Page 421
ਜੇਹੀ ਸੇਵ ਕਰਾਈਐ ਕਰਣੀ ਭੀ ਸਾਈ ॥
भगवान् जैसी सेवा मनुष्य से करवाते हैं, वह वैसा ही कार्य करता है।
ਆਪਿ ਕਰੇ ਕਿਸੁ ਆਖੀਐ ਵੇਖੈ ਵਡਿਆਈ ॥੭॥
ईश्वर स्वयं समस्त सृष्टि की रचना और पालन-पोषण करते हैं अंततः उसे संहार भी करतें। इसलिए हम किससे कुछ कहें? वह स्वयं ही अपनी महिमा को जानता और समझता है।॥ ७॥
ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਸੋ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਕਰਾਏ ॥
गुरु की सेवा वही मनुष्य करता है, जिससे प्रभु स्वयं करवाता है।
ਨਾਨਕ ਸਿਰੁ ਦੇ ਛੂਟੀਐ ਦਰਗਹ ਪਤਿ ਪਾਏ ॥੮॥੧੮॥
हे नानक ! जो अपनी भ्रमित बुद्धि और अहंकार को गुरु चरणों में समर्पित कर देता है, वह संसारिक बंधनों से मुक्त होकर, परमात्मा की उपस्थिति में आदर-सम्मान प्राप्त करता है। ८ ॥ १८ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
राग आसा, प्रथम गुरु: १ ॥
ਰੂੜੋ ਠਾਕੁਰ ਮਾਹਰੋ ਰੂੜੀ ਗੁਰਬਾਣੀ ॥
मेरे ठाकुर सुन्दर एवं सर्वोपरि है और गुरुवाणी भी अत्यंत सुन्दर है।
ਵਡੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਪਾਈਐ ਪਦੁ ਨਿਰਬਾਣੀ ॥੧॥
पूर्ण सौभाग्य से ही सच्चा गुरु मिलते हैं, जिनके द्वारा निर्वाण पद मिलता है।॥ १॥
ਮੈ ਓਲ੍ਹ੍ਹਗੀਆ ਓਲ੍ਹ੍ਹਗੀ ਹਮ ਛੋਰੂ ਥਾਰੇ ॥
हे मेरे भगवान् ! मैं आपके सेवकों का सेवक हूँ। मैं आपके तुच्छ दास हूँ।
ਜਿਉ ਤੂੰ ਰਾਖਹਿ ਤਿਉ ਰਹਾ ਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਹਮਾਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जैसे आप मुझे रखते हैं, वैसे ही मैं रहता हूँ, आपका नाम मेरे मुख में है॥ १॥ रहाउ ॥
ਦਰਸਨ ਕੀ ਪਿਆਸਾ ਘਣੀ ਭਾਣੈ ਮਨਿ ਭਾਈਐ ॥
हे स्वामी ! ईश्वर की कृपा के दर्शन की इच्छा तो सभी में होती है, पर उसकी अनुभूति केवल उसी को होती है, जिसे वह स्वयं अपने नाम में लीन कर लेता है।
ਮੇਰੇ ਠਾਕੁਰ ਹਾਥਿ ਵਡਿਆਈਆ ਭਾਣੈ ਪਤਿ ਪਾਈਐ ॥੨॥
मेरे ठाकुर के हाथ में सब उपलब्धियां हैं, उसकी इच्छा से ही सम्मान प्राप्त होता है॥ २॥
ਸਾਚਉ ਦੂਰਿ ਨ ਜਾਣੀਐ ਅੰਤਰਿ ਹੈ ਸੋਈ ॥
सत्य को दूर नहीं समझना चाहिए, वह प्रत्येक प्राणी के अन्तर्मन में विद्यमान है।
ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਰਵਿ ਰਹੇ ਕਿਨਿ ਕੀਮਤਿ ਹੋਈ ॥੩॥
मैं जहाँ कहीं भी देखता हूँ, वही मैं अपने भगवान को व्यापक पाता हूँ। हे प्रभु ! तेरा मूल्यांकन मैं किस तरह कर सकता हूँ? ॥ ३॥
ਆਪਿ ਕਰੇ ਆਪੇ ਹਰੇ ਵੇਖੈ ਵਡਿਆਈ ॥
प्रभु स्वयं ही दुनिया की रचना करता है और स्वयं ही नाश कर देता है। वह अपनी महानता स्वयं ही देखता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਨਿਹਾਲੀਐ ਇਉ ਕੀਮਤਿ ਪਾਈ ॥੪॥
गुरुमुख बनकर ही प्रभु के दर्शन प्राप्त होते हैं, इस तरह उसका मूल्यांकन पाया जाता है॥ ४॥
ਜੀਵਦਿਆ ਲਾਹਾ ਮਿਲੈ ਗੁਰ ਕਾਰ ਕਮਾਵੈ ॥
गुरु की सेवा करने से ही मनुष्य को जीवन में प्रभु नाम का लाभ मिलता है।
ਪੂਰਬਿ ਹੋਵੈ ਲਿਖਿਆ ਤਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਵੈ ॥੫॥
लेकिन सच्चा गुरु भी मनुष्य को तभी प्राप्त होता है यदि पूर्व जन्मों के किए शुभ कर्मों के संस्कार लिखे हुए हों।॥ ५॥
ਮਨਮੁਖ ਤੋਟਾ ਨਿਤ ਹੈ ਭਰਮਹਿ ਭਰਮਾਏ ॥
स्वेच्छाचारी मनुष्य के आत्मिक गुणों में नित्य कमी आती रहती है और वह दुविधा में भटकता रहता है।
ਮਨਮੁਖੁ ਅੰਧੁ ਨ ਚੇਤਈ ਕਿਉ ਦਰਸਨੁ ਪਾਏ ॥੬॥
माया में अन्धा हुआ स्वेच्छाचारी मनुष्य प्रभु को याद नहीं करता। फिर वह कैसे उसके दर्शन प्राप्त कर सकता है?॥ ६॥
ਤਾ ਜਗਿ ਆਇਆ ਜਾਣੀਐ ਸਾਚੈ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
इस जगत् में केवल तभी मनुष्य का जन्म सफल समझा जाता है, यदि वह सत्यस्वरूप प्रभु में ध्यान लगाता है।
ਗੁਰ ਭੇਟੇ ਪਾਰਸੁ ਭਏ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਏ ॥੭॥
गुरु से मिलकर मनुष्य पारस की भाँति बन जाता है और उसकी ज्योति परम ज्योति में मिल जाती है॥ ७॥
ਅਹਿਨਿਸਿ ਰਹੈ ਨਿਰਾਲਮੋ ਕਾਰ ਧੁਰ ਕੀ ਕਰਣੀ ॥
वह दिन-रात निर्लेप होकर विचरता है और परमात्मा की इच्छानुसार कार्य करता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸੰਤੋਖੀਆ ਰਾਤੇ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ॥੮॥੧੯॥
हे नानक ! जो व्यक्ति नाम में संतुष्ट हो गए हैं, वह भगवान् के चरणों में मग्न रहते हैं॥ ८॥ १६॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
राग आसा, प्रथम गुरु: १ ॥
ਕੇਤਾ ਆਖਣੁ ਆਖੀਐ ਤਾ ਕੇ ਅੰਤ ਨ ਜਾਣਾ ॥
भगवान् के गुणों का मैं जितना मन चाहे वर्णन करूँ परन्तु उसका अन्त नहीं जाना जा सकता।
ਮੈ ਨਿਧਰਿਆ ਧਰ ਏਕ ਤੂੰ ਮੈ ਤਾਣੁ ਸਤਾਣਾ ॥੧॥
हे भगवान् ! तुम ही निराश्रित के आश्रय हो, तुम ही बलहीनों के बल हो।॥ १॥
ਨਾਨਕ ਕੀ ਅਰਦਾਸਿ ਹੈ ਸਚ ਨਾਮਿ ਸੁਹੇਲਾ ॥
नानक की यही प्रार्थना है कि वह सत्य नाम में लीन होकर सुखी रहे।
ਆਪੁ ਗਇਆ ਸੋਝੀ ਪਈ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਮੇਲਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जब अहंकार मिट गया तो मुझे सुमति प्राप्त हो गई। गुरु-शब्द द्वारा मेरा परमात्मा से मिलाप हो गया।॥ १॥ रहाउ॥
ਹਉਮੈ ਗਰਬੁ ਗਵਾਈਐ ਪਾਈਐ ਵੀਚਾਰੁ ॥
अहंकार एवं गर्व को त्याग कर मनुष्य विवेक प्राप्त कर लेता है।
ਸਾਹਿਬ ਸਿਉ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਦੇ ਸਾਚੁ ਅਧਾਰੁ ॥੨॥
जब मनुष्य का मन भगवान् के साथ मिल जाता है तो वह उसे सत्यनाम का सहारा देते हैं॥ २॥
ਅਹਿਨਿਸਿ ਨਾਮਿ ਸੰਤੋਖੀਆ ਸੇਵਾ ਸਚੁ ਸਾਈ ॥
दिन-रात नाम से संतुष्ट रहो, वही सच्ची सेवा है।
ਤਾ ਕਉ ਬਿਘਨੁ ਨ ਲਾਗਈ ਚਾਲੈ ਹੁਕਮਿ ਰਜਾਈ ॥੩॥
जो प्राणी रज़ा के स्वामी भगवान के हुक्म अनुसार चलता है, उसे कोई विघ्न नहीं आता॥ ३॥
ਹੁਕਮਿ ਰਜਾਈ ਜੋ ਚਲੈ ਸੋ ਪਵੈ ਖਜਾਨੈ ॥
जो प्राणी प्रभु आदेश को स्वीकार करता है, वह प्रभु-खजाने में डाला जाता है।
ਖੋਟੇ ਠਵਰ ਨ ਪਾਇਨੀ ਰਲੇ ਜੂਠਾਨੈ ॥੪॥
खोटे लोगों को कोई स्थान नहीं मिलता, उनका झूठों के साथ मेल-मिलाप है॥ ४॥
ਨਿਤ ਨਿਤ ਖਰਾ ਸਮਾਲੀਐ ਸਚੁ ਸਉਦਾ ਪਾਈਐ ॥
यदि नित्य ही निर्मल नाम को याद किया जाए तो ही सत्य का सौदा खरीदा जाता है।
ਖੋਟੇ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਨੀ ਲੇ ਅਗਨਿ ਜਲਾਈਐ ॥੫॥
प्रभु के खजाने में खोटे सिक्के दिखाई नहीं देते, वह पकड़ कर अग्नि में जला दिए जाते हैं।॥ ५ ॥
ਜਿਨੀ ਆਤਮੁ ਚੀਨਿਆ ਪਰਮਾਤਮੁ ਸੋਈ ॥
जो लोग अपने आत्मिक जीवन को परख लेते हैं, उन्हें परमात्मा की पहचान हो जाती है।
ਏਕੋ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਿਰਖੁ ਹੈ ਫਲੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹੋਈ ॥੬॥
एक ईश्वर अमृत का वृक्ष है, जिसे अमृत का फल लगा हुआ है॥ ६॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਫਲੁ ਜਿਨੀ ਚਾਖਿਆ ਸਚਿ ਰਹੇ ਅਘਾਈ ॥
जो मनुष्य अमृत फल को चखते हैं, वे सत्य के साथ तृप्त रहते हैं।
ਤਿੰਨਾ ਭਰਮੁ ਨ ਭੇਦੁ ਹੈ ਹਰਿ ਰਸਨ ਰਸਾਈ ॥੭॥
जिनकी जिह्वा हरि रस को मानती है, उन्हें कोई भ्रम एवं भेद नहीं रहता॥ ७ ॥
ਹੁਕਮਿ ਸੰਜੋਗੀ ਆਇਆ ਚਲੁ ਸਦਾ ਰਜਾਈ ॥
प्रभु के आदेश एवं संयोग से ही जीव संसार में आया है इसलिए सदैव उसकी इच्छानुसार चलना चाहिए।
ਅਉਗਣਿਆਰੇ ਕਉ ਗੁਣੁ ਨਾਨਕੈ ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਵਡਾਈ ॥੮॥੨੦॥
हे प्रभु ! मुझ गुणहीन नानक को गुण प्रदान करो, मुझे सत्य मिल जाए, मेरे लिए यही बड़ाई है॥ ८ ॥ २० ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
राग आसा, प्रथम गुरु: १ ॥
ਮਨੁ ਰਾਤਉ ਹਰਿ ਨਾਇ ਸਚੁ ਵਖਾਣਿਆ ॥
जब से मेरा मन हरि नाम से रंगा है, तब से मैंने सत्य का ही वर्णन किया है।
ਲੋਕਾ ਦਾ ਕਿਆ ਜਾਇ ਜਾ ਤੁਧੁ ਭਾਣਿਆ ॥੧॥
हे परमेश्वर ! लोगों का क्या बिगड़ता है, यदि मैं आपको अच्छा लगने लग गया हूँ॥ १॥