Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 730

Page 730

ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ राग सूही, प्रथम गुरु: १ ॥
ਭਾਂਡਾ ਹਛਾ ਸੋਇ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵਸੀ ॥ वास्तव में वही हृदय शुद्ध है, जो परमेश्वर को प्रसन्न करता है।
ਭਾਂਡਾ ਅਤਿ ਮਲੀਣੁ ਧੋਤਾ ਹਛਾ ਨ ਹੋਇਸੀ ॥ बुरे विचारों से भरा अपवित्र मन तीर्थ स्थान पर स्नान करने मात्र से शुद्ध नहीं होता।
ਗੁਰੂ ਦੁਆਰੈ ਹੋਇ ਸੋਝੀ ਪਾਇਸੀ ॥ गुरु के वचन को सुनने और उस पर मनन करने से ही व्यक्ति को सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
ਏਤੁ ਦੁਆਰੈ ਧੋਇ ਹਛਾ ਹੋਇਸੀ ॥ केवल शुद्ध हृदय से ही ईश्वर प्रसन्न होते हैं।
ਮੈਲੇ ਹਛੇ ਕਾ ਵੀਚਾਰੁ ਆਪਿ ਵਰਤਾਇਸੀ ॥ परमात्मा स्वयं ही मैले एवं अच्छे की समझ देते है।
ਮਤੁ ਕੋ ਜਾਣੈ ਜਾਇ ਅਗੈ ਪਾਇਸੀ ॥ यह धारणा कि परलोक में पहुँचने पर मन को शुद्ध करने के लिए ज्ञान प्राप्त होगा, व्यावहारिक नहीं है।
ਜੇਹੇ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ਤੇਹਾ ਹੋਇਸੀ ॥ जीव जैसे कर्म करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਉ ਆਪਿ ਵਰਤਾਇਸੀ ॥ हरि का नाम अमृत है और वह स्वयं ही यह देन जीवों को देते है।
ਚਲਿਆ ਪਤਿ ਸਿਉ ਜਨਮੁ ਸਵਾਰਿ ਵਾਜਾ ਵਾਇਸੀ ॥ जो व्यक्ति नाम जपता है, वह अपना जन्म संवार कर सम्मानपूर्वक परलोक को जाता है और इस दुनिया में अपनी कीर्ति का डंका बजा जाता है।
ਮਾਣਸੁ ਕਿਆ ਵੇਚਾਰਾ ਤਿਹੁ ਲੋਕ ਸੁਣਾਇਸੀ ॥ उस मनुष्य की तो बात ही क्या, उसका यश तीनों लोकों में व्याप्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਨਿਹਾਲ ਸਭਿ ਕੁਲ ਤਾਰਸੀ ॥੧॥੪॥੬॥ हे नानक ! ऐसा व्यक्ति न केवल स्वयं धन्य होता है और अपने सारे कुल को भवसागर से तार देता है। १॥ ४॥ ६॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ राग सूही, प्रथम गुरु: १ ॥
ਜੋਗੀ ਹੋਵੈ ਜੋਗਵੈ ਭੋਗੀ ਹੋਵੈ ਖਾਇ ॥ जो योगी होता है, वह योग साधना करता है। जो गृहस्थी होता है, वह भोग पदार्थों में ही लीन रहता है।
ਤਪੀਆ ਹੋਵੈ ਤਪੁ ਕਰੇ ਤੀਰਥਿ ਮਲਿ ਮਲਿ ਨਾਇ ॥੧॥ जो तपस्वी होता है, वह तपस्या ही करता है एवं तीर्थों में मल-मल कर सनान करता है॥ १॥
ਤੇਰਾ ਸਦੜਾ ਸੁਣੀਜੈ ਭਾਈ ਜੇ ਕੋ ਬਹੈ ਅਲਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ हे ईश्वर ! अगर कोई आपकी प्रशंसा मेरे साथ साझा करे तो मुझे सुनकर बहुत आनंद होगा। ॥ १॥ रहाउ॥
ਜੈਸਾ ਬੀਜੈ ਸੋ ਲੁਣੇ ਜੋ ਖਟੇ ਸੋੁ ਖਾਇ ॥ जैसा बीज आदमी बोता है, वैसा ही फल वह काटता है। जैसी कमाई करता है, वैसा ही उपभोग करता है।
ਅਗੈ ਪੁਛ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਸਣੁ ਨੀਸਾਣੈ ਜਾਇ ॥੨॥ यदि कोई परमात्मा के दरबार में नाम रूपी चिन्ह सहित जाए तो उससे वहाँ कोई पूछताछ नहीं होती। ॥ २ ॥
ਤੈਸੋ ਜੈਸਾ ਕਾਢੀਐ ਜੈਸੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥ जीव अपने कर्मों के आधार पर ही नाम कमाता है।
ਜੋ ਦਮੁ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵਈ ਸੋ ਦਮੁ ਬਿਰਥਾ ਜਾਇ ॥੩॥ जीवन की जिस सांस में परमात्मा याद नहीं आते, वह सांस व्यर्थ ही बीत जाती है ॥ ३॥
ਇਹੁ ਤਨੁ ਵੇਚੀ ਬੈ ਕਰੀ ਜੇ ਕੋ ਲਏ ਵਿਕਾਇ ॥ यदि कोई इस शरीर को केवल भगवान् के नाम के बदले खरीदे तो मैं इसे बेच दूंगा।
ਨਾਨਕ ਕੰਮਿ ਨ ਆਵਈ ਜਿਤੁ ਤਨਿ ਨਾਹੀ ਸਚਾ ਨਾਉ ॥੪॥੫॥੭॥ हे नानक ! जिस तन में सत्य-नाम नहीं बसता, वह किसी काम नहीं आता ॥ ४ ॥ ५ ॥ ७ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੭ राग सूही, प्रथम गुरु, सातवीं ताल: ७
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ईश्वर एक है जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है। ॥
ਜੋਗੁ ਨ ਖਿੰਥਾ ਜੋਗੁ ਨ ਡੰਡੈ ਜੋਗੁ ਨ ਭਸਮ ਚੜਾਈਐ ॥ योगी के वस्त्र पहनना या हाथ में डंडा पकड़ लेना योग नहीं है और शरीर पर भस्म लगा लेना भी योगसाधना नहीं है।
ਜੋਗੁ ਨ ਮੁੰਦੀ ਮੂੰਡਿ ਮੁਡਾਇਐ ਜੋਗੁ ਨ ਸਿੰਙੀ ਵਾਈਐ ॥ कानों में मुद्रा पहन लेना और सिर मुंडवा लेना भी योग नहीं है। सिंगी बजाने से भी योग-साधना नहीं हो सकती।
ਅੰਜਨ ਮਾਹਿ ਨਿਰੰਜਨਿ ਰਹੀਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਇਵ ਪਾਈਐ ॥੧॥ योग का मार्ग सांसारिक धन-संपत्ति के बीच रहते हुए भी उसके प्रेम से से निर्लिप्त रहना है। ॥ १॥
ਗਲੀ ਜੋਗੁ ਨ ਹੋਈ ॥ केवल बातचीत और बिना कर्म किए ईश्वर से मिलन नहीं होता।
ਏਕ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਕਰਿ ਸਮਸਰਿ ਜਾਣੈ ਜੋਗੀ ਕਹੀਐ ਸੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ योगी उसे ही कहा जाता है, जो सब को एक दृष्टि से देखता है तथा एक समान समझता है॥ १॥ रहाउ॥
ਜੋਗੁ ਨ ਬਾਹਰਿ ਮੜੀ ਮਸਾਣੀ ਜੋਗੁ ਨ ਤਾੜੀ ਲਾਈਐ ॥ बाहर श्मशान में रहना योग-साधना नहीं है और न ही समाधि लगाना योग है।
ਜੋਗੁ ਨ ਦੇਸਿ ਦਿਸੰਤਰਿ ਭਵਿਐ ਜੋਗੁ ਨ ਤੀਰਥਿ ਨਾਈਐ ॥ देश-परदेश में भ्रमण करना और तीर्थों में स्नान करना भी योग नहीं है।
ਅੰਜਨ ਮਾਹਿ ਨਿਰੰਜਨਿ ਰਹੀਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਇਵ ਪਾਈਐ ॥੨॥ योग की युक्ति यही है कि मोह-माया में रहते हुए माया से निर्लिप्त रहें ॥ २ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੈ ਤਾ ਸਹਸਾ ਤੂਟੈ ਧਾਵਤੁ ਵਰਜਿ ਰਹਾਈਐ ॥ जब सतगुरु मिल जाते हैं तो मानव का संदेह समाप्त हो जाता है और वह भटकते हुए मन को वश में कर लेता है।
ਨਿਝਰੁ ਝਰੈ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਲਾਗੈ ਘਰ ਹੀ ਪਰਚਾ ਪਾਈਐ ॥ उसके हृदय में अमृत-नाम का झरना बहने लग जाता है, उसका मन मधुर अनहद ध्वनि को सुनने लगता है और हृदय-घर में विद्यमान परमात्मा के साथ वह लीन रहता है।
ਅੰਜਨ ਮਾਹਿ ਨਿਰੰਜਨਿ ਰਹੀਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਇਵ ਪਾਈਐ ॥੩॥ वास्तव में मोह माया में रहकर माया से निर्लिप्त रहना ही योग-युक्ति है॥ ३॥
ਨਾਨਕ ਜੀਵਤਿਆ ਮਰਿ ਰਹੀਐ ਐਸਾ ਜੋਗੁ ਕਮਾਈਐ ॥ हे नानक ! ऐसी योग-साधना करनी चाहिए कि जीवन में मोह-माया से तटस्थ रहा जाए।
ਵਾਜੇ ਬਾਝਹੁ ਸਿੰਙੀ ਵਾਜੈ ਤਉ ਨਿਰਭਉ ਪਦੁ ਪਾਈਐ ॥ जब अन्तर्मन में बाजे के बिना ही अनहद ध्वनि रूपी सिंगी बजती है तो निर्भय पद की प्राप्ति हो जाती है।
ਅੰਜਨ ਮਾਹਿ ਨਿਰੰਜਨਿ ਰਹੀਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਤਉ ਪਾਈਐ ॥੪॥੧॥੮॥ योग का मार्ग इस विधि से ही पाया जाता है कि माया में रहते हुए ही निरंजन अर्थात् माया से निर्लिप्त रहे ॥ ४॥ १ ॥ ८॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ राग सूही, प्रथम गुरु: १ ॥
ਕਉਣ ਤਰਾਜੀ ਕਵਣੁ ਤੁਲਾ ਤੇਰਾ ਕਵਣੁ ਸਰਾਫੁ ਬੁਲਾਵਾ ॥ हे ईश्वर ! वह कौन-सा तराजू है, कौन-सा तुला है, जिसमें मैं आपके गुणों का भार तोलूं ?
ਕਉਣੁ ਗੁਰੂ ਕੈ ਪਹਿ ਦੀਖਿਆ ਲੇਵਾ ਕੈ ਪਹਿ ਮੁਲੁ ਕਰਾਵਾ ॥੧॥ आपकी महिमा की परख करने के लिए मैं किस जौहरी को बुलाऊँ ? कौन-से गुरु के पास दीक्षा लूं, और किससे मैं मूल्यांकन कराऊँ ? ॥ १॥


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