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ਸਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਰੂਪੁ ॥
(श्रम खंड में परमेश्वर की भक्ति को प्रमुख माना गया है) परमेश्वर की भक्ति करने का उद्यम करने वाले संतजनों की वाणी मधुर होती है।
ਤਿਥੈ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਐ ਬਹੁਤੁ ਅਨੂਪੁ ॥
इस अवस्था में (श्रम खण्ड में) प्रबुद्ध मन द्वारा अद्वितीय सुन्दरता वाले स्वरूप की रचना होती है।
ਤਾ ਕੀਆ ਗਲਾ ਕਥੀਆ ਨਾ ਜਾਹਿ ॥ ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਪਿਛੈ ਪਛੁਤਾਇ ॥
उनकी बातों का कथन नहीं किया जा सकता। यदि कोई उनकी महिमा कथन करने की चेष्टा करता भी है तो उसे बाद में पछताना पड़ता है।
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਤਿ ਮਤਿ ਮਨਿ ਬੁਧਿ ॥
चेतना, बुद्धि, मन और विवेक को नया आकार एवं दिशा दी जाती है।
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਾ ਸਿਧਾ ਕੀ ਸੁਧਿ ॥੩੬॥
वहाँ पर दिव्य बुद्धि वाले देवों व सिद्ध अवस्था की प्राप्ति वाली सूझ गढ़ी जाती है॥ ३६॥
ਕਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਜੋਰੁ ॥
जिन उपासकों पर परमेश्वर की कृपा हुई उनकी वाणी शक्तिवान हो जाती है।
ਤਿਥੈ ਹੋਰੁ ਨ ਕੋਈ ਹੋਰੁ ॥
जहाँ पर ये उपासक विद्यमान होते हैं वहाँ पर कोई और नहीं होता।
ਤਿਥੈ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰ ॥
उन उपासकों में देह को जीतने वाले योद्धा, इन्द्रियों को जीतने वाला महाबली तथा शूरवीर होते हैं।
ਤਿਨ ਮਹਿ ਰਾਮੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰ ॥
उन में प्रभु राम परिपूर्ण रहते हैं।
ਤਿਥੈ ਸੀਤੋ ਸੀਤਾ ਮਹਿਮਾ ਮਾਹਿ ॥
ऐसी अवस्था में उपासक पूरी तरह से परमेश्वर की स्तुति में तल्लीन रहते हैं।
ਤਾ ਕੇ ਰੂਪ ਨ ਕਥਨੇ ਜਾਹਿ ॥
ऐसा स्वरूप प्राप्त करने वालों के गुण कथन नहीं किए जा सकते।
ਨਾ ਓਹਿ ਮਰਹਿ ਨ ਠਾਗੇ ਜਾਹਿ ॥ ਜਿਨ ਕੈ ਰਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
वे उपासक न तो मरते हैं और न ही ठगे जाते हैं, जिनके हृदय में परमात्मा राम का स्वरूप विद्यमान होता है।
ਤਿਥੈ ਭਗਤ ਵਸਹਿ ਕੇ ਲੋਅ ॥
वहाँ कई लोकों के भक्त निवास करते हैं।
ਕਰਹਿ ਅਨੰਦੁ ਸਚਾ ਮਨਿ ਸੋਇ ॥
जिनके हृदय में सत्यस्वरूप निरंकार वास करता है, वे आनंद प्राप्त करते हैं।
ਸਚ ਖੰਡਿ ਵਸੈ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
सत्य धारण करने वालों के हृदय (सचखण्ड) में वह निरंकार निवास करता है; अर्थात् वैकुण्ठ लोक, जहाँ सद्गुणी व्यक्तियों का वास हैं), में वह सर्गुण स्वरूप परमात्मा रहता है।
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ ॥
यह सृजनहार परमात्मा अपनी सृजना को रच-रचकर कृपा-दृष्टि से देखता है अर्थात् उसका पोषण करता है।
ਤਿਥੈ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡ ॥
उस सचखण्ड में अनन्त ही खण्ड, मण्डल व ब्रह्माण्ड है।
ਜੇ ਕੋ ਕਥੈ ਤ ਅੰਤ ਨ ਅੰਤ ॥
यदि कोई उसके अन्त को कथन करे तो अन्त नहीं पा सकता, क्योंकि वह असीम है।
ਤਿਥੈ ਲੋਅ ਲੋਅ ਆਕਾਰ ॥
वहाँ अनेकानेक लोक विद्यमान है और उनमें रहने वालों के अस्तित्व भी अनेक हैं।
ਜਿਵ ਜਿਵ ਹੁਕਮੁ ਤਿਵੈ ਤਿਵ ਕਾਰ ॥
फिर जिस तरह वह सर्वशक्तिमान परमात्मा आदेश करता है उसी तरह वे कार्य करते हैं।
ਵੇਖੈ ਵਿਗਸੈ ਕਰਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥
अपने इस रचे हुए प्रपंच को देख कर व शुभाशुभ कर्मों को विचार कर वह प्रसन्न होता है।
ਨਾਨਕ ਕਥਨਾ ਕਰੜਾ ਸਾਰੁ ॥੩੭॥
गुरु नानक जी कहते हैं कि उस निरंकार के मूल-तत्व का जो मैंने उल्लेख किया है उसे कथन करना अत्यंत कठिन है ॥३७॥
ਜਤੁ ਪਾਹਾਰਾ ਧੀਰਜੁ ਸੁਨਿਆਰੁ ॥
इद्रिय-निग्रह रूपी भट्ठी हो, संयम रूपी सुनार हो।
ਅਹਰਣਿ ਮਤਿ ਵੇਦੁ ਹਥੀਆਰੁ ॥
अचल बुद्धि रूपी अहरन हो, गुरु ज्ञान रूपी हथौड़ा हो।
ਭਉ ਖਲਾ ਅਗਨਿ ਤਪ ਤਾਉ ॥
निरंकार के भय को धौंकनी तथा तपोमय जीवन को अग्नि ताप बनाओ।
ਭਾਂਡਾ ਭਾਉ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤਿਤੁ ਢਾਲਿ ॥
हृदय - प्रेम को बर्तन बनाकर उसमें नाम - अमृत को गलाया जाए।
ਘੜੀਐ ਸਬਦੁ ਸਚੀ ਟਕਸਾਲ ॥
इसी सच्ची टकसाल में नैतिक जीवन को रचा जाता है। अर्थात्-ऐसी टकसाल से ही सद्गुणी जीवन बनाया जा सकता है।
ਜਿਨ ਕਉ ਨਦਰਿ ਕਰਮੁ ਤਿਨ ਕਾਰ ॥
जिन पर अकाल पुरुष की कृपा-दृष्टि होती है, उन्हीं को ये कार्य करने को मिलते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ ॥੩੮॥
हे नानक ! ऐसे सद्गुणी जीव उस कृपासागर परमात्मा की कृपा-दृष्टि के कारण कृतार्थ होते हैं। ॥ ३८ ॥
ਸਲੋਕੁ ॥
श्लोक : ॥
ਪਵਣੁ ਗੁਰੂ ਪਾਣੀ ਪਿਤਾ ਮਾਤਾ ਧਰਤਿ ਮਹਤੁ ॥
समस्त सृष्टि का गुरु पवन है, पानी पिता है, और पृथ्वी बड़ी माता है।
ਦਿਵਸੁ ਰਾਤਿ ਦੁਇ ਦਾਈ ਦਾਇਆ ਖੇਲੈ ਸਗਲ ਜਗਤੁ ॥
दिन और रात दोनों धाय एवं धीया (बच्चों को खिलाने वाले) के समान हैं तथा सम्पूर्ण जगत् इन दोनों की गोद में खेल रहा है।
ਚੰਗਿਆਈਆ ਬੁਰਿਆਈਆ ਵਾਚੈ ਧਰਮੁ ਹਦੂਰਿ ॥
शुभ व अशुभ कर्मों का विवेचन उस अकाल-पुरुष के दरबार में होगा।
ਕਰਮੀ ਆਪੋ ਆਪਣੀ ਕੇ ਨੇੜੈ ਕੇ ਦੂਰਿ ॥
अपने शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप ही जीव परमात्मा के निकट अथवा दूर होता है।
ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗਏ ਮਸਕਤਿ ਘਾਲਿ ॥
जिन्होंने प्रभु का नाम सिमरन किया है, वे जप-तप आदि की गई मेहनत को सफल कर गए हैं।
ਨਾਨਕ ਤੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਕੇਤੀ ਛੁਟੀ ਨਾਲਿ ॥੧॥
गुरु नानक देव जी कथन करते हैं कि ऐसे सद्प्राणियों के मुख उज्ज्वल हुए हैं और कितने ही जीव उनके साथ, अर्थात् उनका अनुसरण करके, आवागमन के चक्र से मुक्त हो गए हैं।॥ १॥
ਸੋ ਦਰੁ ਰਾਗੁ ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧
सो दर, राग आसा, प्रथम गुरु:
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਸੋ ਦਰੁ ਤੇਰਾ ਕੇਹਾ ਸੋ ਘਰੁ ਕੇਹਾ ਜਿਤੁ ਬਹਿ ਸਰਬ ਸਮਾਲੇ ॥
हे निरंकार! आपका वह (अकथनीय) द्वार कैसा है, वह निवास-स्थान कैसा है, जहाँ पर विराजमान होकर आप सम्पूर्ण सृष्टि का प्रतिपालन करते हो ? (इसके बारे में कैसे कथन करूं)।
ਵਾਜੇ ਤੇਰੇ ਨਾਦ ਅਨੇਕ ਅਸੰਖਾ ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਵਾਵਣਹਾਰੇ ॥
हे अनन्त स्वरूप ! आपके द्वार पर अनगिनत दिव्य नाद गूँज रहे हैं, कितने ही वहाँ पर नादिन् हैं।
ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਰਾਗ ਪਰੀ ਸਿਉ ਕਹੀਅਹਿ ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਗਾਵਣਹਾਰੇ ॥
आपके द्वार पर कितने ही रागिनियों के संग राग कहते हैं और कितने ही वहीं पर उन रागों व रागिनियों को गाने वाले हैं।
ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਪਵਣੁ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰੁ ਗਾਵੈ ਰਾਜਾ ਧਰਮੁ ਦੁਆਰੇ ॥
आगे गाने वालों का वर्णन करते हैं) हे अकाल पुरख ! आपके पवन, जल व अग्नि देव आदि गाते हैं और धर्मराज भी आपके द्वार पर तुम्हारा यश गाता है।
ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਚਿਤੁ ਗੁਪਤੁ ਲਿਖਿ ਜਾਣਨਿ ਲਿਖਿ ਲਿਖਿ ਧਰਮੁ ਬੀਚਾਰੇ ॥
जीवों के शुभाशुभ कर्म लिखने वाले चित्र-गुप्त आपका ही यशोगान करते है तथा लिख कर शुभ व अशुभ कर्मों का विचार करते हैं।
ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਈਸਰੁ ਬ੍ਰਹਮਾ ਦੇਵੀ ਸੋਹਨਿ ਤੇਰੇ ਸਦਾ ਸਵਾਰੇ ॥
भगवान् शिव और ब्रह्मा सहित आपके द्वारा सुशोभित देवियाँ भी आपकी महिमा का गान कर रही हैं।
ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਇੰਦ੍ਰ ਇੰਦ੍ਰਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਿ ਨਾਲੇ ॥
देवताओं के संग अपने सिंहासन पर बैठा इन्द्र भी आपकी महिमा को गा रहा है।
ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਸਿਧ ਸਮਾਧੀ ਅੰਦਰਿ ਗਾਵਨਿ ਤੁਧਨੋ ਸਾਧ ਬੀਚਾਰੇ ॥
समाधि में स्थित हुए सिद्ध भी आपका यश गा रहे हैं, विचारवान साधु भी आपकी प्रशंसा कर रहे हैं।