Guru Granth Sahib Translation Project

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ਅਸੰਖ ਭਗਤ ਗੁਣ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰ ॥ असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥ असंख्य साधक परमेश्वर की महिमा और दिव्य ज्ञान का नित्य मनन और स्मरण करते हैं।
ਅਸੰਖ ਸਤੀ ਅਸੰਖ ਦਾਤਾਰ ॥ असंख सती असंख दातार ॥ इस जगत में असंख्य पुण्यात्माएँ एवं अनगिनत परोपकार में संलग्न महापुरुष विद्यमान हैं।
ਅਸੰਖ ਸੂਰ ਮੁਹ ਭਖ ਸਾਰ ॥ असंख सूर मुह भख सार ॥ असंख्य शूरवीर रणभूमि में शत्रु का सामना करते हुए लोहे के तीव्र अस्त्रों के प्रहारों को भी धैर्यपूर्वक सहते हैं।
ਅਸੰਖ ਮੋਨਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ਤਾਰ ॥ असंख मोनि लिव लाइ तार ॥ असंख्य मानव जीव मौन धारण करके एकाग्रचित होकर उस अकाल-पुरख में लीन रहते हैं।
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ ॥ कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ इसलिए मुझ में इतनी बुद्धि कहाँ कि मैं उस अकथनीय प्रभु की समर्थता का विचार कर सकूँ।
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ हे अनन्त स्वरूप ! मेरी स्थिति इतनी क्षीण है कि मैं स्वयं को आपके चरणों में एक बार भी समर्पित करने योग्य नहीं समझता।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ जो आपको भला लगता है वही कार्य मेरे लिए श्रेष्ठ है।
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੭॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥ हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! आप सदा शाश्वत रूप है।॥१७॥
ਅਸੰਖ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਘੋਰ ॥ असंख मूरख अंध घोर ॥ इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य विमूढ़ तथा गहन अज्ञानी हैं।
ਅਸੰਖ ਚੋਰ ਹਰਾਮਖੋਰ ॥ असंख चोर हरामखोर ॥ असंख्य चोर तथा अभक्ष्य खाने वाले हैं, जो दूसरों का माल चुरा कर खाते हैं।
ਅਸੰਖ ਅਮਰ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ਜੋਰ ॥ असंख अमर करि जाहि जोर ॥ असंख्य ही ऐसे हैं जो अन्य लोगों पर कठोर आचरण से अत्याचारी शासन करके इस संसार को त्याग जाते हैं।
ਅਸੰਖ ਗਲਵਢ ਹਤਿਆ ਕਮਾਹਿ ॥ असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥ असंख्य अधर्मी मनुष्य जो दूसरों का गला काट कर हत्या का पाप कमा रहे हैं।
ਅਸੰਖ ਪਾਪੀ ਪਾਪੁ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ॥ असंख पापी पापु करि जाहि ॥ असंख्य ही पापी इस संसार से पाप करते हुए चले जाते हैं।
ਅਸੰਖ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੇ ਫਿਰਾਹਿ ॥ असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥ असंख्य ही झूठा स्वभाव रखने वाले मिथ्या वचन बोलते फिरते हैं।
ਅਸੰਖ ਮਲੇਛ ਮਲੁ ਭਖਿ ਖਾਹਿ ॥ असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥ असंख्य मानव ऐसे हैं जो मलिन बुद्धि होने के कारण विष्टा का भोजन खाते हैं।
ਅਸੰਖ ਨਿੰਦਕ ਸਿਰਿ ਕਰਹਿ ਭਾਰੁ ॥ असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥ असंख्य लोग दूसरों की निन्दा करके अपने सिर पर पाप का बोझ रखते हैं।
ਨਾਨਕੁ ਨੀਚੁ ਕਹੈ ਵੀਚਾਰੁ ॥ नानकु नीचु कहै वीचारु ॥ श्री गुरु नानक देव ने पापी एवं कुकर्मी, अज्ञानी, अभक्ष्य पद्धार्थ ग्रहण करने वाले, दुराचारी एवं अधर्मी लोगों के चरित्र का वर्णन करते हुए स्वयं को इनके समक्ष बहुत तुच्छ बताया है ।
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ हे अनन्त स्वरूप ! मेरी स्थिति इतनी क्षीण है कि मैं स्वयं को आपके चरणों में एक बार भी समर्पित करने योग्य नहीं समझता।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ जो आपको भला लगता है वही कार्य मेरे लिए श्रेष्ठ है।
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੮॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥ हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! आप सदा शाश्वत रूप है॥ १८॥
ਅਸੰਖ ਨਾਵ ਅਸੰਖ ਥਾਵ ॥ असंख नाव असंख थाव ॥ उस सृजनहार की सृष्टि में असंख्य ही नाम तथा असंख्य ही स्थान वाले जीव विचरण कर रहे हैं;अथवा इस सृष्टि में अकाल-पुरख के अनेकानेक नाम हैं तथा अनेकानेक ही स्थान हैं, जहाँ पर परमात्मा का वास रहता है।
ਅਗੰਮ ਅਗੰਮ ਅਸੰਖ ਲੋਅ ॥ अगम अगम असंख लोअ ॥ असंख्य ही अकल्पनीय लोक हैं।
ਅਸੰਖ ਕਹਹਿ ਸਿਰਿ ਭਾਰੁ ਹੋਇ ॥ असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥ किन्तु जो मनुष्य उसकी रचना का गणित करते हुए 'असंख्य' शब्द का प्रयोग करते हैं उनके सिर पर भी भार पड़ता है।
ਅਖਰੀ ਨਾਮੁ ਅਖਰੀ ਸਾਲਾਹ ॥ अखरी नामु अखरी सालाह ॥ शब्दों द्वारा ही उस निरंकार के नाम को जपा जा सकता है, शब्दों से ही उसका गुणगान किया जा सकता है।
ਅਖਰੀ ਗਿਆਨੁ ਗੀਤ ਗੁਣ ਗਾਹ ॥ अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥ दिव्य वाणी के माध्यम से ही परमात्मा का बोध होता है, उनकी स्तुति की जाती है और उनके गुणों का चिंतन संभव होता है।
ਅਖਰੀ ਲਿਖਣੁ ਬੋਲਣੁ ਬਾਣਿ ॥ अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥ शब्द ही वह अमृत है जिसके माध्यम से परम सत्य की झलक मिलती है; वाणी हो या लेख, दोनों का सार शब्द-रूप ही है।
ਅਖਰਾ ਸਿਰਿ ਸੰਜੋਗੁ ਵਖਾਣਿ ॥ अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥ शब्द वह दिव्य माध्यम है, जिसके द्वारा मनुष्य के भाग्य का ज्ञान होता है;
ਜਿਨਿ ਏਹਿ ਲਿਖੇ ਤਿਸੁ ਸਿਰਿ ਨਾਹਿ ॥ जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥ लेकिन जिस ईश्वर ने सबका भाग्य लिखा है, वह परमेश्वर स्वयं नियति से परे हैं।
ਜਿਵ ਫੁਰਮਾਏ ਤਿਵ ਤਿਵ ਪਾਹਿ ॥ जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥ अकाल-पुरख जिस प्रकार मनुष्य के कर्मों के अनुसार आदेश करता है, वैसे ही वह अपने कर्मों को भोगता है।
ਜੇਤਾ ਕੀਤਾ ਤੇਤਾ ਨਾਉ ॥ जेता कीता तेता नाउ ॥ सृजनहार ने इस सृष्टि का जितना प्रसार किया है, वह समस्त नाम-रूप ही है।
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਾਹੀ ਕੋ ਥਾਉ ॥ विणु नावै नाही को थाउ ॥ कोई भी स्थान उसके नाम से रिक्त नहीं है।
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ ॥ कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ इसलिए मुझ में इतनी बुद्धि कहाँ कि मैं उस अकथनीय प्रभु की समर्थता का विचार कर सकूँ।
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ हे अनन्त स्वरूप ! मेरी स्थिति इतनी क्षीण है कि मैं स्वयं को आपके चरणों में एक बार भी समर्पित करने योग्य नहीं समझता।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ जो आपको भला लगता है वही कार्य मेरे लिए श्रेष्ठ है।
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੧੯॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥ हे निरंकार ! हे पारब्रह्म ! आप सदा शाश्वत रूप है।॥ १९ ॥
ਭਰੀਐ ਹਥੁ ਪੈਰੁ ਤਨੁ ਦੇਹ ॥ भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥ यदि यह शरीर, हाथ-पैर अथवा कोई अन्य अंग मलिन हो जाए
ਪਾਣੀ ਧੋਤੈ ਉਤਰਸੁ ਖੇਹ ॥ पाणी धोतै उतरसु खेह ॥ तो पानी से धो लेने से उसकी गन्दगी व मिट्टी शुद्ध हो जाती है।
ਮੂਤ ਪਲੀਤੀ ਕਪੜੁ ਹੋਇ ॥ मूत पलीती कपड़ु होइ ॥ यदि कोई वस्त्र मलमूत्र आदि से अपवित्र हो जाए
ਦੇ ਸਾਬੂਣੁ ਲਈਐ ਓਹੁ ਧੋਇ ॥ दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥ तो उसे साबुन के साथ धो लिया जाता है।
ਭਰੀਐ ਮਤਿ ਪਾਪਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥ भरीऐ मति पापा कै संगि ॥ यदि मनुष्य की बुद्धि दुष्कर्मों के करने से मलिन हो जाए
ਓਹੁ ਧੋਪੈ ਨਾਵੈ ਕੈ ਰੰਗਿ ॥ ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥ तो वह वाहेगुरु के नाम का सिमरन करने से ही पवित्र हो सकती है।
ਪੁੰਨੀ ਪਾਪੀ ਆਖਣੁ ਨਾਹਿ ॥ पुंनी पापी आखणु नाहि ॥ पुण्य और पाप मात्र कहने को ही नहीं हैं।
ਕਰਿ ਕਰਿ ਕਰਣਾ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਹੁ ॥ करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥ अपितु इस संसार में रहकर मानव जीव द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक अच्छे व बुरे कर्मों का विवरण धर्मराज द्वारा भेजे गए चित्र-गुप्त द्वारा लिखा जाएगा, जिसके फलानुसार उसे स्वर्ग अथवा नरक की प्राप्ति होगी।
ਆਪੇ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਹੁ ॥ आपे बीजि आपे ही खाहु ॥ अतः मनुष्य स्वयं ही कर्म बीज बीजता है और स्वयं ही उसका फल प्राप्त करता है।
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੀ ਆਵਹੁ ਜਾਹੁ ॥੨੦॥ नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥ गुरु नानक जी का कथन है कि इस संसार में जीव के कर्म उसे आवागमन के चक्र में ही रखेंगे, निरंकार जीव के कर्मों के अनुसार ही उसके फल की आज्ञा करेगा॥२०॥
ਤੀਰਥੁ ਤਪੁ ਦਇਆ ਦਤੁ ਦਾਨੁ ॥ तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥ तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया-भाव करके तथा नि:स्वार्थ दान देने से
ਜੇ ਕੋ ਪਾਵੈ ਤਿਲ ਕਾ ਮਾਨੁ ॥ जे को पावै तिल का मानु ॥ यदि कोई मनुष्य सम्मान प्राप्त करता है तो वह अति लघु होता है।
ਸੁਣਿਆ ਮੰਨਿਆ ਮਨਿ ਕੀਤਾ ਭਾਉ ॥ सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥ किन्तु जिन्होंने परमेश्वर के नाम को मन में प्रीत करके सुना व उसका निरन्तर चिन्तन किया है।
ਅੰਤਰਗਤਿ ਤੀਰਥਿ ਮਲਿ ਨਾਉ ॥ अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥ उस जीव ने अपने हृदय में बसे हुए निरंकार में लीन होकर अपनी अन्तरात्मा की मैल को शुद्ध कर लिया है।
ਸਭਿ ਗੁਣ ਤੇਰੇ ਮੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥ सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥ हे सर्गुण स्वरूप परमात्मा! जो कुछ भी शुभ और सद्गुणमय मुझमें है, वह आपकी ही कृपा का परिणाम है; मेरा तो कुछ भी नहीं।
ਵਿਣੁ ਗੁਣ ਕੀਤੇ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਇ ॥ विणु गुण कीते भगति न होइ ॥ सदाचार के गुणों को धारण किए बिना परमेश्वर की भक्ति भी नहीं हो सकती।
ਸੁਅਸਤਿ ਆਥਿ ਬਾਣੀ ਬਰਮਾਉ ॥ सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥ हे परमात्मा! आप ही इस जगत की माया हैं, आप ही अनहद शब्द के रूप में गूंज रहे हैं, और आप ही सृजनकर्ता ब्रह्मा हैं; मैं आपको कोटिशः प्रणाम करता हूँ।
ਸਤਿ ਸੁਹਾਣੁ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚਾਉ ॥ सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥ आप सत्य हो, चैतन्य हो और सदैव आनन्द स्वरूप हो।
ਕਵਣੁ ਸੁ ਵੇਲਾ ਵਖਤੁ ਕਵਣੁ ਕਵਣ ਥਿਤਿ ਕਵਣੁ ਵਾਰੁ ॥ कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥ परमात्मा ने यह सृष्टि जब पैदा की थी तब कौन-सा समय, कौन-सा पल, कौन-सी तिथि, तथा कौन-सा दिन था।
ਕਵਣਿ ਸਿ ਰੁਤੀ ਮਾਹੁ ਕਵਣੁ ਜਿਤੁ ਹੋਆ ਆਕਾਰੁ ॥ कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥ तब कौन-सी ऋतु, कौन-सा माह था, जब यह प्रसार हुआ था, यह सब कौन जानता है ?
ਵੇਲ ਨ ਪਾਈਆ ਪੰਡਤੀ ਜਿ ਹੋਵੈ ਲੇਖੁ ਪੁਰਾਣੁ ॥ वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥ सृष्टि के प्रसार का निश्चित समय महा विद्वान, ऋषि-मुनि आदि भी नहीं जान पाए, यदि वे जान पाते तो निश्चय ही उन्होंने वेदों अथवा धर्म-ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया होता।
ਵਖਤੁ ਨ ਪਾਇਓ ਕਾਦੀਆ ਜਿ ਲਿਖਨਿ ਲੇਖੁ ਕੁਰਾਣੁ ॥ वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥ इस समय का ज्ञान तो काजियों को भी नहीं हो पाया, यदि उन्हें पता होता तो वे कुरान आदि में इसका उल्लेख अवश्य करते।
ਥਿਤਿ ਵਾਰੁ ਨਾ ਜੋਗੀ ਜਾਣੈ ਰੁਤਿ ਮਾਹੁ ਨਾ ਕੋਈ ॥ थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥ इस सृष्टि की रचना का दिन, वार, ऋतु व महीना आदि कोई योगी भी नहीं जान पाया है।
ਜਾ ਕਰਤਾ ਸਿਰਠੀ ਕਉ ਸਾਜੇ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸੋਈ ॥ जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥ इसके बारे में तो जो इस जगत् का रचयिता है वह स्वयं ही जान सकता है कि इस सृष्टि का प्रसार कब किया गया।
ਕਿਵ ਕਰਿ ਆਖਾ ਕਿਵ ਸਾਲਾਹੀ ਕਿਉ ਵਰਨੀ ਕਿਵ ਜਾਣਾ ॥ किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥ मैं किस प्रकार उस अकाल पुरुष के चमत्कार को कहूँ, कैसे उसकी प्रशंसा करूँ, किस प्रकार वर्णन करूँ और कैसे उसके भेद को जान सकता हूँ ?


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