Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 556

Page 556

ਜਿਚਰੁ ਵਿਚਿ ਦੰਮੁ ਹੈ ਤਿਚਰੁ ਨ ਚੇਤਈ ਕਿ ਕਰੇਗੁ ਅਗੈ ਜਾਇ ॥ जिचरु विचि दमु है तिचरु न चेतई कि करेगु अगै जाइ ॥ जो जीव जब तक शरीर में प्राण होते हैं, तब तक मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता। परलोक में उस जीव की क्या दुर्दशा होगी?
ਗਿਆਨੀ ਹੋਇ ਸੁ ਚੇਤੰਨੁ ਹੋਇ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧੁ ਕਮਾਇ ॥ गिआनी होइ सु चेतंनु होइ अगिआनी अंधु कमाइ ॥ फिर आगे परलोक में पहुँच कर क्या करेगा ? जो व्यक्ति ज्ञानवान है, वह चेतन होता है लेकिन अज्ञानी व्यक्ति अन्धे कर्मों में ही क्रियाशील रहता है।
ਨਾਨਕ ਏਥੈ ਕਮਾਵੈ ਸੋ ਮਿਲੈ ਅਗੈ ਪਾਏ ਜਾਇ ॥੧॥ नानक एथै कमावै सो मिलै अगै पाए जाइ ॥१॥ हे नानक ! इहलोक में मनुष्य जो भी कर्म करता है, वही मिलता है तथा परलोक में जाकर वही प्राप्त होता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरु: ३ ॥
ਧੁਰਿ ਖਸਮੈ ਕਾ ਹੁਕਮੁ ਪਇਆ ਵਿਣੁ ਸਤਿਗੁਰ ਚੇਤਿਆ ਨ ਜਾਇ ॥ धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥ आदि काल से ही गुरु-भगवान् की यह इच्छा रही है कि जब तक सच्चे गुरु की शिक्षाओं का पालन न किया जाए, तब तक भगवान का सच्चा स्मरण संभव नहीं है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਅੰਤਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸਦਾ ਰਹਿਆ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥ सतिगुरि मिलिऐ अंतरि रवि रहिआ सदा रहिआ लिव लाइ ॥ सच्चा गुरु मिल जाए तो मनुष्य अपने मन में ही परमात्मा को अनुभव करता है और हमेशा ही उसकी सुरति में समाया रहता है।
ਦਮਿ ਦਮਿ ਸਦਾ ਸਮਾਲਦਾ ਦੰਮੁ ਨ ਬਿਰਥਾ ਜਾਇ ॥ दमि दमि सदा समालदा दमु न बिरथा जाइ ॥ स-श्वास से सर्वदा वह उसे याद करता है और उसका कोई भी श्वास व्यर्थ नहीं जाता।
ਜਨਮ ਮਰਨ ਕਾ ਭਉ ਗਇਆ ਜੀਵਨ ਪਦਵੀ ਪਾਇ ॥ जनम मरन का भउ गइआ जीवन पदवी पाइ ॥ उसके जन्म और मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, और उसे मानव जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਮਰਤਬਾ ਤਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਜਿਸ ਨੋ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੨॥ नानक इहु मरतबा तिस नो देइ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥ हे नानक ! परमात्मा यह अमर पदवी उसे ही प्रदान करते हैं, जिस पर अपनी इच्छानुसार कृपा करते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਆਪੇ ਦਾਨਾਂ ਬੀਨਿਆ ਆਪੇ ਪਰਧਾਨਾਂ ॥ आपे दानां बीनिआ आपे परधानां ॥ परमात्मा आप ही सर्वज्ञाता, त्रिकालदर्शी और आप ही प्रधान है।
ਆਪੇ ਰੂਪ ਦਿਖਾਲਦਾ ਆਪੇ ਲਾਇ ਧਿਆਨਾਂ ॥ आपे रूप दिखालदा आपे लाइ धिआनां ॥ वह आप ही अपने रूप का दर्शन कराते हैं और आप ही मनुष्य को ध्यान-मनन में लगा देते हैं।
ਆਪੇ ਮੋਨੀ ਵਰਤਦਾ ਆਪੇ ਕਥੈ ਗਿਆਨਾਂ ॥ आपे मोनी वरतदा आपे कथै गिआनां ॥ वह आप ही मौनावस्था में विचरन करते है और आप ही ब्रह्म-ज्ञान का कथन करते है।
ਕਉੜਾ ਕਿਸੈ ਨ ਲਗਈ ਸਭਨਾ ਹੀ ਭਾਨਾ ॥ कउड़ा किसै न लगई सभना ही भाना ॥ वह किसी को कड़वा नहीं लगते और सभी को भले लगते है।
ਉਸਤਤਿ ਬਰਨਿ ਨ ਸਕੀਐ ਸਦ ਸਦ ਕੁਰਬਾਨਾ ॥੧੯॥ उसतति बरनि न सकीऐ सद सद कुरबाना ॥१९॥ उनकी महिमा-स्तुति वर्णित नहीं की जा सकती और मैं उन पर सर्वदा बलिहारी जाता हूँ ॥१६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥ सलोक मः १ ॥ श्लोक, प्रथम गुरु:१॥
ਕਲੀ ਅੰਦਰਿ ਨਾਨਕਾ ਜਿੰਨਾਂ ਦਾ ਅਉਤਾਰੁ ॥ कली अंदरि नानका जिंनां दा अउतारु ॥ कलियुग में (नाम विहीन इन्सान) धरती में भूत-पिशाच ही पैदा हुए हैं।
ਪੁਤੁ ਜਿਨੂਰਾ ਧੀਅ ਜਿੰਨੂਰੀ ਜੋਰੂ ਜਿੰਨਾ ਦਾ ਸਿਕਦਾਰੁ ॥੧॥ पुतु जिनूरा धीअ जिंनूरी जोरू जिंना दा सिकदारु ॥१॥ पुत्र प्रेत है, पुत्री चुड़ैल और जोरू (पत्नी) इन प्रेत-चुडैलों की मालकिन है॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥ मः १ ॥ प्रथम गुरु:१॥
ਹਿੰਦੂ ਮੂਲੇ ਭੂਲੇ ਅਖੁਟੀ ਜਾਂਹੀ ॥ हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ॥ हिन्दुओं ने तो मूल रूप से परमात्मा को विस्मृत ही कर दिया है और कुमार्गगामी होते जा रहे हैं।
ਨਾਰਦਿ ਕਹਿਆ ਸਿ ਪੂਜ ਕਰਾਂਹੀ ॥ नारदि कहिआ सि पूज करांही ॥ जैसे नारद मुनि ने कथन किया है वैसे ही मूर्ति-पूजा कर रहे हैं।
ਅੰਧੇ ਗੁੰਗੇ ਅੰਧ ਅੰਧਾਰੁ ॥ अंधे गुंगे अंध अंधारु ॥ वे अन्धे, गूंगे एवं अन्धों के भी महा अंधे अन्धकार में अंधे हो चुके हैं।
ਪਾਥਰੁ ਲੇ ਪੂਜਹਿ ਮੁਗਧ ਗਵਾਰ ॥ पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ॥ वे मूर्ख तथा गंवार पत्थरों की मूर्तियां लेकर उनकी पूजा करते हैं।
ਓਹਿ ਜਾ ਆਪਿ ਡੁਬੇ ਤੁਮ ਕਹਾ ਤਰਣਹਾਰੁ ॥੨॥ ओहि जा आपि डुबे तुम कहा तरणहारु ॥२॥ वे पत्थर जब स्वयं ही डूब जाते हैं, वे तुझे कैसे भवसागर से पार करवा सकते हैं ? ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਸਭੁ ਕਿਹੁ ਤੇਰੈ ਵਸਿ ਹੈ ਤੂ ਸਚਾ ਸਾਹੁ ॥ सभु किहु तेरै वसि है तू सचा साहु ॥ हे प्रभु! सब कुछ आपके वश में है और आप ही एक सच्चे साहूकार है।
ਭਗਤ ਰਤੇ ਰੰਗਿ ਏਕ ਕੈ ਪੂਰਾ ਵੇਸਾਹੁ ॥ भगत रते रंगि एक कै पूरा वेसाहु ॥ आपके भक्तजन केवल आपकी ही प्रेमा-भक्ति में रंगे हुए हैं और एक आप पर ही उनकी पूर्ण आस्था है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਭੋਜਨੁ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ਰਜਿ ਰਜਿ ਜਨ ਖਾਹੁ ॥ अम्रितु भोजनु नामु हरि रजि रजि जन खाहु ॥ हरिनामामृत ही उनका भोजन है, जिसे पेट भर-भर कर भक्तजन खाते रहते हैं।
ਸਭਿ ਪਦਾਰਥ ਪਾਈਅਨਿ ਸਿਮਰਣੁ ਸਚੁ ਲਾਹੁ ॥ सभि पदारथ पाईअनि सिमरणु सचु लाहु ॥ परमात्मा का सिमरन ही सच्चा लाभ है, जिससे सभी पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं।
ਸੰਤ ਪਿਆਰੇ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਅਗਮ ਅਗਾਹੁ ॥੨੦॥ संत पिआरे पारब्रहम नानक हरि अगम अगाहु ॥२०॥ नानक कहते हैं कि जो हरि अगम्य एवं अनन्त है, उस पारब्रह्म-प्रभु को संतजन ही प्रिय लगते हैं।॥२०॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ सलोक मः ३ ॥ श्लोक, तृतीय गुरु ३॥
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਹੁਕਮੇ ਆਵਦਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਹੁਕਮੇ ਜਾਇ ॥ सभु किछु हुकमे आवदा सभु किछु हुकमे जाइ ॥ सब कुछ परमात्मा के आदेश अनुसार ही आता और चला जाता है।
ਜੇ ਕੋ ਮੂਰਖੁ ਆਪਹੁ ਜਾਣੈ ਅੰਧਾ ਅੰਧੁ ਕਮਾਇ ॥ जे को मूरखु आपहु जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ यदि कोई मूर्ख अपने आपको ही करने वाला जानता है तो वह अन्धा ही है और अंधे कर्म ही कर रहा है।
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੁ ਕੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੁਝੈ ਜਿਸ ਨੋ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੧॥ नानक हुकमु को गुरमुखि बुझै जिस नो किरपा करे रजाइ ॥१॥ हे नानक ! कोई विरला गुरुमुख ही परमात्मा के आदेश को समझता है, जिस पर वह अपनी इच्छा से कृपा करते हैं ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ मः ३ ॥ तृतीय गुरुः ३॥
ਸੋ ਜੋਗੀ ਜੁਗਤਿ ਸੋ ਪਾਏ ਜਿਸ ਨੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥ सो जोगी जुगति सो पाए जिस नो गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ जिसे गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त हुआ है, वही वास्तव में योगी है और उसे ही सच्ची योग युक्ति प्राप्त होती है।
ਤਿਸੁ ਜੋਗੀ ਕੀ ਨਗਰੀ ਸਭੁ ਕੋ ਵਸੈ ਭੇਖੀ ਜੋਗੁ ਨ ਹੋਇ ॥ तिसु जोगी की नगरी सभु को वसै भेखी जोगु न होइ ॥ उस योगी के देहि रूपी नगर में सर्व प्रकार के गुण निवास करते हैं किन्तु योगी का वेष धारण करने से सच्चा योग प्राप्त नहीं होता।
ਨਾਨਕ ਐਸਾ ਵਿਰਲਾ ਕੋ ਜੋਗੀ ਜਿਸੁ ਘਟਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥੨॥ नानक ऐसा विरला को जोगी जिसु घटि परगटु होइ ॥२॥ हे नानक ! ऐसा विरला ही कोई योगी है, जिसके अन्तर्मन में परमात्मा प्रगट होते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी।
ਆਪੇ ਜੰਤ ਉਪਾਇਅਨੁ ਆਪੇ ਆਧਾਰੁ ॥ आपे जंत उपाइअनु आपे आधारु ॥ भगवान् ने संवयं ही जीव उत्पन्न किए हैं और स्वयं ही उन सबका आधार है।
ਆਪੇ ਸੂਖਮੁ ਭਾਲੀਐ ਆਪੇ ਪਾਸਾਰੁ ॥ आपे सूखमु भालीऐ आपे पासारु ॥ वह आप ही सूक्ष्म रूप में दिखाई देते हैं और आप ही उनका विश्व में प्रसार नजर आता है।
ਆਪਿ ਇਕਾਤੀ ਹੋਇ ਰਹੈ ਆਪੇ ਵਡ ਪਰਵਾਰੁ ॥ आपि इकाती होइ रहै आपे वड परवारु ॥ वे स्वयं एकांतवासी होते हैं, फिर भी उनका परिवार संपूर्ण जगत होता है।
ਨਾਨਕੁ ਮੰਗੈ ਦਾਨੁ ਹਰਿ ਸੰਤਾ ਰੇਨਾਰੁ ॥ नानकु मंगै दानु हरि संता रेनारु ॥ दास नानक तो परमात्मा के संतों की चरण-धूलि का ही दान माँगते हैं।
ਹੋਰੁ ਦਾਤਾਰੁ ਨ ਸੁਝਈ ਤੂ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥੨੧॥੧॥ ਸੁਧੁ ॥ होरु दातारु न सुझई तू देवणहारु ॥२१॥१॥ सुधु ॥ हे परमेश्वर ! आप ही जीवों को देने वाला है और आपके अतिरिक्त मुझे अन्य कोई भी दाता नज़र नहीं आता ॥२१॥१॥ शुद्ध ॥


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