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ਹਰਿ ਸੁਖਦਾਤਾ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਗੁਮਾਨੁ ॥
हरि सुखदाता मनि वसै हउमै जाइ गुमानु ॥
सुखों के दाता हरि मन में निवास कर जाऐंगे और अभिमान एवं घमण्ड नाश हो जाएगा।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਤਾ ਅਨਦਿਨੁ ਲਾਗੈ ਧਿਆਨੁ ॥੨॥
नानक नदरी पाईऐ ता अनदिनु लागै धिआनु ॥२॥
हे नानक ! जब प्रभु कृपा-दृष्टि करते हैं तो प्राणी का ध्यान रात-दिन सत्य में ही लगा रहता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी॥
ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਸਭੁ ਸਚੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਵਿਤਾ ॥
सतु संतोखु सभु सचु है गुरमुखि पविता ॥
गुरुमुख मनुष्य पवित्र-पावन है और सत्य एवं संतोष का रूप है उसे सब सत्य ही दिखाई देता है।
ਅੰਦਰਹੁ ਕਪਟੁ ਵਿਕਾਰੁ ਗਇਆ ਮਨੁ ਸਹਜੇ ਜਿਤਾ ॥
अंदरहु कपटु विकारु गइआ मनु सहजे जिता ॥
उसके अन्तर्मन से छल-कपट एवं विकार नष्ट हो जाते हैं और उसने सहज ही मन को जीत लिया होता है।
ਤਹ ਜੋਤਿ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ਅਨੰਦ ਰਸੁ ਅਗਿਆਨੁ ਗਵਿਤਾ ॥
तह जोति प्रगासु अनंद रसु अगिआनु गविता ॥
उसके मन में प्रभु-ज्योति का प्रकाश हो जाता है, वह हरि रस का आनंद लेता रहता और उसका अज्ञान दूर हो जाता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਣ ਰਵੈ ਗੁਣ ਪਰਗਟੁ ਕਿਤਾ ॥
अनदिनु हरि के गुण रवै गुण परगटु किता ॥
वह नित्य ही हरि का गुणगान करता रहता है, जो गुण उसके भीतर हरि ने प्रगट कर दिए हैं।
ਸਭਨਾ ਦਾਤਾ ਏਕੁ ਹੈ ਇਕੋ ਹਰਿ ਮਿਤਾ ॥੯॥
सभना दाता एकु है इको हरि मिता ॥९॥
सब जीवों के दाता एक परमात्मा ही सबके मित्र हैं। ॥ ६॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਬ੍ਰਹਮੁ ਬਿੰਦੇ ਸੋ ਬ੍ਰਾਹਮਣੁ ਕਹੀਐ ਜਿ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु कहीऐ जि अनदिनु हरि लिव लाए ॥
जो व्यक्ति ब्रह्म को जानता है, उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है और वह रात-दिन परमात्मा में अपनी सुरति लगाकर रखता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਪੁਛੈ ਸਚੁ ਸੰਜਮੁ ਕਮਾਵੈ ਹਉਮੈ ਰੋਗੁ ਤਿਸੁ ਜਾਏ ॥
सतिगुर पुछै सचु संजमु कमावै हउमै रोगु तिसु जाए ॥
वह सतगुरु की परामर्श अनुसार सत्य एवं संयम का आचरण करता है और उसका अहंकार का रोग नष्ट हो जाता है।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਗੁਣ ਸੰਗ੍ਰਹੈ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਏ ॥
हरि गुण गावै गुण संग्रहै जोती जोति मिलाए ॥
वह हरि का गुणगान करता है, हरि का यश ही संग्रह करता है और उसकी ज्योति परम ज्योति में विलीन हो जाती है।
ਇਸੁ ਜੁਗ ਮਹਿ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਜਿ ਹਉਮੈ ਮੇਟਿ ਸਮਾਏ ॥
इसु जुग महि को विरला ब्रहम गिआनी जि हउमै मेटि समाए ॥
इस जग में कोई विरला ही ब्रह्मज्ञानी है, जो अपना अहंकार मिटा कर प्रभु में विलीन होता है।
ਨਾਨਕ ਤਿਸ ਨੋ ਮਿਲਿਆ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਜਿ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ॥੧॥
नानक तिस नो मिलिआ सदा सुखु पाईऐ जि अनदिनु हरि नामु धिआए ॥१॥
हे नानक ! उसे मिलने से सदैव सुख प्राप्त होता है, जो रात-दिन हरि-नाम की आराधना करता रहता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तीसरे गुरु: ३॥
ਅੰਤਰਿ ਕਪਟੁ ਮਨਮੁਖ ਅਗਿਆਨੀ ਰਸਨਾ ਝੂਠੁ ਬੋਲਾਇ ॥
अंतरि कपटु मनमुख अगिआनी रसना झूठु बोलाइ ॥
अज्ञानी मनमुख के हृदय में छल-कपट है और अपनी जीभा से वह झूठ ही बोलता है।
ਕਪਟਿ ਕੀਤੈ ਹਰਿ ਪੁਰਖੁ ਨ ਭੀਜੈ ਨਿਤ ਵੇਖੈ ਸੁਣੈ ਸੁਭਾਇ ॥
कपटि कीतै हरि पुरखु न भीजै नित वेखै सुणै सुभाइ ॥
छल-कपट करने से परमात्मा खुश नहीं होते, क्योंकि वह सहज स्वभाव नित्य ही सभी को देखते एवं सुनते हैं।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਜਾਇ ਜਗੁ ਪਰਬੋਧੈ ਬਿਖੁ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਸੁਆਇ ॥
दूजै भाइ जाइ जगु परबोधै बिखु माइआ मोह सुआइ ॥
स्वेच्छाचारी मनुष्य द्वैतभाव में फँसकर जगत् को उपदेश देता है किन्तु आप विषैली माया के मोह एवं स्वाद में क्रियाशील रहता है।
ਇਤੁ ਕਮਾਣੈ ਸਦਾ ਦੁਖੁ ਪਾਵੈ ਜੰਮੈ ਮਰੈ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
इतु कमाणै सदा दुखु पावै जमै मरै फिरि आवै जाइ ॥
ऐसा करने से वह सदा दुःख ही भोगता है और वह जन्मता-मरता एवं बार-बार योनियों में फँसकर इहलोक में आता-जाता रहता है।
ਸਹਸਾ ਮੂਲਿ ਨ ਚੁਕਈ ਵਿਚਿ ਵਿਸਟਾ ਪਚੈ ਪਚਾਇ ॥
सहसा मूलि न चुकई विचि विसटा पचै पचाइ ॥
उसकी दुविधा उसे बिल्कुल नहीं छोड़ती और विष्टा में ही वह गल-सड़ जाता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਤਿਸੁ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣਾਇ ॥
जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी तिसु गुर की सिख सुणाइ ॥
जिस पर मेरे स्वामी कृपा करते है, उसे गुरु की शिक्षा सुनवाते है।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵੈ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਗਾਵੈ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਅੰਤਿ ਛਡਾਇ ॥੨॥
हरि नामु धिआवै हरि नामो गावै हरि नामो अंति छडाइ ॥२॥
फिर ऐसा मनुष्य हरि-नाम का ध्यान करता है, हरि-नाम का वह गुणगान करता है और हरि का नाम ही अंत में उसे मोक्ष प्रदान करता है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी।
ਜਿਨਾ ਹੁਕਮੁ ਮਨਾਇਓਨੁ ਤੇ ਪੂਰੇ ਸੰਸਾਰਿ ॥
जिना हुकमु मनाइओनु ते पूरे संसारि ॥
परमात्मा जिन से अपनी आज्ञा का पालन करवाता है, वही इस दुनिया में पूर्ण पुरुष हैं।
ਸਾਹਿਬੁ ਸੇਵਨ੍ਹ੍ਹਿ ਆਪਣਾ ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
साहिबु सेवन्हि आपणा पूरै सबदि वीचारि ॥
वह अपने मालिक की सेवा करते हैं और गुरु के पूर्ण शब्द का विचार करते हैं।
ਹਰਿ ਕੀ ਸੇਵਾ ਚਾਕਰੀ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਪਿਆਰਿ ॥
हरि की सेवा चाकरी सचै सबदि पिआरि ॥
वह हरि की उपासना करते हैं और सत्यनाम से प्रीति लगाते हैं।
ਹਰਿ ਕਾ ਮਹਲੁ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਪਾਇਆ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਮਾਰਿ ॥
हरि का महलु तिन्ही पाइआ जिन्ह हउमै विचहु मारि ॥
जो मनुष्य अपने भीतर से अहंकार को नाश कर देते हैं, वे हरि के महल (दरबार) को प्राप्त कर लेते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਜਪਿ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੧੦॥
नानक गुरमुखि मिलि रहे जपि हरि नामा उर धारि ॥१०॥
हे नानक ! हरि का नाम-सिमरन करने एवं उसे हृदय में धारण करने से गुरुमुख हरि से मिले रहते हैं।॥१०॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक, तीसरे गुरु: ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਧਿਆਨ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਉਪਜੈ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ॥
गुरमुखि धिआन सहज धुनि उपजै सचि नामि चितु लाइआ ॥
गुरुमुख व्यक्ति प्रभु का ध्यान करते हैं और उनकी अन्तरात्मा में सहज ध्वनि उत्पन्न होती है। वे अपना चित्त सत्यनाम के साथ ही लगाते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅਨਦਿਨੁ ਰਹੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
गुरमुखि अनदिनु रहै रंगि राता हरि का नामु मनि भाइआ ॥
गुरुमुख व्यक्ति रात-दिन प्रभु के प्रेम-रंग में अनुरक्त रहते हैं और हरि का नाम ही उनके मन को अच्छा लगता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਵੇਖਹਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਬੋਲਹਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਸਹਜਿ ਰੰਗੁ ਲਾਇਆ ॥
गुरमुखि हरि वेखहि गुरमुखि हरि बोलहि गुरमुखि हरि सहजि रंगु लाइआ ॥
गुरुमुख हरि को ही देखते हैं और हरि के बारे में ही वचन करते हैं और सहज स्वभाव प्रभु से प्रेम पाते हैं।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ਤਿਮਰ ਅਗਿਆਨੁ ਅਧੇਰੁ ਚੁਕਾਇਆ ॥
नानक गुरमुखि गिआनु परापति होवै तिमर अगिआनु अधेरु चुकाइआ ॥
हे नानक ! गुरुमुख मनुष्य को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसका अज्ञान रूपी घोर अन्धकार नष्ट हो जाता है।
ਜਿਸ ਨੋ ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਧੁਰਿ ਪੂਰਾ ਤਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥੧॥
जिस नो करमु होवै धुरि पूरा तिनि गुरमुखि हरि नामु धिआइआ ॥१॥
जिस पर पूर्ण प्रभु की अनुकंपा होती है, वह गुरु के सान्निध्य में रहकर हरि-नाम की आराधना करता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
तीसरे गुरु: ३॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਜਿਨਾ ਨ ਸੇਵਿਓ ਸਬਦਿ ਨ ਲਗੋ ਪਿਆਰੁ ॥
सतिगुरु जिना न सेविओ सबदि न लगो पिआरु ॥
जो सतगुरु की सेवा नहीं करते, शब्द से प्रेम नहीं लगाते तथा
ਸਹਜੇ ਨਾਮੁ ਨ ਧਿਆਇਆ ਕਿਤੁ ਆਇਆ ਸੰਸਾਰਿ ॥
सहजे नामु न धिआइआ कितु आइआ संसारि ॥
सहजता में नाम की आराधना भी नहीं करते, फिर वे किसलिए इस संसार में आए हैं।
ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਪਾਈਐ ਵਿਸਟਾ ਸਦਾ ਖੁਆਰੁ ॥
फिरि फिरि जूनी पाईऐ विसटा सदा खुआरु ॥
ऐसे व्यक्ति पुनः पुनः योनियों के चक्र में पड़ते है और हमेशा ही विष्टा में नष्ट होते हैं।
ਕੂੜੈ ਲਾਲਚਿ ਲਗਿਆ ਨਾ ਉਰਵਾਰੁ ਨ ਪਾਰੁ ॥
कूड़ै लालचि लगिआ ना उरवारु न पारु ॥
वे तो झूठे लालच से लगे हुए हैं और वे न इस किनारे पर हैं और न ही पार हैं।