Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 1189

Page 1189

ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਾਤਾ ਜਨੁ ਪਰਵਾਣੁ ॥੭॥ हरि रसि राता जनु परवाणु ॥७॥ जो व्यक्ति ईश्वर की भक्ति में लीन रहता है, वही सफल होता है॥७॥
ਇਤ ਉਤ ਦੇਖਉ ਸਹਜੇ ਰਾਵਉ ॥ इत उत देखउ सहजे रावउ ॥ हे मालिक ! इधर-उधर तुझे ही देखता हूँ और सहज स्वभाव तेरी भक्ति में लीन हूँ।
ਤੁਝ ਬਿਨੁ ਠਾਕੁਰ ਕਿਸੈ ਨ ਭਾਵਉ ॥ तुझ बिनु ठाकुर किसै न भावउ ॥ तेरे सिवा किसी को नहीं चाहता।
ਨਾਨਕ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇਆ ॥ नानक हउमै सबदि जलाइआ ॥ गुरु नानक का फुरमान है कि जब जीव ने गुरु के शब्द द्वारा अहम् को जलाया तो
ਸਤਿਗੁਰਿ ਸਾਚਾ ਦਰਸੁ ਦਿਖਾਇਆ ॥੮॥੩॥ सतिगुरि साचा दरसु दिखाइआ ॥८॥३॥ सच्चे गुरु ने उसे ईश्वर के दर्शन करा दिए॥८॥३॥
ਬਸੰਤੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ बसंतु महला १ ॥ बसंतु महला १॥
ਚੰਚਲੁ ਚੀਤੁ ਨ ਪਾਵੈ ਪਾਰਾ ॥ चंचलु चीतु न पावै पारा ॥ चंचल मन संसार-सागर से पार नहीं उतरता और
ਆਵਤ ਜਾਤ ਨ ਲਾਗੈ ਬਾਰਾ ॥ आवत जात न लागै बारा ॥ पुनः पुनः संसार में आता जाता है।
ਦੂਖੁ ਘਣੋ ਮਰੀਐ ਕਰਤਾਰਾ ॥ दूखु घणो मरीऐ करतारा ॥ हे ईश्वर ! इस कारण बहुत दुख भोगने पड़ते हैं और
ਬਿਨੁ ਪ੍ਰੀਤਮ ਕੋ ਕਰੈ ਨ ਸਾਰਾ ॥੧॥ बिनु प्रीतम को करै न सारा ॥१॥ तेरे बिना हमारी कोई संभाल नहीं करता॥१॥
ਸਭ ਊਤਮ ਕਿਸੁ ਆਖਉ ਹੀਨਾ ॥ सभ ऊतम किसु आखउ हीना ॥ जब सभी लोग अच्छे हैं तो फिर भला किसको बुरा कह सकता हूँ।
ਹਰਿ ਭਗਤੀ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਪਤੀਨਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हरि भगती सचि नामि पतीना ॥१॥ रहाउ ॥ जो परमात्मा की भक्ति करता है, सच्चे नाम के संकीर्तन में लीन रहता है, उसी का मन संतुष्ट होता है।॥१॥रहाउ॥।
ਅਉਖਧ ਕਰਿ ਥਾਕੀ ਬਹੁਤੇਰੇ ॥ अउखध करि थाकी बहुतेरे ॥ बहुत सारी दवाइयों का इस्तेमाल कर थक गई हूँ,
ਕਿਉ ਦੁਖੁ ਚੂਕੈ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੇਰੇ ॥ किउ दुखु चूकै बिनु गुर मेरे ॥ लेकिन गुरु के बिना क्योंकर मेरा दुखों से छुटकारा हो सकता है।
ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਭਗਤੀ ਦੂਖ ਘਣੇਰੇ ॥ बिनु हरि भगती दूख घणेरे ॥ परमात्मा की भक्ति के बिना बहुत दुख सहने पड़ते हैं लेकिन
ਦੁਖ ਸੁਖ ਦਾਤੇ ਠਾਕੁਰ ਮੇਰੇ ॥੨॥ दुख सुख दाते ठाकुर मेरे ॥२॥ यह दुख सुख भी देने वाला मेरा मालिक ही है॥२॥
ਰੋਗੁ ਵਡੋ ਕਿਉ ਬਾਂਧਉ ਧੀਰਾ ॥ रोगु वडो किउ बांधउ धीरा ॥ मेरा रोग बहुत बड़ा है, फिर भला मुझे क्योंकर हौसला हो सकता है।
ਰੋਗੁ ਬੁਝੈ ਸੋ ਕਾਟੈ ਪੀਰਾ ॥ रोगु बुझै सो काटै पीरा ॥ ईश्वर मेरा रोग जानता है, वही मेरी पीड़ा काट सकता है।
ਮੈ ਅਵਗਣ ਮਨ ਮਾਹਿ ਸਰੀਰਾ ॥ मै अवगण मन माहि सरीरा ॥ मेरे मन में अवगुण ही मौजूद हैं,
ਢੂਢਤ ਖੋਜਤ ਗੁਰਿ ਮੇਲੇ ਬੀਰਾ ॥੩॥ ढूढत खोजत गुरि मेले बीरा ॥३॥ खोज तलाश करते हुए गुरु से संपर्क होगा तो वह अवगुण दूर कर देगा॥३॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਦਾਰੂ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥ गुर का सबदु दारू हरि नाउ ॥ इस रोग की दवा गुरु का शब्द हरिनाम है।
ਜਿਉ ਤੂ ਰਾਖਹਿ ਤਿਵੈ ਰਹਾਉ ॥ जिउ तू राखहि तिवै रहाउ ॥ हे प्रभु ! जैसे तू रखता है, वैसे ही हमने रहना है।
ਜਗੁ ਰੋਗੀ ਕਹ ਦੇਖਿ ਦਿਖਾਉ ॥ जगु रोगी कह देखि दिखाउ ॥ जब पूरा जगत ही रोगी है, तो फिर भला किसको अपना रोग दिखाऊँ।
ਹਰਿ ਨਿਰਮਾਇਲੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਉ ॥੪॥ हरि निरमाइलु निरमलु नाउ ॥४॥ केवल ईश्वर ही पवित्र पावन है, उसका नाम भी पावन है॥४॥
ਘਰ ਮਹਿ ਘਰੁ ਜੋ ਦੇਖਿ ਦਿਖਾਵੈ ॥ घर महि घरु जो देखि दिखावै ॥ जो हृदय घर में भगवान के दर्शन पाकर अन्य जिज्ञासुओं को दर्शन करवाता है,
ਗੁਰ ਮਹਲੀ ਸੋ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਵੈ ॥ गुर महली सो महलि बुलावै ॥ वह गुरु भगवान के घर में बुलाता है।
ਮਨ ਮਹਿ ਮਨੂਆ ਚਿਤ ਮਹਿ ਚੀਤਾ ॥ मन महि मनूआ चित महि चीता ॥ उनका मन स्थिरचित हो जाता है,
ਐਸੇ ਹਰਿ ਕੇ ਲੋਗ ਅਤੀਤਾ ॥੫॥ ऐसे हरि के लोग अतीता ॥५॥ ऐसे ईश्वर के उपासक मोह-माया से अलिप्त रहते हैं।॥५॥
ਹਰਖ ਸੋਗ ਤੇ ਰਹਹਿ ਨਿਰਾਸਾ ॥ हरख सोग ते रहहि निरासा ॥ वे खुशी एवं गम से निर्लिप्त रहते हैं और
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚਾਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸਾ ॥ अम्रितु चाखि हरि नामि निवासा ॥ ईश्वर के नामामृत को चखकर उसी में लीन रहते हैं।
ਆਪੁ ਪਛਾਣਿ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਗਾ ॥ आपु पछाणि रहै लिव लागा ॥ जो आत्म-ज्ञान पा कर ईश्वर की लगन में लगे रहते हैं,
ਜਨਮੁ ਜੀਤਿ ਗੁਰਮਤਿ ਦੁਖੁ ਭਾਗਾ ॥੬॥ जनमु जीति गुरमति दुखु भागा ॥६॥ वे अपना जीवन जीत लेते हैं और गुरु के मतानुसार इनके दुख भी समाप्त हो जाते हैं।॥६॥
ਗੁਰਿ ਦੀਆ ਸਚੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਉ ॥ गुरि दीआ सचु अम्रितु पीवउ ॥ गुरु का प्रदान किया हुआ ईशोपासना रूपी सच्चा अमृतपान करो,
ਸਹਜਿ ਮਰਉ ਜੀਵਤ ਹੀ ਜੀਵਉ ॥ सहजि मरउ जीवत ही जीवउ ॥ इस तरह सहज स्वाभाविक विषय-विकारों की ओर से मरकर जीते रहो।
ਅਪਣੋ ਕਰਿ ਰਾਖਹੁ ਗੁਰ ਭਾਵੈ ॥ अपणो करि राखहु गुर भावै ॥ अगर गुरु को उपयुक्त लगे तो अपना बनाकर रखेगा।
ਤੁਮਰੋ ਹੋਇ ਸੁ ਤੁਝਹਿ ਸਮਾਵੈ ॥੭॥ तुमरो होइ सु तुझहि समावै ॥७॥ जो तुम्हारा (भक्त) होता है, वह तुझ में ही विलीन होता है।॥७॥
ਭੋਗੀ ਕਉ ਦੁਖੁ ਰੋਗ ਵਿਆਪੈ ॥ भोगी कउ दुखु रोग विआपै ॥ भोगी व्यक्ति को दुख-रोग सताते रहते हैं,"
ਘਟਿ ਘਟਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਪੈ ॥ घटि घटि रवि रहिआ प्रभु जापै ॥ पर जो प्रभु की अर्चना करता है, उसे सब में प्रभु ही दृष्टिगत होता है।
ਸੁਖ ਦੁਖ ਹੀ ਤੇ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਅਤੀਤਾ ॥ सुख दुख ही ते गुर सबदि अतीता ॥ गुरु के वचनों से वह संसार के सुखों एवं दुखों से अलिप्त रहता है।
ਨਾਨਕ ਰਾਮੁ ਰਵੈ ਹਿਤ ਚੀਤਾ ॥੮॥੪॥ नानक रामु रवै हित चीता ॥८॥४॥ गुरु नानक फुरमान करते हैं कि वह प्रेमपूर्वक दत्तचित होकर ईश्वर की उपासना में रत रहता है।॥८॥४॥
ਬਸੰਤੁ ਮਹਲਾ ੧ ਇਕ ਤੁਕੀਆ ॥ बसंतु महला १ इक तुकीआ ॥ बसंतु महला १ इक तुकीआ॥
ਮਤੁ ਭਸਮ ਅੰ ਧੂਲੇ ਗਰਬਿ ਜਾਹਿ ॥ मतु भसम अंधूले गरबि जाहि ॥ अरे मूर्ख ! शरीर पर भस्म लगाकर अभिमान नहीं करना चाहिए,
ਇਨ ਬਿਧਿ ਨਾਗੇ ਜੋਗੁ ਨਾਹਿ ॥੧॥ इन बिधि नागे जोगु नाहि ॥१॥ क्योंकि नागा बनकर इस विधि से योग नहीं होता॥१॥
ਮੂੜ੍ਹ੍ਹੇ ਕਾਹੇ ਬਿਸਾਰਿਓ ਤੈ ਰਾਮ ਨਾਮ ॥ मूड़्हे काहे बिसारिओ तै राम नाम ॥ ओह मूर्ख ! तूने ईश्वर का नाम क्यों भुला दिया है,
ਅੰਤ ਕਾਲਿ ਤੇਰੈ ਆਵੈ ਕਾਮ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ अंत कालि तेरै आवै काम ॥१॥ रहाउ ॥ क्योंकि अन्तिम समय यही तेरे काम आना है॥१॥रहाउ॥।
ਗੁਰ ਪੂਛਿ ਤੁਮ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥ गुर पूछि तुम करहु बीचारु ॥ गुरु से पूछकर तुम चिंतन कर लो,
ਜਹ ਦੇਖਉ ਤਹ ਸਾਰਿਗਪਾਣਿ ॥੨॥ जह देखउ तह सारिगपाणि ॥२॥ जहां भी दृष्टि जाएगी, वहाँ ईश्वर ही विद्यमान हैं।॥२॥
ਕਿਆ ਹਉ ਆਖਾ ਜਾਂ ਕਛੂ ਨਾਹਿ ॥ किआ हउ आखा जां कछू नाहि ॥ हे परमेश्वर ! जब कुछ भी अपना नहीं, कैसे कह सकता हूँ, यह मेरा है।
ਜਾਤਿ ਪਤਿ ਸਭ ਤੇਰੈ ਨਾਇ ॥੩॥ जाति पति सभ तेरै नाइ ॥३॥ तेरा नाम ही मेरी जाति एवं प्रतिष्ठा है॥३॥
ਕਾਹੇ ਮਾਲੁ ਦਰਬੁ ਦੇਖਿ ਗਰਬਿ ਜਾਹਿ ॥ काहे मालु दरबु देखि गरबि जाहि ॥ तू धन दौलत को देखकर क्यों अभिमान करता है,
ਚਲਤੀ ਬਾਰ ਤੇਰੋ ਕਛੂ ਨਾਹਿ ॥੪॥ चलती बार तेरो कछू नाहि ॥४॥ क्योंकि संसार से चलते समय तेरे साथ कुछ भी नहीं जाने वाला॥४॥
ਪੰਚ ਮਾਰਿ ਚਿਤੁ ਰਖਹੁ ਥਾਇ ॥ पंच मारि चितु रखहु थाइ ॥ कामादिक पांच विकारों को मारकर अपना मन स्थिर करके रखो,
ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਕੀ ਇਹੈ ਪਾਂਇ ॥੫॥ जोग जुगति की इहै पांइ ॥५॥ योग युक्ति की यही आधारशिला है॥५॥
ਹਉਮੈ ਪੈਖੜੁ ਤੇਰੇ ਮਨੈ ਮਾਹਿ ॥ हउमै पैखड़ु तेरे मनै माहि ॥ तेरे मन में अभिमान का बन्धन पड़ा हुआ है,
ਹਰਿ ਨ ਚੇਤਹਿ ਮੂੜੇ ਮੁਕਤਿ ਜਾਹਿ ॥੬॥ हरि न चेतहि मूड़े मुकति जाहि ॥६॥ हे मूर्ख ! ईश्वर का तू चिंतन नहीं करता, जिससे मुक्ति प्राप्त होनी है॥६॥
ਮਤ ਹਰਿ ਵਿਸਰਿਐ ਜਮ ਵਸਿ ਪਾਹਿ ॥ ਅੰਤ ਕਾਲਿ ਮੂੜੇ ਚੋਟ ਖਾਹਿ ॥੭॥ मत हरि विसरिऐ जम वसि पाहि ॥ अंत कालि मूड़े चोट खाहि ॥७॥ परमात्मा को मत भुलाओ, अन्यथा यम शिकंजे में ले लेगा। हे मूर्ख ! अंतकाल तू कष्ट भोगता रहेगा॥७॥


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