Guru Granth Sahib Translation Project

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ਸੇਵਾ ਸੁਰਤਿ ਸਬਦਿ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥ सेवा सुरति सबदि चितु लाए ॥ फिर वह व्यक्ति अपनी मन प्रभु की निस्वार्थ सेवा और गुरु उपदेश में लगाता है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਚੁਕਾਵਣਿਆ ॥੧॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ माइआ मोहु चुकावणिआ ॥१॥ वह अपने अहंकार को त्याग कर माया के प्रति मोह को त्याग देता है तथा शाश्वत आनंद को प्राप्त करता है ॥ १॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰਣਿਆ ॥ हउ वारी जीउ वारी सतिगुर कै बलिहारणिआ ॥ मैं अपने सतगुरु पर तन एवं मन से न्यौछावर हूँ,
ਗੁਰਮਤੀ ਪਰਗਾਸੁ ਹੋਆ ਜੀ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरमती परगासु होआ जी अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ क्योंकि गुरु के उपदेश द्वारा उसके हृदय में दिव्य ज्ञान प्रगट होता है। वह व्यक्ति नित्य भगवान् का यशोगान करता रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਤਨੁ ਮਨੁ ਖੋਜੇ ਤਾ ਨਾਉ ਪਾਏ ॥ तनु मनु खोजे ता नाउ पाए ॥ जब मनुष्य आत्मचिंतन करता है अपने तन एवं मन में ही उसकी खोज करता है (अपनी सभी कमियों पर विचार करता है)तो उसे ईश्वर का नाम प्राप्त हो जाता है।औ
ਧਾਵਤੁ ਰਾਖੈ ਠਾਕਿ ਰਹਾਏ ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ और इसप्रकार वह अपने भटकते मन को वश में रख कर इसको स्थिर करता है
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਅਨਦਿਨੁ ਗਾਵੈ ਸਹਜੇ ਭਗਤਿ ਕਰਾਵਣਿਆ ॥੨॥ गुर की बाणी अनदिनु गावै सहजे भगति करावणिआ ॥२॥ वें रात-दिन गुरु की वाणी का गायन करते हुए और सहज रूप से प्रभु की भक्ति लगे रहते हैं॥ २॥
ਇਸੁ ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਵਸਤੁ ਅਸੰਖਾ ॥ इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा ॥ इस शरीर में भगवान् विद्यमान हैं, जिनके गुण असीम हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਮਿਲੈ ਤਾ ਵੇਖਾ ॥ गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा ॥ जब व्यक्ति गुरु-प्रदत्त ज्ञान से अपने भीतर विद्यमान सत्य प्रभु के दर्शन करता है।
ਨਉ ਦਰਵਾਜੇ ਦਸਵੈ ਮੁਕਤਾ ਅਨਹਦ ਸਬਦੁ ਵਜਾਵਣਿਆ ॥੩॥ नउ दरवाजे दसवै मुकता अनहद सबदु वजावणिआ ॥३॥ तब, व्यक्ति प्रत्यक्ष नौ इंद्रियों से ऊपर उठ जाता है और दसवीं गुप्त इंद्रिय, मोह-माया से मुक्त होकर निर्मल हो मुक्ति के द्वार को पहचान लेता है, तथा पवित्र हुए मन में अनहद शब्द का अनुभव करता है।॥ ३ ॥
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥ सचा साहिबु सची नाई ॥ परमात्मा सदैव सत्य है एवं उसकी महिमा भी सत्य है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈ ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ गुरु की कृपा से ही प्रभु मन में आकर विद्यमान होते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਰਹੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਝੀ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४॥ फिर व्यक्ति दिन-रात परमात्मा के प्रेम में मग्न रहता है और उसे सत्य दरबार की सूझ हो जाती है॥ ४॥
ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਕੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣੀ ॥ पाप पुंन की सार न जाणी ॥ जो प्राणी पाप एवं पुण्य को नहीं जानता
ਦੂਜੈ ਲਾਗੀ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਣੀ ॥ दूजै लागी भरमि भुलाणी ॥ द्वैत भावना से आसक्त हो वह इस संसार में भ्रमित होकर घूमता रहता है।
ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧਾ ਮਗੁ ਨ ਜਾਣੈ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵਣ ਜਾਵਣਿਆ ॥੫॥ अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५॥ मोह-माया में ज्ञानहीन व्यक्ति धर्ममय जीवन का सच्चा मार्ग नहीं जानता, और जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाता है।॥ ५ ॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥ गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ ॥ गुरमुख गुरु की सेवा करके सदैव ही सुख प्राप्त करते हैं।
ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਠਾਕਿ ਰਹਾਇਆ ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाइआ ॥ वह अहंकार को नष्ट करके अपने भटकते हुए मन को नियंत्रित रखता है।
ਗੁਰ ਸਾਖੀ ਮਿਟਿਆ ਅੰਧਿਆਰਾ ਬਜਰ ਕਪਾਟ ਖੁਲਾਵਣਿਆ ॥੬॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा बजर कपाट खुलावणिआ ॥६॥ गुरु की शिक्षा से उनका अज्ञानता का अँधेरा मिट जाता है और दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है।॥६॥
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇਆ ॥ हउमै मारि मंनि वसाइआ ॥ वह अपना अहंकार मिटाकर गुरू वचनों को अपने मन में स्थापित कर लेते हैं।
ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਸਦਾ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥ गुर चरणी सदा चितु लाइआ ॥ फिर वह अपना चित्त निरन्तर ही गुरु के चरणों में लगाकर रखते हैं।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੭॥ गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु निरमल नामु धिआवणिआ ॥७॥ गुरु की कृपा से उनका मन एवं तन निर्मल हो जाता है। फिर वह भगवान के निर्मल नाम का सिमरन करते रहते हैं।॥ ७॥
ਜੀਵਣੁ ਮਰਣਾ ਸਭੁ ਤੁਧੈ ਤਾਈ ॥ जीवणु मरणा सभु तुधै ताई ॥ हे प्रभु ! जीवों का जन्म एवं मृत्यु सब कुछ आपके हाथ में है
ਜਿਸੁ ਬਖਸੇ ਤਿਸੁ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ और हे प्रभु ! जो आपकी कृपा पात्र है, उसे आप अपना नाम दान प्रदान करते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਸਦਾ ਤੂੰ ਜੰਮਣੁ ਮਰਣੁ ਸਵਾਰਣਿਆ ॥੮॥੧॥੨॥ नानक नामु धिआइ सदा तूं जमणु मरणु सवारणिआ ॥८॥१॥२॥ हे नानक ! तू सदा ही उस परमेश्वर के नाम का भजन कर, जो मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक आपके पूरे जीवन को सुशोभित कर सकता है।॥ ८ ॥ १ ॥ २ ॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥ माझ महला ३ ॥ माझ महला, तीसरे गुरु द्वारा : ३ ॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਨਿਰਮਲੁ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ॥ मेरा प्रभु निरमलु अगम अपारा ॥ मेरा ईश्वर निष्कलंक, अप्राप्य और अनंत है।
ਬਿਨੁ ਤਕੜੀ ਤੋਲੈ ਸੰਸਾਰਾ ॥ बिनु तकड़ी तोलै संसारा ॥ वह प्रभु बिना किसी पैमाने के जगत् लोगों के गुण-दोष का मूल्यांकन करते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੋਈ ਬੂਝੈ ਗੁਣ ਕਹਿ ਗੁਣੀ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥ जो गुरु की शिक्षाओं का पालन करता है, उसे समझता है। प्रभु के गुणों का यशोगान करने से सदा उनसे जुड़ा रहता है।॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥ हउ वारी जीउ वारी हरि का नामु मंनि वसावणिआ ॥ जो व्यक्ति भगवान् के नाम को अपने हृदय में बसाते हैं। मेरा तन-मन उन पर न्योछावर है।
ਜੋ ਸਚਿ ਲਾਗੇ ਸੇ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੇ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जो सचि लागे से अनदिनु जागे दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ जो व्यक्ति सत्य प्रभु के समर्पित हैं, वह माया के आक्रमणों से सदा सचेत रहते हैं और प्रभु के दरबार में सम्मान प्राप्त करते हैं।॥१॥ रहाउ॥
ਆਪਿ ਸੁਣੈ ਤੈ ਆਪੇ ਵੇਖੈ ॥ आपि सुणै तै आपे वेखै ॥ हे प्रभु ! तू स्वयं ही समस्त जीवों की प्रार्थना सुनता है और स्वयं ही उन्हें देखता रहता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋਈ ਜਨੁ ਲੇਖੈ ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ जिस पर प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि डालते हैं, वह व्यक्ति प्रभु के दरबार में स्वीकृत हो जाता है।
ਆਪੇ ਲਾਇ ਲਏ ਸੋ ਲਾਗੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਕਮਾਵਣਿਆ ॥੨॥ आपे लाइ लए सो लागै गुरमुखि सचु कमावणिआ ॥२॥ जिस पर उनकी कृपा होती है, वही उनके प्रेम और भक्ति से ओतप्रोत होता है और गुरु के माध्यम से ईश्वर का ध्यान करता है (जीवन में सत्य का अभ्यास करता है)।॥२॥
ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਭੁਲਾਏ ਸੁ ਕਿਥੈ ਹਥੁ ਪਾਏ ॥ जिसु आपि भुलाए सु किथै हथु पाए ॥ वह किस का आश्रय ले सकता है, जिसको प्रभु स्वयं गुमराह करता है?
ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਮੇਟਣਾ ਨ ਜਾਏ ॥ पूरबि लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥ विधाता के विधान को मिटाया नहीं जा सकता अर्थात् पूर्व जन्म का लिखा लेख मिटाया नहीं जाता।
ਜਿਨ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲਿਆ ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਪੂਰੈ ਕਰਮਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੩॥ जिन सतिगुरु मिलिआ से वडभागी पूरै करमि मिलावणिआ ॥३॥ वह व्यक्ति बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें सतिगुरु मिले हैं। पूर्ण भाग्य से ही सतिगुरु जी मिलते हैं।॥३॥
ਪੇਈਅੜੈ ਧਨ ਅਨਦਿਨੁ ਸੁਤੀ ॥ पेईअड़ै धन अनदिनु सुती ॥ जीव-स्त्री अपने पीहर (इहलोक) में दिन-रात अज्ञानता में निंद्रामग्न रहती है।
ਕੰਤਿ ਵਿਸਾਰੀ ਅਵਗਣਿ ਮੁਤੀ ॥ कंति विसारी अवगणि मुती ॥ उसके पति-प्रभु ने उसे विस्मृत कर दिया है और अवगुणों के कारण वह त्याग दी गई है।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਫਿਰੈ ਬਿਲਲਾਦੀ ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਨੀਦ ਨ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥ अनदिनु सदा फिरै बिललादी बिनु पिर नीद न पावणिआ ॥४॥ वह रात-दिन सदैव ही विलाप करती रहती है। अपने पति-प्रभु के बिना उसको सुख की निद्रा नहीं आती ॥ ४॥
ਪੇਈਅੜੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਜਾਤਾ ॥ पेईअड़ै सुखदाता जाता ॥ गुरमुख जीव-स्त्री ने अपने पीहर (इहलोक) में सुखदाता पति-प्रभु को जान लिया है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਪਛਾਤਾ ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ उसने अपना अहंकार त्याग कर गुरु के शब्द द्वारा अपने पति-प्रभु को पहचान लिया है।
ਸੇਜ ਸੁਹਾਵੀ ਸਦਾ ਪਿਰੁ ਰਾਵੇ ਸਚੁ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਵਣਿਆ ॥੫॥ सेज सुहावी सदा पिरु रावे सचु सीगारु बणावणिआ ॥५॥ वह सदैव ही सुन्दर शय्या पर शयन करती है और पति-प्रभु के साथ रमण करती है। ऐसी जीव-स्त्री प्रभु के सत्य-नाम को अपना श्रृंगार बनाती है॥५॥


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