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ਜਿਉ ਬੋਲਾਵਹਿ ਤਿਉ ਬੋਲਹ ਸੁਆਮੀ ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਨ ਹਮਾਰੀ ॥
जिउ बोलावहि तिउ बोलह सुआमी कुदरति कवन हमारी ॥
हे मेरे प्रभु, हम तो वही कह पाते हैं जो आप स्वयं हमसे कहलवाते हैं; आपके बिना हमारे भीतर कोई सामर्थ्य नहीं कि हम एक शब्द भी उच्चारित कर सकें।
ਸਾਧਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਜਸੁ ਗਾਇਓ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਅਤਿ ਪਿਆਰੀ ॥੮॥੧॥੮॥
साधसंगि नानक जसु गाइओ जो प्रभ की अति पिआरी ॥८॥१॥८॥
सत्संगति में नानक ने वही यशोगान किया है, जो प्रभु को अत्यंत प्यारा है। ॥८॥१॥८॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੪॥
गूजरी महला ५ घरु ४
राग गूजरी, चतुर्थ ताल, पंचम गुरु: ४
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਨਾਥ ਨਰਹਰ ਦੀਨ ਬੰਧਵ ਪਤਿਤ ਪਾਵਨ ਦੇਵ ॥
नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥
हे नाथ ! हे नरहरि (नृसिंह)! हे दीनबंधु! हे पतितपावन देव !
ਭੈ ਤ੍ਰਾਸ ਨਾਸ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਗੁਣ ਨਿਧਿ ਸਫਲ ਸੁਆਮੀ ਸੇਵ ॥੧॥
भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥
हे भयनाशक ! हे कृपालु स्वामी ! हे गुणों के भण्डार ! आपकी सेवा-भक्ति बड़ी फलदायक है॥ १॥
ਹਰਿ ਗੋਪਾਲ ਗੁਰ ਗੋਬਿੰਦ ॥
हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥
हे हरि ! हे गोपाल ! हे गुर गोविन्द !
ਚਰਣ ਸਰਣ ਦਇਆਲ ਕੇਸਵ ਤਾਰਿ ਜਗ ਭਵ ਸਿੰਧ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ ॥
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਹਰਨ ਮਦ ਮੋਹ ਦਹਨ ਮੁਰਾਰਿ ਮਨ ਮਕਰੰਦ ॥
काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥
मैंने आपके सुन्दर चरणों की शरण ली है। हे दयालु केशव ! मुझे भयानक संसार-सागर से पार कर दो ॥ १॥ रहाउ॥
ਜਨਮ ਮਰਣ ਨਿਵਾਰਿ ਧਰਣੀਧਰ ਪਤਿ ਰਾਖੁ ਪਰਮਾਨੰਦ ॥੨॥
जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥
हे काम-क्रोध का नाश करने वाले ! हे मोह के नशे का दहन करने वाले मुरारि ! हे मन के मकरंद !
ਜਲਤ ਅਨਿਕ ਤਰੰਗ ਮਾਇਆ ਗੁਰ ਗਿਆਨ ਹਰਿ ਰਿਦ ਮੰਤ ॥
जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥
हे धरणिधर! हे परमानंद ! मेरा जन्म-मरण का चक्र मिटाकर मेरी लाज रखें।॥ २॥
ਛੇਦਿ ਅਹੰਬੁਧਿ ਕਰੁਣਾ ਮੈ ਚਿੰਤ ਮੇਟਿ ਪੁਰਖ ਅਨੰਤ ॥੩॥
छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥
हे हरि ! माया-अग्नि की अनेक तरंगों में जलते हुए प्राणी के हृदय में गुरु-ज्ञान का मंत्र प्रदान करो।
ਸਿਮਰਿ ਸਮਰਥ ਪਲ ਮਹੂਰਤ ਪ੍ਰਭ ਧਿਆਨੁ ਸਹਜ ਸਮਾਧਿ ॥
सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥
हे करुणामय प्रभु ! हे अनंत अकालपुरुष ! मेरी अहंबुद्धि का छेदन करके मेरी चिंता मिटा दो ॥ ३॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਪ੍ਰਸੰਨ ਪੂਰਨ ਜਾਚੀਐ ਰਜ ਸਾਧ ॥੪॥
दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥
हे प्राणी ! हर पल एवं मुहूर्त तू समर्थ प्रभु का सिमरन कर और उसके ध्यान में सहज समाधि लगा।
ਮੋਹ ਮਿਥਨ ਦੁਰੰਤ ਆਸਾ ਬਾਸਨਾ ਬਿਕਾਰ ॥
मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥
हे दीनदयाल ! हे पूर्ण प्रसन्न स्वामी ! मैं आप से साधुओं की चरण-धूलि माँगता हूँ ॥४॥
ਰਖੁ ਧਰਮ ਭਰਮ ਬਿਦਾਰਿ ਮਨ ਤੇ ਉਧਰੁ ਹਰਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੫॥
रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥
हे निरंकार हरि ! मिथ्या मोह, दुःखदायक आशा, वासना एवं विकारों से मेरा धर्म बचा लीजिए तथा
ਧਨਾਢਿ ਆਢਿ ਭੰਡਾਰ ਹਰਿ ਨਿਧਿ ਹੋਤ ਜਿਨਾ ਨ ਚੀਰ ॥
धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥
मेरे हृदय से भ्रम को दूर करके मेरा उद्धार कीजिए॥ ५ ॥
ਖਲ ਮੁਗਧ ਮੂੜ ਕਟਾਖ੍ਯ੍ਯ ਸ੍ਰੀਧਰ ਭਏ ਗੁਣ ਮਤਿ ਧੀਰ ॥੬॥
खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥
हे हरि ! जिनके पास वस्त्र मात्र भी नहीं, वह आपकी नाम-निधि प्राप्त करके धनवान एवं खजाने से भरपूर हो जाते हैं।
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤ ਜਗਦੀਸ ਜਪਿ ਮਨ ਧਾਰਿ ਰਿਦ ਪਰਤੀਤਿ ॥
जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥
हे श्रीधर ! आपकी दयादृष्टि से महामूर्ख, दुर्जन एवं मूड़ भी गुणवान, बुद्धिमान एवं धैर्यवान बन जाते हैं।॥ ६॥
ਜੀਅ ਦਇਆ ਮਇਆ ਸਰਬਤ੍ਰ ਰਮਣੰ ਪਰਮ ਹੰਸਹ ਰੀਤਿ ॥੭॥
जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥
हे मन ! जीवन से मुक्ति देने वाले जगदीश की आराधना कर और अपने हृदय में उसकी प्रीति धारण कर।
ਦੇਤ ਦਰਸਨੁ ਸ੍ਰਵਨ ਹਰਿ ਜਸੁ ਰਸਨ ਨਾਮ ਉਚਾਰ ॥
देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥
जीवों पर दया एवं स्नेह करना तथा प्रभु को सर्वव्यापक अनुभव करना परमहंसों (गुरुमुखों) की जीवन-युक्ति है॥ ७॥
ਅੰਗ ਸੰਗ ਭਗਵਾਨ ਪਰਸਨ ਪ੍ਰਭ ਨਾਨਕ ਪਤਿਤ ਉਧਾਰ ॥੮॥੧॥੨॥੫॥੧॥੧॥੨॥੫੭॥
अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥
ईश्वर उन्हें ही अपने दर्शन देता है, जो उसका यश सुनते हैं और अपनी जिह्वा से उसका नाम उच्चारित करते हैं।
ਗੂਜਰੀ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੩ ਸਿਕੰਦਰ ਬਿਰਾਹਿਮ ਕੀ ਵਾਰ ਕੀ ਧੁਨੀ ਗਾਉਣੀ॥
गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी
वे भगवान् के अभिन्न अंश हैं, हे नानक, उनका केवल एक स्पर्श ही पापियों को पवित्र कर मुक्त कर देता है। ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
गूजरी की वार, तीसरे गुरु सिकंदर बिराहिम के वार की धुन में गाया गया:
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਇਹੁ ਜਗਤੁ ਮਮਤਾ ਮੁਆ ਜੀਵਣ ਕੀ ਬਿਧਿ ਨਾਹਿ ॥
इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥
श्लोक, तीसरे गुरु: ३॥
ਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜੋ ਚਲੈ ਤਾਂ ਜੀਵਣ ਪਦਵੀ ਪਾਹਿ ॥
गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥
यह जगत ममता में फँसकर मर रहा है और इसे जीने की विधि का कोई ज्ञान नहीं।
ਓਇ ਸਦਾ ਸਦਾ ਜਨ ਜੀਵਤੇ ਜੋ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਹਿ ॥
ओइ सदा सदा जन जीवते जो हरि चरणी चितु लाहि ॥
जो व्यक्ति गुरु की इच्छा अनुसार आचरण करता है, वें जीवन के परम उद्देश्य परमात्मा से मिलन को प्राप्त कर लेते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਹਿ ॥੧॥
नानक नदरी मनि वसै गुरमुखि सहजि समाहि ॥१॥
जो प्राणी हरि के चरणों में अपना चित्त लगाते हैं, वे सदैव जीवित रहते हैं।
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
हे नानक ! दयालु प्रभु स्वयं उनके हृदय में वास करते हैं; गुरु की कृपा से वे अंतर की शांति में स्थिर होकर, प्रभु-चरणों में लीन हो जाते हैं॥ १॥
ਅੰਦਰਿ ਸਹਸਾ ਦੁਖੁ ਹੈ ਆਪੈ ਸਿਰਿ ਧੰਧੈ ਮਾਰ ॥
अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥
श्लोक, तीसरे गुरु:३॥
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਸੁਤੇ ਕਬਹਿ ਨ ਜਾਗਹਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਪਿਆਰ ॥
दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥
जिन लोगों के मन में दुविधा एवं मोह-माया का दुःख है, उन्होंने स्वयं ही दुनिया की उलझनों के साथ निपटना स्वीकार किया है।
ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਹਿ ਸਬਦੁ ਨ ਵੀਚਾਰਹਿ ਇਹੁ ਮਨਮੁਖ ਕਾ ਆਚਾਰੁ ॥
नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥
वे द्वैतभाव में सोए हुए कभी भी नहीं जागते, क्योंकि उनका माया से मोह एवं प्रेम बना हुआ है।