Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 616

Page 616

ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਅਪੁਨੋ ਕਰਿ ਲੀਨਾ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਅਬਿਨਾਸੀ ॥੨॥ करि किरपा अपुनो करि लीना मनि वसिआ अबिनासी ॥२॥ तब भगवान् उस पर अपनी करुणा बरसाते हैं और उसे अपना बना लेते हैं; तभी वह शाश्वत प्रभु को अपने हृदय में विराजमान अनुभव करता है।॥ २॥
ਤਾ ਕਉ ਬਿਘਨੁ ਨ ਕੋਊ ਲਾਗੈ ਜੋ ਸਤਿਗੁਰਿ ਅਪੁਨੈ ਰਾਖੇ ॥ ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जो सतिगुरि अपुनै राखे ॥ जिसकी रक्षा स्वयं सतगुरु करते हैं, उसे कोई संकट नहीं आता।
ਚਰਨ ਕਮਲ ਬਸੇ ਰਿਦ ਅੰਤਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖੇ ॥੩॥ चरन कमल बसे रिद अंतरि अम्रित हरि रसु चाखे ॥३॥ उसके हृदय में भगवान् के सुन्दर चरण कमल बस जाते हैं और वह हरि-रस अमृत को चखता रहता है॥ ३॥
ਕਰਿ ਸੇਵਾ ਸੇਵਕ ਪ੍ਰਭ ਅਪੁਨੇ ਜਿਨਿ ਮਨ ਕੀ ਇਛ ਪੁਜਾਈ ॥ करि सेवा सेवक प्रभ अपुने जिनि मन की इछ पुजाई ॥ जिस प्रभु ने तेरे मन की अभिलाषा पूर्ण कर दी है, उसकी सेवा-भक्ति सेवक की भांति कर।
ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਤਾ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਿਨਿ ਪੂਰਨ ਪੈਜ ਰਖਾਈ ॥੪॥੧੪॥੨੫॥ नानक दास ता कै बलिहारै जिनि पूरन पैज रखाई ॥४॥१४॥२५॥ दास नानक तो उस प्रभु पर बलिहारी जाते है, जिसने उसकी पूर्ण लाज-प्रतिष्ठा बचा ली है॥ ४॥ १४॥ २५ ॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ सोरठि महला ५ ॥ राग सोरठ, पाँचवें गुरु: ५ ॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਮਗਨੁ ਅੰਧਿਆਰੈ ਦੇਵਨਹਾਰੁ ਨ ਜਾਨੈ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ माया-मोह के अन्धेरे में मग्न होकर मनुष्य सब कुछ देने वाले दाता को नहीं जानता।
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਾਜਿ ਜਿਨਿ ਰਚਿਆ ਬਲੁ ਅਪੁਨੋ ਕਰਿ ਮਾਨੈ ॥੧॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥ वह उसे नहीं जानता, जिसने प्राण एवं शरीर की सृजना करके उसकी रचना की है और जो शक्ति उसके भीतर है, वह उसे ही अपना मानता है॥ १॥
ਮਨ ਮੂੜੇ ਦੇਖਿ ਰਹਿਓ ਪ੍ਰਭ ਸੁਆਮੀ ॥ मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ हे विमूढ़ मन ! स्वामी-प्रभु तेरे कर्मों को देख रहा है।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰਹਿ ਸੋਈ ਸੋਈ ਜਾਣੈ ਰਹੈ ਨ ਕਛੂਐ ਛਾਨੀ ॥ ਰਹਾਉ ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ ॥ जो कुछ तू करता है, वह सब जानता है और कुछ भी उससे छिपा नहीं रह सकता ॥ रहाउ॥
ਜਿਹਵਾ ਸੁਆਦ ਲੋਭ ਮਦਿ ਮਾਤੋ ਉਪਜੇ ਅਨਿਕ ਬਿਕਾਰਾ ॥ जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ जिह्वा के स्वाद एवं लालच के नशे में मदमस्त व्यक्ति के अन्दर अनेक पाप-विकार ही उत्पन्न होते हैं।
ਬਹੁਤੁ ਜੋਨਿ ਭਰਮਤ ਦੁਖੁ ਪਾਇਆ ਹਉਮੈ ਬੰਧਨ ਕੇ ਭਾਰਾ ॥੨॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥ अहंकार के बन्धनों के बोझ के निचे अनेक योनियों में भटकता हुआ वह बहुत दुःख भोगता है॥ २॥
ਦੇਇ ਕਿਵਾੜ ਅਨਿਕ ਪੜਦੇ ਮਹਿ ਪਰ ਦਾਰਾ ਸੰਗਿ ਫਾਕੈ ॥ देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ द्वार बन्द करके एवं अनेक पदों के भीतर मनुष्य पराई नारी के साथ भोग-विलास करता है।
ਚਿਤ੍ਰ ਗੁਪਤੁ ਜਬ ਲੇਖਾ ਮਾਗਹਿ ਤਬ ਕਉਣੁ ਪੜਦਾ ਤੇਰਾ ਢਾਕੈ ॥੩॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥ लेकिन जब चित्रगुप्त तुझसे कर्मों का लेखा मांगेगा तो तेरे कुकर्मों पर कौन पर्दा डालेगा ?॥ ३॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਪੂਰਨ ਦੁਖ ਭੰਜਨ ਤੁਮ ਬਿਨੁ ਓਟ ਨ ਕਾਈ ॥ दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ हे दीनदयाल ! हे सर्वव्यापी ! हे दुःखनाशक ! आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहारा नहीं है।
ਕਾਢਿ ਲੇਹੁ ਸੰਸਾਰ ਸਾਗਰ ਮਹਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਈ ॥੪॥੧੫॥੨੬॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥ हे प्रभु ! नानक ने आपकी ही शरण ली है, इसीलिए उसे संसार-सागर में से बाहर निकाल लो॥ ४॥ १५ ॥ २६ ॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ सोरठि महला ५ ॥ राग सोरठ, पाँचवें गुरु: ५ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਹੋਆ ਸਹਾਈ ਕਥਾ ਕੀਰਤਨੁ ਸੁਖਦਾਈ ॥ पारब्रहमु होआ सहाई कथा कीरतनु सुखदाई ॥ पारब्रह्म-प्रभु मेरे सहायक हो गए हैं और उसकी कथा एवं कीर्तन सुखदायक है।
ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਕੀ ਬਾਣੀ ਜਪਿ ਅਨਦੁ ਕਰਹੁ ਨਿਤ ਪ੍ਰਾਣੀ ॥੧॥ गुर पूरे की बाणी जपि अनदु करहु नित प्राणी ॥१॥ हे प्राणी ! पूर्ण गुरु की वाणी का जाप करके नित्य आनंद करो।॥ १॥
ਹਰਿ ਸਾਚਾ ਸਿਮਰਹੁ ਭਾਈ ॥ हरि साचा सिमरहु भाई ॥ हे भाई ! सच्चे परमेश्वर की आराधना करो।
ਸਾਧਸੰਗਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਬਿਸਰਿ ਨ ਕਬਹੂ ਜਾਈ ॥ ਰਹਾਉ साधसंगि सदा सुखु पाईऐ हरि बिसरि न कबहू जाई ॥ रहाउ ॥ सत्संगति में हमेशा सुख की प्राप्ति होती है और भगवान् कभी भी विस्मृत नहीं होता॥ रहाउ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਪਰਮੇਸਰੁ ਤੇਰਾ ਜੋ ਸਿਮਰੈ ਸੋ ਜੀਵੈ ॥ अम्रित नामु परमेसरु तेरा जो सिमरै सो जीवै ॥ हे परमेश्वर ! आपका नाम अमृत है, जो भी आपका नाम-सिमरन करता है, वह जीवित रहता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ਸੋ ਜਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਥੀਵੈ ॥੨॥ जिस नो करमि परापति होवै सो जनु निरमलु थीवै ॥२॥ जिस पर परमात्मा का कर्म होता है, वह मनुष्य पवित्र हो जाता है॥ २॥
ਬਿਘਨ ਬਿਨਾਸਨ ਸਭਿ ਦੁਖ ਨਾਸਨ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਮਨੁ ਲਾਗਾ ॥ बिघन बिनासन सभि दुख नासन गुर चरणी मनु लागा ॥ मेरा मन उस गुरु के चरणों में लगा है, जो विघ्नों का विनाश करने वाला एवं सब दु:खों का नाशक है।
ਗੁਣ ਗਾਵਤ ਅਚੁਤ ਅਬਿਨਾਸੀ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਜਾਗਾ ॥੩॥ गुण गावत अचुत अबिनासी अनदिनु हरि रंगि जागा ॥३॥ अच्युत अविनाशी प्रभु का गुणगान करते हुए मैं रात-दिन हरि-रंग में जाग्रत रहता हूँ॥ ३॥
ਮਨ ਇਛੇ ਸੇਈ ਫਲ ਪਾਏ ਹਰਿ ਕੀ ਕਥਾ ਸੁਹੇਲੀ ॥ मन इछे सेई फल पाए हरि की कथा सुहेली ॥ सुखकारी हरि की कथा सुनने से मुझे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई है।
ਆਦਿ ਅੰਤਿ ਮਧਿ ਨਾਨਕ ਕਉ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਹੋਆ ਬੇਲੀ ॥੪॥੧੬॥੨੭॥ आदि अंति मधि नानक कउ सो प्रभु होआ बेली ॥४॥१६॥२७॥ आदिकाल, मध्यकाल एवं अन्तकाल तक वह प्रभु ही नानक का साथी बना हुआ है॥ ४॥ १६॥ २७॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ਪੰਚਪਦਾ ॥ सोरठि महला ५ पंचपदा ॥ राग सोरठ, पाँचवें गुरु, पाँच पंक्तियाँ: ॥
ਬਿਨਸੈ ਮੋਹੁ ਮੇਰਾ ਅਰੁ ਤੇਰਾ ਬਿਨਸੈ ਅਪਨੀ ਧਾਰੀ ॥੧॥ बिनसै मोहु मेरा अरु तेरा बिनसै अपनी धारी ॥१॥ ईश्वर करे मेरा मोह और मेरा-तेरा की भावना तथा अहंकार का नाश हो जाए॥ १॥
ਸੰਤਹੁ ਇਹਾ ਬਤਾਵਹੁ ਕਾਰੀ ॥ संतहु इहा बतावहु कारी ॥ हे संतो ! मुझे कोई ऐसी युक्ति बताओ,
ਜਿਤੁ ਹਉਮੈ ਗਰਬੁ ਨਿਵਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ जितु हउमै गरबु निवारी ॥१॥ रहाउ ॥ जिससे मेरा आत्माभिमान एवं घमण्ड का नाश हो जाए॥ १॥ रहाउ॥
ਸਰਬ ਭੂਤ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਕਰਿ ਮਾਨਿਆ ਹੋਵਾਂ ਸਗਲ ਰੇਨਾਰੀ ॥੨॥ सरब भूत पारब्रहमु करि मानिआ होवां सगल रेनारी ॥२॥ मैं प्रार्थना करता हूं कि मुझे ईश्वर को सर्वत्र व्याप्त देखने की दृष्टि प्राप्त हो, और मैं इतनी विनम्रता धारण कर सकूं कि स्वयं को सभी के चरणों की धूल के समान अनुभव करूं।॥ २॥
ਪੇਖਿਓ ਪ੍ਰਭ ਜੀਉ ਅਪੁਨੈ ਸੰਗੇ ਚੂਕੈ ਭੀਤਿ ਭ੍ਰਮਾਰੀ ॥੩॥ पेखिओ प्रभ जीउ अपुनै संगे चूकै भीति भ्रमारी ॥३॥ पूज्य परमेश्वर को हमेशा मैंने अपने साथ ही देखा है, जिससे मेरी दुविधा की दीवार ध्वस्त हो गई है॥ ३॥
ਅਉਖਧੁ ਨਾਮੁ ਨਿਰਮਲ ਜਲੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪਾਈਐ ਗੁਰੂ ਦੁਆਰੀ ॥੪॥ अउखधु नामु निरमल जलु अम्रितु पाईऐ गुरू दुआरी ॥४॥ भगवान् की नाम-औषधि एवं निर्मल अमृत जल की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही होती है॥ ४॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਮਸਤਕਿ ਲਿਖਿਆ ਤਿਸੁ ਗੁਰ ਮਿਲਿ ਰੋਗ ਬਿਦਾਰੀ ॥੫॥੧੭॥੨੮॥ कहु नानक जिसु मसतकि लिखिआ तिसु गुर मिलि रोग बिदारी ॥५॥१७॥२८॥ हे नानक ! जिस व्यक्ति के भाग्य में लिखा हुआ है, उसने गुरु से मिलकर अपना रोग नष्ट कर लिया है ॥५॥१७॥२८॥


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