Guru Granth Sahib Translation Project

Guru Granth Sahib Hindi Page 523

Page 523

ਸਿਰਿ ਸਭਨਾ ਸਮਰਥੁ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲਿਆ ॥੧੭॥ सिरि सभना समरथु नदरि निहालिआ ॥१७॥ आप ही समस्त प्राणियों के सर्वशक्तिमान स्वामी हैं तथा सब पर अपनी कृपादृष्टि समान रूप से बरसाते हैं ॥१७॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥ सलोक मः ५ ॥ श्लोक, पांचवें गुरु: ५॥
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਮਦ ਲੋਭ ਮੋਹ ਦੁਸਟ ਬਾਸਨਾ ਨਿਵਾਰਿ ॥ काम क्रोध मद लोभ मोह दुसट बासना निवारि ॥ हे मेरे ईश्वर ! काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह तथा दुष्ट वासना का नाश करके मेरी रक्षा करो।
ਰਾਖਿ ਲੇਹੁ ਪ੍ਰਭ ਆਪਣੇ ਨਾਨਕ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰਿ ॥੧॥ राखि लेहु प्रभ आपणे नानक सद बलिहारि ॥१॥ नानक सदैव ही आप पर बलिहारी जाता है ॥१॥
ਮਃ ੫ ॥ मः ५ ॥ पांचवें गुरु: ५॥
ਖਾਂਦਿਆ ਖਾਂਦਿਆ ਮੁਹੁ ਘਠਾ ਪੈਨੰਦਿਆ ਸਭੁ ਅੰਗੁ ॥ खांदिआ खांदिआ मुहु घठा पैनंदिआ सभु अंगु ॥ (स्वादिष्ट व्यंजन) खाते-खाते मुँह घिस गया है और शरीर के सभी अंग पहनते-पहनते क्षीण हो गए हैं।
ਨਾਨਕ ਧ੍ਰਿਗੁ ਤਿਨਾ ਦਾ ਜੀਵਿਆ ਜਿਨ ਸਚਿ ਨ ਲਗੋ ਰੰਗੁ ॥੨॥ नानक ध्रिगु तिना दा जीविआ जिन सचि न लगो रंगु ॥२॥ हे नानक ! उनका जीवन धिक्कार योग्य है, जिनका सत्य के साथ प्रेम नहीं लगा ॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी॥
ਜਿਉ ਜਿਉ ਤੇਰਾ ਹੁਕਮੁ ਤਿਵੈ ਤਿਉ ਹੋਵਣਾ ॥ जिउ जिउ तेरा हुकमु तिवै तिउ होवणा ॥ हे पूज्य परमेश्वर ! जैसे-जैसे आपका आदेश होता है, वैसे ही दुनिया में होता है।
ਜਹ ਜਹ ਰਖਹਿ ਆਪਿ ਤਹ ਜਾਇ ਖੜੋਵਣਾ ॥ जह जह रखहि आपि तह जाइ खड़ोवणा ॥ जहाँ कहीं भी आप मुझे रखते हैं, वहाँ ही जाकर मैं खड़ा हो जाता हूँ।
ਨਾਮ ਤੇਰੈ ਕੈ ਰੰਗਿ ਦੁਰਮਤਿ ਧੋਵਣਾ ॥ नाम तेरै कै रंगि दुरमति धोवणा ॥ आपके नाम के रंग से मैं अपनी दुर्मति को धोता हूँ।
ਜਪਿ ਜਪਿ ਤੁਧੁ ਨਿਰੰਕਾਰ ਭਰਮੁ ਭਉ ਖੋਵਣਾ ॥ जपि जपि तुधु निरंकार भरमु भउ खोवणा ॥ हे निराकार प्रभु ! आपका नाम जप-जप कर मेरी दुविधा एवं भय दूर हो गए हैं।
ਜੋ ਤੇਰੈ ਰੰਗਿ ਰਤੇ ਸੇ ਜੋਨਿ ਨ ਜੋਵਣਾ ॥ जो तेरै रंगि रते से जोनि न जोवणा ॥ जो जीव आपके प्रेम-रंग में लीन हैं, वे योनियों में नहीं भटकते।
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਇਕੁ ਨੈਣ ਅਲੋਵਣਾ ॥ अंतरि बाहरि इकु नैण अलोवणा ॥ अपने नेत्रों से अन्दर-बाहर वे एक ईश्वर को ही देखते हैं।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਪਛਾਤਾ ਹੁਕਮੁ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕਦੇ ਨ ਰੋਵਣਾ ॥ जिन्ही पछाता हुकमु तिन्ह कदे न रोवणा ॥ जो प्रभु की आज्ञा को पहचानते हैं, वे कदाचित् विलाप नहीं करते।
ਨਾਉ ਨਾਨਕ ਬਖਸੀਸ ਮਨ ਮਾਹਿ ਪਰੋਵਣਾ ॥੧੮॥ नाउ नानक बखसीस मन माहि परोवणा ॥१८॥ हे नानक ! उन्हें प्रभु नाम का दान प्राप्त होता है, जिसे वह मन में पिरो लेते हैं।॥ १८॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥ सलोक मः ५ ॥ श्लोक, पांचवें गुरु: ५॥
ਜੀਵਦਿਆ ਨ ਚੇਤਿਓ ਮੁਆ ਰਲੰਦੜੋ ਖਾਕ ॥ जीवदिआ न चेतिओ मुआ रलंदड़ो खाक ॥ जो जीवित रहते हुए परमात्मा का स्मरण नहीं करता, वह मृत्यु के उपरांत केवल मिट्टी में विलीन हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਦੁਨੀਆ ਸੰਗਿ ਗੁਦਾਰਿਆ ਸਾਕਤ ਮੂੜ ਨਪਾਕ ॥੧॥ नानक दुनीआ संगि गुदारिआ साकत मूड़ नपाक ॥१॥ हे नानक ! वह मूर्ख, अपवित्र और अविश्वासी निंदक, जिसने अपना समस्त जीवन केवल माया-मोही संगति में गंवा दिया॥ १॥
ਮਃ ੫ ॥ मः ५ ॥ पांचवे गुरु: ५॥
ਜੀਵੰਦਿਆ ਹਰਿ ਚੇਤਿਆ ਮਰੰਦਿਆ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ॥ जीवंदिआ हरि चेतिआ मरंदिआ हरि रंगि ॥ जिसने जीवन में हरि को याद किया और मृत्यु के समय भी हरि के प्रेम में लीन रहा,
ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਤਾਰਿਆ ਨਾਨਕ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ॥੨॥ जनमु पदारथु तारिआ नानक साधू संगि ॥२॥ हे नानक ! ऐसे व्यक्ति ने अपना अनमोल जीवन साधु की संगती में सफल कर लिया है।
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਆਦਿ ਜੁਗਾਦੀ ਆਪਿ ਰਖਣ ਵਾਲਿਆ ॥ आदि जुगादी आपि रखण वालिआ ॥ परमात्मा आप ही युगों-युगान्तरों से हम जीवों की रक्षा करने वाला है।
ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾਰੁ ਸਚੁ ਪਸਾਰਿਆ ॥ सचु नामु करतारु सचु पसारिआ ॥ हे करतार ! आपका नाम सत्य है और आपके सत्य-नाम का ही सृष्टि के चारों ओर प्रसार है।
ਊਣਾ ਕਹੀ ਨ ਹੋਇ ਘਟੇ ਘਟਿ ਸਾਰਿਆ ॥ ऊणा कही न होइ घटे घटि सारिआ ॥ आप किसी जीव के भीतर भी कम नहीं तथा कण-कण में विद्यमान है।
ਮਿਹਰਵਾਨ ਸਮਰਥ ਆਪੇ ਹੀ ਘਾਲਿਆ ॥ मिहरवान समरथ आपे ही घालिआ ॥ वह परमात्मा सब पर अनुकंपा करते है, सर्वशक्तिमान है, और वही कृपालु स्वामी स्वयं ही जीव को अपने स्मरण में प्रवृत्त करता है।
ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਮਨਿ ਵੁਠਾ ਆਪਿ ਸੇ ਸਦਾ ਸੁਖਾਲਿਆ ॥ जिन्ह मनि वुठा आपि से सदा सुखालिआ ॥ जिनके मन में तू निवास करता है, वे सदा सुखी रहते हैं।
ਆਪੇ ਰਚਨੁ ਰਚਾਇ ਆਪੇ ਹੀ ਪਾਲਿਆ ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही पालिआ ॥ आप स्वयं ही दुनिया बनाकर आप ही उसका पालन-पोषण करते हैं।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਬੇਅੰਤ ਅਪਾਰਿਆ ॥ सभु किछु आपे आपि बेअंत अपारिआ ॥ हे अनंत एवं अपार प्रभु ! सब कुछ आप स्वयं ही है।
ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਕੀ ਟੇਕ ਨਾਨਕ ਸੰਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿਆ ॥੧੯॥ गुर पूरे की टेक नानक सम्हालिआ ॥१९॥ हे नानक ! मैं पूर्ण गुरु का सहारा लेकर नाम-स्मरण ही करता रहता हूँ ॥१६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥ सलोक मः ५ ॥ श्लोक, पांचवें गुरु: ५॥
ਆਦਿ ਮਧਿ ਅਰੁ ਅੰਤਿ ਪਰਮੇਸਰਿ ਰਖਿਆ ॥ आदि मधि अरु अंति परमेसरि रखिआ ॥ आदि, मध्य तथा अन्त में सदा ही परमेश्वर ने हमारी रक्षा की है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਿਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਚਖਿਆ ॥ सतिगुरि दिता हरि नामु अम्रितु चखिआ ॥ सच्चे गुरु ने मुझे हरिनामामृत दिया है, जिसको मैंने बड़े स्वाद से चखा है।
ਸਾਧਾ ਸੰਗੁ ਅਪਾਰੁ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਵੈ ॥ साधा संगु अपारु अनदिनु हरि गुण रवै ॥ साधुओं की संगति में रात-दिन अपार हरि का गुणानुवाद करता रहता हूँ,
ਪਾਏ ਮਨੋਰਥ ਸਭਿ ਜੋਨੀ ਨਹ ਭਵੈ ॥ पाए मनोरथ सभि जोनी नह भवै ॥ जिसके फलस्वरूप जीवन के सभी मनोरथ प्राप्त हो गए हैं और अब मैं योनियों के चक्र में नहीं भटकूंगा।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਕਰਤੇ ਹਥਿ ਕਾਰਣੁ ਜੋ ਕਰੈ ॥ सभु किछु करते हथि कारणु जो करै ॥ सब कुछ सृष्टिकर्त्ता के हाथ में है, जो स्वयं ही सब कारण बनाता है।
ਨਾਨਕੁ ਮੰਗੈ ਦਾਨੁ ਸੰਤਾ ਧੂਰਿ ਤਰੈ ॥੧॥ नानकु मंगै दानु संता धूरि तरै ॥१॥ नानक तो संतों की चरण-धूलि का ही दान माँगता है, जिससे वह भवसागर से तर जाएगा ॥१॥
ਮਃ ੫ ॥ मः ५ ॥ पांचवे गुरु: ५॥
ਤਿਸ ਨੋ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇ ਜਿਨਿ ਉਪਾਇਆ ॥ तिस नो मंनि वसाइ जिनि उपाइआ ॥ हे मानव ! अपने मन में उसे ही बसा, जिसने तुझे उत्पन्न किया है।
ਜਿਨਿ ਜਨਿ ਧਿਆਇਆ ਖਸਮੁ ਤਿਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥ जिनि जनि धिआइआ खसमु तिनि सुखु पाइआ ॥ जिस व्यक्ति ने भी भगवान् का ध्यान किया है, उसे सुख ही उपलब्ध हुआ है।
ਸਫਲੁ ਜਨਮੁ ਪਰਵਾਨੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਇਆ ॥ सफलु जनमु परवानु गुरमुखि आइआ ॥ गुरुमुख का आगमन ही स्वीकार्य है तथा उसी का जन्म सफल है।
ਹੁਕਮੈ ਬੁਝਿ ਨਿਹਾਲੁ ਖਸਮਿ ਫੁਰਮਾਇਆ ॥ हुकमै बुझि निहालु खसमि फुरमाइआ ॥ मालिक-प्रभु ने जो आदेश दिया, उस आदेश को समझकर वह कृतार्थ हो गया है।
ਜਿਸੁ ਹੋਆ ਆਪਿ ਕ੍ਰਿਪਾਲੁ ਸੁ ਨਹ ਭਰਮਾਇਆ ॥ जिसु होआ आपि क्रिपालु सु नह भरमाइआ ॥ जिस पर परमात्मा आप कृपालु होता है, वह कभी भटकता नहीं।
ਜੋ ਜੋ ਦਿਤਾ ਖਸਮਿ ਸੋਈ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥ जो जो दिता खसमि सोई सुखु पाइआ ॥ जो कुछ भी मालिक-प्रभु उसे देता है, उसमें ही वह सुख की अनुभूति करता है।
ਨਾਨਕ ਜਿਸਹਿ ਦਇਆਲੁ ਬੁਝਾਏ ਹੁਕਮੁ ਮਿਤ ॥ नानक जिसहि दइआलु बुझाए हुकमु मित ॥ हे नानक ! जिस पर भी मित्र प्रभु दयालु होता है, उसे अपने आदेश की सूझ प्रदान कर देता है।
ਜਿਸਹਿ ਭੁਲਾਏ ਆਪਿ ਮਰਿ ਮਰਿ ਜਮਹਿ ਨਿਤ ॥੨॥ जिसहि भुलाए आपि मरि मरि जमहि नित ॥२॥ लेकिन जिसे वह आप स्वयं कुमार्गी करता है, वह नित्य ही मर-मर कर जन्मता रहता है।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥ पौड़ी ॥
ਨਿੰਦਕ ਮਾਰੇ ਤਤਕਾਲਿ ਖਿਨੁ ਟਿਕਣ ਨ ਦਿਤੇ ॥ निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते ॥ ईश्वर निंदक मनुष्यों की जीवन लीला तत्काल ही समाप्त कर देते हैं और उन्हें क्षण मात्र भी टिकने नहीं देते।
ਪ੍ਰਭ ਦਾਸ ਕਾ ਦੁਖੁ ਨ ਖਵਿ ਸਕਹਿ ਫੜਿ ਜੋਨੀ ਜੁਤੇ ॥ प्रभ दास का दुखु न खवि सकहि फड़ि जोनी जुते ॥ वह अपने दास का दुःख सहन नहीं कर सकते लेकिन निन्दकों को पकड़ कर योनियों में डाल देते हैं।


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