Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1253

Page 1253

ਏਕ ਸਮੈ ਮੋ ਕਉ ਗਹਿ ਬਾਂਧੈ ਤਉ ਫੁਨਿ ਮੋ ਪੈ ਜਬਾਬੁ ਨ ਹੋਇ ॥੧॥ एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥१॥ एक समय यदि भक्त मुझे प्रेम-भक्ति में बाँध ले तो मैं पुनः जवाब नहीं दे सकता॥१॥
ਮੈ ਗੁਨ ਬੰਧ ਸਗਲ ਕੀ ਜੀਵਨਿ ਮੇਰੀ ਜੀਵਨਿ ਮੇਰੇ ਦਾਸ ॥ मै गुन बंध सगल की जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ॥ मैं गुणों का खिंचा हुआ सबका जीवन हूँ, पर मेरे भक्त ही मेरा जीवन हैं।
ਨਾਮਦੇਵ ਜਾ ਕੇ ਜੀਅ ਐਸੀ ਤੈਸੋ ਤਾ ਕੈ ਪ੍ਰੇਮ ਪ੍ਰਗਾਸ ॥੨॥੩॥ नामदेव जा के जीअ ऐसी तैसो ता कै प्रेम प्रगास ॥२॥३॥ नामदेव जी कहते हैं कि जिसके दिल में यह बात जितनी घर करती है, उतना ही प्रेम प्रकाश होता है॥२॥३॥
ਸਾਰੰਗ ॥ सारंग ॥ सारंग ॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਤੈ ਨਰ ਕਿਆ ਪੁਰਾਨੁ ਸੁਨਿ ਕੀਨਾ ॥ तै नर किआ पुरानु सुनि कीना ॥ हे नर ! पुराणों की कथा-कहानियाँ सुन कर भी तूने क्या कर लिया है।
ਅਨਪਾਵਨੀ ਭਗਤਿ ਨਹੀ ਉਪਜੀ ਭੂਖੈ ਦਾਨੁ ਨ ਦੀਨਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ अनपावनी भगति नही उपजी भूखै दानु न दीना ॥१॥ रहाउ ॥ न मन में भक्तिभावना उत्पन्न हुई और न ही किसी भूखे को भोजन करवाया॥१॥रहाउ॥
ਕਾਮੁ ਨ ਬਿਸਰਿਓ ਕ੍ਰੋਧੁ ਨ ਬਿਸਰਿਓ ਲੋਭੁ ਨ ਛੂਟਿਓ ਦੇਵਾ ॥ कामु न बिसरिओ क्रोधु न बिसरिओ लोभु न छूटिओ देवा ॥ कामनाओं को भूल नहीं पाए, क्रोध तुम्हारा समाप्त नहीं हुआ, न ही तेरा लोभ छूटा।
ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਮੁਖ ਤੇ ਨਹੀ ਛੂਟੀ ਨਿਫਲ ਭਈ ਸਭ ਸੇਵਾ ॥੧॥ पर निंदा मुख ते नही छूटी निफल भई सभ सेवा ॥१॥ पराई निंदा मुख से छूट न सकी, इस प्रकार तेरी सारी सेवा निष्फल हो गई।॥१॥
ਬਾਟ ਪਾਰਿ ਘਰੁ ਮੂਸਿ ਬਿਰਾਨੋ ਪੇਟੁ ਭਰੈ ਅਪ੍ਰਾਧੀ ॥ बाट पारि घरु मूसि बिरानो पेटु भरै अप्राधी ॥ रास्ते में लूटमार, लोगों के घर से चोरी करके पेट भरते रहे, पता नहीं कितने अपराध किए।
ਜਿਹਿ ਪਰਲੋਕ ਜਾਇ ਅਪਕੀਰਤਿ ਸੋਈ ਅਬਿਦਿਆ ਸਾਧੀ ॥੨॥ जिहि परलोक जाइ अपकीरति सोई अबिदिआ साधी ॥२॥ जिससे परलोक में जाकर अपकीर्ति प्राप्त होती है, वही झूठा कार्य किया है॥२॥
ਹਿੰਸਾ ਤਉ ਮਨ ਤੇ ਨਹੀ ਛੂਟੀ ਜੀਅ ਦਇਆ ਨਹੀ ਪਾਲੀ ॥ हिंसा तउ मन ते नही छूटी जीअ दइआ नही पाली ॥ हिंसा तेरे मन से छूट न सकी और न ही जीवों पर दया करने की भावना पैदा हुई।
ਪਰਮਾਨੰਦ ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਕਥਾ ਪੁਨੀਤ ਨ ਚਾਲੀ ॥੩॥੧॥੬॥ परमानंद साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ॥३॥१॥६॥ परमानंद जी कहते हैं कि साधु-सज्जनों की संगत में मिलकर कभी पावन कथा नहीं सुनी॥३॥१॥६॥
ਛਾਡਿ ਮਨ ਹਰਿ ਬਿਮੁਖਨ ਕੋ ਸੰਗੁ ॥ छाडि मन हरि बिमुखन को संगु ॥ हे मन ! परमात्मा से विमुख लोगों का साथ छोड़ दो। {उक्त पंक्ति भक्त सूरदास जी की है, लेकिन आगे की पंक्तियों में मतभेद को कारण एक ही पंक्ति रहने दी और गुरु अर्जुन देव जी ने पूर्ण पद लिख दिया|}
ਸਾਰੰਗ ਮਹਲਾ ੫ ਸੂਰਦਾਸ ॥ सारंग महला ५ सूरदास ॥ सारंग महला ५ सूरदास ॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਹਰਿ ਕੇ ਸੰਗ ਬਸੇ ਹਰਿ ਲੋਕ ॥ हरि के संग बसे हरि लोक ॥ ईश्वर के उपासक ईशोपासना में लीन रहते हैं।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਅਰਪਿ ਸਰਬਸੁ ਸਭੁ ਅਰਪਿਓ ਅਨਦ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਝੋਕ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक ॥१॥ रहाउ ॥ वे तन-मन इत्यादि सर्वस्व अर्पण करके आनंदपूर्वक खुशी मनाते हैं।॥१॥रहाउ॥
ਦਰਸਨੁ ਪੇਖਿ ਭਏ ਨਿਰਬਿਖਈ ਪਾਏ ਹੈ ਸਗਲੇ ਥੋਕ ॥ दरसनु पेखि भए निरबिखई पाए है सगले थोक ॥ वे दर्शन करके वासनाओं से रहित हो जाते हैं और उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
ਆਨ ਬਸਤੁ ਸਿਉ ਕਾਜੁ ਨ ਕਛੂਐ ਸੁੰਦਰ ਬਦਨ ਅਲੋਕ ॥੧॥ आन बसतु सिउ काजु न कछूऐ सुंदर बदन अलोक ॥१॥ प्रभु का सुन्दर मुखड़ा देखकर उनकी अन्य वस्तुओं से कोई चाह नहीं होती॥१॥
ਸਿਆਮ ਸੁੰਦਰ ਤਜਿ ਆਨ ਜੁ ਚਾਹਤ ਜਿਉ ਕੁਸਟੀ ਤਨਿ ਜੋਕ ॥ सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत जिउ कुसटी तनि जोक ॥ श्याम सुन्दर ईश्वर को त्यागकर किसी अन्य की चाहत तो कुष्ठी के तन में जोक की तरह है।
ਸੂਰਦਾਸ ਮਨੁ ਪ੍ਰਭਿ ਹਥਿ ਲੀਨੋ ਦੀਨੋ ਇਹੁ ਪਰਲੋਕ ॥੨॥੧॥੮॥ सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ॥२॥१॥८॥ पाँचवें नानक सूरदास के हवाले से कथन करते हैं- हे सूरदास ! प्रभु ने मन को हाथ में लेकर वैकुण्ठ का सुख फल में दे दिया है॥२॥१॥८॥
ਸਾਰੰਗ ਕਬੀਰ ਜੀਉ ॥ सारंग कबीर जीउ ॥ सारंग कबीर जीउ ॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਕਉਨੁ ਸਹਾਈ ਮਨ ਕਾ ॥ हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥ भगवान के बिना मन की सहायता कौन करने वाला है।
ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਭਾਈ ਸੁਤ ਬਨਿਤਾ ਹਿਤੁ ਲਾਗੋ ਸਭ ਫਨ ਕਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ ॥ क्योंकि माता-पिता, भाई, पुत्र एवं पत्नी से लगाया प्रेम झूठा है॥१॥रहाउ॥
ਆਗੇ ਕਉ ਕਿਛੁ ਤੁਲਹਾ ਬਾਂਧਹੁ ਕਿਆ ਭਰਵਾਸਾ ਧਨ ਕਾ ॥ आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥ आगे पार उतरने के लिए बेड़ा तैयार कर लो, इस धन का क्या भरोसा है।
ਕਹਾ ਬਿਸਾਸਾ ਇਸ ਭਾਂਡੇ ਕਾ ਇਤਨਕੁ ਲਾਗੈ ਠਨਕਾ ॥੧॥ कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥ इस शरीर रूपी बर्तन का भी कोई विश्वास नहीं, जरा-सी ठोकर लगते ही यह टूट जाता है।॥१॥
ਸਗਲ ਧਰਮ ਪੁੰਨ ਫਲ ਪਾਵਹੁ ਧੂਰਿ ਬਾਂਛਹੁ ਸਭ ਜਨ ਕਾ ॥ सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥ सब धर्मों एवं पुण्य के फल में भक्तजनों की चरणरज ही पाना चाहता हूँ।
ਕਹੈ ਕਬੀਰੁ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਸੰਤਹੁ ਇਹੁ ਮਨੁ ਉਡਨ ਪੰਖੇਰੂ ਬਨ ਕਾ ॥੨॥੧॥੯॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥ कबीर जी कहते हैं कि हे सज्जनो ! मेरी बात सुनो, यह मन वन में उड़ने वाला पक्षी है (पता नहीं कब, कहां उड़ जाएगा)॥२॥१॥६॥


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