Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 834

Page 834

ਮਿਲਿ ਸਤਸੰਗਤਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਮੈ ਹਿਰਡ ਪਲਾਸ ਸੰਗਿ ਹਰਿ ਬੁਹੀਆ ॥੧॥ संतों की संगति में मिलकर मैंने परमपद पा लिया है। जैसे एरण्ड एवं ढाक के वृक्ष चंदन की संगति करके चंदन बन जाते हैं, वैसे ही मैं भी हरि से मिलकर सुगन्धित हो गया हूँ ॥१॥
ਜਪਿ ਜਗੰਨਾਥ ਜਗਦੀਸ ਗੁਸਈਆ ॥ जगन्नाथ, जगदीश, गुसई का जाप करो,
ਸਰਣਿ ਪਰੇ ਸੇਈ ਜਨ ਉਬਰੇ ਜਿਉ ਪ੍ਰਹਿਲਾਦ ਉਧਾਰਿ ਸਮਈਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जो उसकी शरण में आए हैं, उनका वैसे ही उद्धार हो गया है, जिस तरह भक्त प्रहलाद का उद्धार हो गया। १॥ रहाउ ॥
ਭਾਰ ਅਠਾਰਹ ਮਹਿ ਚੰਦਨੁ ਊਤਮ ਚੰਦਨ ਨਿਕਟਿ ਸਭ ਚੰਦਨੁ ਹੁਈਆ ॥ सारी वनस्पति में चंदन सर्वोत्तम है, चूंकि चंदन के निकट का प्रत्येक पेड़ चंदन बन गया है।
ਸਾਕਤ ਕੂੜੇ ਊਭ ਸੁਕ ਹੂਏ ਮਨਿ ਅਭਿਮਾਨੁ ਵਿਛੁੜਿ ਦੂਰਿ ਗਈਆ ॥੨॥ मायावी इतने झूठे हैं कि वे सूखे हुए खड़े पेड़ जैसे हैं, जिन पर चंदन (शुभ गुणों) का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनके मन में अभिमान ही भरा हुआ है, जिससे वे प्रभु से बिछुड़ कर दूर हो गए हैं।॥ २॥
ਹਰਿ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਕਰਤਾ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸਭ ਬਿਧਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਬਨਈਆ ॥ कर्ता परमेश्वर अपनी गति एवं विस्तार स्वयं ही जानता है।जगत्-रचना की सब विधियाँ अर्थात् नियम-विधान उसने स्वयं ही बनाए हैं।
ਜਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੇ ਸੁ ਕੰਚਨੁ ਹੋਵੈ ਜੋ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਮਿਟੈ ਨ ਮਿਟਈਆ ॥੩॥ जिसे सतगुरु मिल जाता है, वह गुणवान् बन जाता है। जो प्रारम्भ से ही भाग्य में लिखा होता है, उसे मिटाया नहीं सकता ॥ ३॥
ਰਤਨ ਪਦਾਰਥ ਗੁਰਮਤਿ ਪਾਵੈ ਸਾਗਰ ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ਖੁਲ੍ਹ੍ਹਈਆ ॥ गुरु के उपदेश से जीव नाम-रूपी रत्न-पदार्थ को पा लेता है। गुरु रूपी सागर भक्ति का भण्डार खुला हुआ है।
ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਇਕ ਸਰਧਾ ਉਪਜੀ ਮੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਕਹਤੇ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨ ਭਈਆ ॥੪॥ गुरु-चरणों में लगकर मन में श्रद्धा पैदा हो गई है और हरि गुणगान करते हुए मुझे तृप्ति नहीं हुई॥ ४॥
ਪਰਮ ਬੈਰਾਗੁ ਨਿਤ ਨਿਤ ਹਰਿ ਧਿਆਏ ਮੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਕਹਤੇ ਭਾਵਨੀ ਕਹੀਆ ॥ नित्य हरि का ध्यान करने से मन में बड़ा वैराग्य हो गया है और हरि का गुणानुवाद करते हुए अपनी निष्ठा को व्यक्त किया है।
ਬਾਰ ਬਾਰ ਖਿਨੁ ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਕਹੀਐ ਹਰਿ ਪਾਰੁ ਨ ਪਾਵੈ ਪਰੈ ਪਰਈਆ ॥੫॥ यदि बार-बार, क्षण-क्षण, हर पल हरि का यश किया जाए तो भी उसका अन्त नहीं पाया जा सकता, क्योंकि हरि अपरम्पार है॥ ५ ॥
ਸਾਸਤ ਬੇਦ ਪੁਰਾਣ ਪੁਕਾਰਹਿ ਧਰਮੁ ਕਰਹੁ ਖਟੁ ਕਰਮ ਦ੍ਰਿੜਈਆ ॥ वेद, शास्त्र एवं पुराण सब जीवों को धर्म करने की सीख देते हैं और षट्कर्म ही दृढ़ करवाते हैं।
ਮਨਮੁਖ ਪਾਖੰਡਿ ਭਰਮਿ ਵਿਗੂਤੇ ਲੋਭ ਲਹਰਿ ਨਾਵ ਭਾਰਿ ਬੁਡਈਆ ॥੬॥ स्वेच्छाचारी जीव पाखण्ड एवं भ्रम में पड़कर ख्वार होते रहते हैं। उनकी जीवन-नैया पापों के भार के कारण लोभ की लहरों में डूब जाती है।॥ ६॥
ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਨਾਮੇ ਗਤਿ ਪਾਵਹੁ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ੍ਰ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਈਆ ॥ स्मृतियों एवं शास्त्रों ने नाम ही दृढ़ करवाया है, इसलिए परमात्मा का नाम जपो और नाम जपकर गति पा लो।
ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਤ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਚੈ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਈਆ ॥੭॥ यदि अभिमान दूर हो जाए तो मन निर्मल हो जाता है। जो गुरु-सान्निध्य में लीन रहता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ ७॥
ਇਹੁ ਜਗੁ ਵਰਨੁ ਰੂਪੁ ਸਭੁ ਤੇਰਾ ਜਿਤੁ ਲਾਵਹਿ ਸੇ ਕਰਮ ਕਮਈਆ ॥ हे परमेश्वर ! यह जगत् तेरा ही रूप-रंग है, जैसे तू चाहता है, जीव वही कर्म करता है।
ਨਾਨਕ ਜੰਤ ਵਜਾਏ ਵਾਜਹਿ ਜਿਤੁ ਭਾਵੈ ਤਿਤੁ ਰਾਹਿ ਚਲਈਆ ॥੮॥੨॥੫॥ नानक का कथन है कि हे ईश्वर ! यह जीव तो तेरे वाजे हैं, जैसे तेरी इच्छा होती है, वैसे ही ये बजते हैं। जैसे तुझे उपयुक्त लगता है, वैसे ही राह पर चलते हैं।॥ ८ ॥ २॥ ५॥
ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੪ ॥ बिलावलु महला ४ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਧਿਆਇਆ ਹਉ ਬਲਿ ਬਲਿ ਸਤਿਗੁਰ ਸਤਿ ਪੁਰਖਈਆ ॥ गुरु के सान्निध्य में अगम्य, अगोचर परमात्मा का ध्यान किया है, इसलिए सत्यपुरुष सतगुरु पर बलिहारी जाता हूँ।
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਮੇਰੈ ਪ੍ਰਾਣਿ ਵਸਾਏ ਸਤਿਗੁਰ ਪਰਸਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਈਆ ॥੧॥ गुरु ने राम नाम मेरे प्राणों में बसा दिया है और सतगुरु के चरण-स्पर्श करके हरि-नाम में विलीन रहता हूँ॥ १॥
ਜਨ ਕੀ ਟੇਕ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਟਿਕਈਆ ॥ गुरु ने हरि-नाम को सेवक का आसरा बना दिया है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਧਰ ਲਾਗਾ ਜਾਵਾ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਰਿ ਦਰੁ ਲਹੀਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मैं तो सतगुरु के सहारे सन्मार्ग लग गया हूँ और गुरु की कृपा से हरि का द्वार ढूंढ लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਇਹੁ ਸਰੀਰੁ ਕਰਮ ਕੀ ਧਰਤੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਥਿ ਮਥਿ ਤਤੁ ਕਢਈਆ ॥ यह शरीर कर्मभूमि है, जैसे दूध का मंथन करने मक्खन निकाल लिया जाता है, वैसे ही गुरुमुख ने शरीर का मंथन करके नाम रूपी तत्व निकाल लिया है।
ਲਾਲੁ ਜਵੇਹਰ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਗਾਸਿਆ ਭਾਂਡੈ ਭਾਉ ਪਵੈ ਤਿਤੁ ਅਈਆ ॥੨॥ यह नाम रूपी रत्न जवाहर उसके हृदय रूपी बर्तन में आलोकित हो गया है, जिसमें प्रभु-प्रेम आ बसा है॥ २॥
ਦਾਸਨਿ ਦਾਸ ਦਾਸ ਹੋਇ ਰਹੀਐ ਜੋ ਜਨ ਰਾਮ ਭਗਤ ਨਿਜ ਭਈਆ ॥ जो राम का भक्त बन गया है, हमें तो उसके दास का दास बन कर रहना चाहिए।
ਮਨੁ ਬੁਧਿ ਅਰਪਿ ਧਰਉ ਗੁਰ ਆਗੈ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮੈ ਅਕਥੁ ਕਥਈਆ ॥੩॥ मैं गुरु के समक्ष अपना मन एवं बुद्धि सब अर्पण कर दूँगा, गुरु की कृपा से ही अकथनीय परमात्मा का कथन किया है॥ ३॥
ਮਨਮੁਖ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਵਿਆਪੇ ਇਹੁ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਜਲਤ ਤਿਖਈਆ ॥ मनमुखी जीव माया के मोह में ही फँसा रहता है, जिससे उसका प्यास मन तृष्णाग्नि में जलता रहता है।
ਗੁਰਮਤਿ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਜਲੁ ਪਾਇਆ ਅਗਨਿ ਬੁਝੀ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਬੁਝਈਆ ॥੪॥ गुरु के उपदेश द्वारा नामामृत रूपी जल मिल गया है, गुरु-शब्द ने तृष्णाग्नि बुझा दी है॥ ४॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਾਚੈ ਸਤਿਗੁਰ ਆਗੈ ਅਨਹਦ ਸਬਦ ਧੁਨਿ ਤੂਰ ਵਜਈਆ ॥ यह मन सतगुरु के समक्ष नाचता है और अनहद शब्द की ध्वनि का बाजा मन में बजता रहता है।


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