति गुरु से ईश्वर बारे ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसका आध्यात्मिक जीवन सफल हो जाता है।
ਗੁਰ ਤੇ ਸਹਜੁ ਸਾਚੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥ गुरु से ही सत्यस्वरूप परमात्मा का नाम-स्मरण प्राप्त होता है।
ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਏ ਮੁਕਤਿ ਦੁਆਰੁ ॥੧॥ गुरु द्वारा ही मोक्ष का द्वार अर्थात् विकारों से बचने का उपाय पाया जाता है। १॥
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਮਿਲੈ ਗੁਰੁ ਆਇ ॥ पूर्ण सौभाग्य से ही जीव गुरु से मिलता है।
ਸਾਚੈ ਸਹਜਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ वह परमात्मा का सिमरन करके सहज ही सत्य में समा जाता है।॥ १॥ रहाउ ॥
ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਗਨਿ ਬੁਝਾਏ ॥ गुरु को मिलने से तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है।
ਗੁਰ ਤੇ ਸਾਂਤਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਏ ॥ गुरु के द्वारा सुख-शांति आकर मन में निवास करती है।
ਗੁਰ ਤੇ ਪਵਿਤ ਪਾਵਨ ਸੁਚਿ ਹੋਇ ॥ गुरु के द्वारा मनुष्य पवित्र पावन एवं निर्मल हो जाता है।
ਗੁਰ ਤੇ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥੨॥ गुरु के वचन द्वारा ही प्रभु से मिलन होता है। २॥
ਬਾਝੁ ਗੁਰੂ ਸਭ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਈ ॥ गुरु के बिना सारी दुनिया भ्रम में भटकती रहती है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਬਹੁਤਾ ਦੁਖੁ ਪਾਈ ॥ नाम के बिना प्राणी बहुत कष्ट सहन करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ॥ जो प्राणी गुरमुख बन जाता है, वहीं व्यक्ति ईश्वर के नाम का ध्यान करता है।
ਦਰਸਨਿ ਸਚੈ ਸਚੀ ਪਤਿ ਹੋਈ ॥੩॥ शाश्वत ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करने से मनुष्य को सच्ची शोभा प्राप्त होती है॥ ३॥
ਕਿਸ ਨੋ ਕਹੀਐ ਦਾਤਾ ਇਕੁ ਸੋਈ ॥ केवल एक वही दाता है, दूसरा किसी का क्यों जिक्र किया जाए ?
ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਈ ॥ जिस व्यक्ति पर प्रभु कृपा कर देता है, वह गुरु के वचन के माध्यम से उसके साथ जुड़ जाता है।
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸਾਚੇ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ॥ मैं अपने प्रियतम गुरु से मिलकर सत्यस्वरूप परमात्मा की गुणस्तुति करता रहता हूँ।
ਨਾਨਕ ਸਾਚੇ ਸਾਚਿ ਸਮਾਵਾ ॥੪॥੨॥੨੨॥ हे नानक ! मैं सच्चे गुरु की कृपा से सत्यस्वरूप परमात्मा में समाया रहता हूँ॥ ४॥ २॥ २२॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गौड़ी ग्वरायरी, तृतीय गुरु: ३
ਸੁ ਥਾਉ ਸਚੁ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥ वह (सत्संग का) स्थान वास्तव में सत्य का पावन स्थल है, जहाँ मन निर्मल हो जाता है।
ਸਚਿ ਨਿਵਾਸੁ ਕਰੇ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥ वह निवास भी सत्य है, जहाँ सत्यस्वरूप परमात्मा निवास करता है।
ਸਚੀ ਬਾਣੀ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਜਾਪੈ ॥ सच्ची वाणी चारों ही युगों में प्रसिद्ध है।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਸਾਚਾ ਆਪੇ ਆਪੈ ॥੧॥ सत्य स्वरूप परमात्मा स्वयं ही सब कुछ है॥ १॥
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਸਤਸੰਗਿ ਮਿਲਾਏ ॥ यदि परमात्मा की कृपा हो जाए तो मनुष्य को संतों की संगति मिल जाती है।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਬੈਸਿ ਸੁ ਥਾਏ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ फिर वह उस श्रेष्ठ स्थान पर विराजमान होकर भगवान् की महिमा-स्तुति करता रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਜਲਉ ਇਹ ਜਿਹਵਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥ यह जिह्वा जल जाए, जो दूसरे स्वादों में लगी रहती है अर्थात् दूसरों की प्रीति की चाहवान है।
ਹਰਿ ਰਸੁ ਨ ਚਾਖੈ ਫੀਕਾ ਆਲਾਇ ॥ यह हरि-रस का आस्वादन नहीं करती और निरस वचन बोलती रहती है।
ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਤਨੁ ਮਨੁ ਫੀਕਾ ਹੋਇ ॥ ईश्वर को समझे बिना तन एवं मन फीके हो जाते हैं।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਦੁਖੀਆ ਚਲਿਆ ਰੋਇ ॥੨॥ स्वामी के नाम के बिना दुःखी होकर मनुष्य विलाप करता हुआ दुनिया से चला जाता है। २॥
ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥ जिनकी जिह्वा सहज ही हरि-रस का पान करती है,
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥ वह गुरु की कृपा से सत्य में ही समा जाती है।
ਸਾਚੇ ਰਾਤੀ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰ ॥ वह गुरु के शब्द का चिंतन करती रहती है और सत्य में ही मग्न रहती है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵੈ ਨਿਰਮਲ ਧਾਰ ॥੩॥ फिर वह अमृत रस की निर्मल धारा का पान करती रहती है ॥३॥
ਨਾਮਿ ਸਮਾਵੈ ਜੋ ਭਾਡਾ ਹੋਇ ॥ भगवान् का नाम उस व्यक्ति के हृदय रूपी पात्र में तभी समाता है, यदि वह शुद्ध हो तथा
ਊਂਧੈ ਭਾਂਡੈ ਟਿਕੈ ਨ ਕੋਇ ॥ जो हृदय ईश्वर से विमुख हो गया है, उसमें कोई भी सद्गुण प्रवेश नहीं कर सकता।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਮਨਿ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥ गुरु के शब्द द्वारा मन में भगवान् के नाम का निवास हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਭਾਂਡਾ ਜਿਸੁ ਸਬਦ ਪਿਆਸ ॥੪॥੩॥੨੩॥ हे नानक ! जिस व्यक्ति के हृदय में प्रभु-नाम को पान करने की तीव्र लालसा होती है, उसका ही हृदय-रूपी पात्र शुद्ध होता है॥ ४ ॥ ३ ॥ २३ ॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥ राग गौड़ी ग्वरायरी, तृतीय गुरु: ३ ॥
ਇਕਿ ਗਾਵਤ ਰਹੇ ਮਨਿ ਸਾਦੁ ਨ ਪਾਇ ॥ कई व्यक्ति प्रभु-यश गाते रहते हैं परन्तु उनके हृदय को आनंद नहीं आता।
ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਗਾਵਹਿ ਬਿਰਥਾ ਜਾਇ ॥ जो व्यक्ति अहंकार में गाते हैं उनका सब कुछ व्यर्थ ही जाता है। अर्थात् उन्हें उसका कोई फल नहीं मिलता।
ਗਾਵਣਿ ਗਾਵਹਿ ਜਿਨ ਨਾਮ ਪਿਆਰੁ ॥ जो व्यक्ति ईश्वर के नाम से प्रेम करते हैं, वही प्रभु के गीत गाते हैं।
ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਸਬਦ ਬੀਚਾਰੁ ॥੧॥ वह सच्ची वाणी एवं शब्द का चिंतन करते हैं॥ १॥
ਗਾਵਤ ਰਹੈ ਜੇ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਵੈ ॥ यदि सतगुरु को अच्छा लगे तो मनुष्य प्रभु का यशोगान करता रहता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਾਤਾ ਨਾਮਿ ਸੁਹਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ उसका मन एवं तन नाम में मग्न हो जाता है और नाम से उसका जीवन सुशोभित हो जाता है॥ १॥ रहाउ॥
ਇਕਿ ਗਾਵਹਿ ਇਕਿ ਭਗਤਿ ਕਰੇਹਿ ॥ कई प्राणी प्रभु के गुणों के गीत गाते हैं और कई भक्ति करते हैं।
ਨਾਮੁ ਨ ਪਾਵਹਿ ਬਿਨੁ ਅਸਨੇਹ ॥ परन्तु मन में प्रेम न होने के कारण उन्हें नाम प्राप्त नहीं होता।
ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਗੁਰ ਸਬਦ ਪਿਆਰਿ ॥ जो व्यक्ति गुरु के शब्द से प्रेम करता है उसकी ही भक्ति सच्ची है।
ਅਪਨਾ ਪਿਰੁ ਰਾਖਿਆ ਸਦਾ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥੨॥ ऐसा व्यक्ति सदैव ही अपने प्रियतम प्रभु को अपने हृदय में बसाकर रखता है॥ २॥


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