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ਜੋ ਮਨਿ ਰਾਤੇ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਲਾਇ ॥
जिनका मन हरि-रंग में रंग जाता है,
ਤਿਨ ਕਾ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਲਾਥਾ ਤੇ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਮਿਲੇ ਸੁਭਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
उनका जन्म-मरण के चक्र का दुःख दूर हो जाता है और वह सहज ही प्रभु के दरबार में मिल जाते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
ਸਬਦੁ ਚਾਖੈ ਸਾਚਾ ਸਾਦੁ ਪਾਏ ॥
जो मनुष्य शब्द को चखता है, वह सच्चे स्वाद को पा लेता है और
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
हरि के नाम को अपने मन में बसा लेता है।
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
हरि-प्रभु सदा ही सर्वव्यापक है।
ਆਪੇ ਨੇੜੈ ਆਪੇ ਦੂਰਿ ॥੨॥
वह स्वयं निकट है और स्वयं ही दूर है॥ २॥
ਆਖਣਿ ਆਖੈ ਬਕੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
हर कोई कहता है कि परमेश्वर उनके निकट है, पर यह केवल कहने और घमण्ड करने तक ही सीमित होता है।
ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਏ ਸੋਇ ॥
परन्तु वह प्रभु स्वयं क्षमा करता और अपने साथ मिला लेता है।
ਕਹਣੈ ਕਥਨਿ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
केवल कहने एवं उच्चारण करने से प्रभु प्राप्त नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੩॥
गुरु की दया से प्रभु आकर मनुष्य के चित्त में बस जाते हैं॥ ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ॥
गुरुमुख अपने भीतर से अहंत्व दूर कर देता है।
ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਮੋਹੁ ਚੁਕਾਇ ॥
वह मोह-माया को छोड़ कर प्रभु के प्रेम में रंगा हुआ है।
ਅਤਿ ਨਿਰਮਲੁ ਗੁਰ ਸਬਦ ਵੀਚਾਰ ॥
वह गुरु के शब्द का चिन्तन करता है जो बड़ा निर्मल है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰ ॥੪॥੪॥੪੩॥
हे नानक ! प्रभु का नाम मनुष्य का जीवन संवारने वाला है॥ ४ ॥ ४॥ ४३ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਲਗੇ ਦੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
जो द्वैतभाव तथा मोह-माया में लीन हुए हैं, उन्होंने दुःख ही पाया है।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥
शब्द के बिना उन्होंने अपना जन्म व्यर्थ ही गंवा दिया है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੈ ਸੋਝੀ ਹੋਇ ॥
सतगुरु की सेवा करने से सूझ प्राप्त हो जाती है और
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਨ ਲਾਗੈ ਕੋਇ ॥੧॥
मनुष्य मोह-माया व द्वैतवाद के साथ नहीं लगता ॥ १॥
ਮੂਲਿ ਲਾਗੇ ਸੇ ਜਨ ਪਰਵਾਣੁ ॥
जो मनुष्य सृष्टि के मूल (कर्तार) से जुड़ते हैं, वे स्वीकृत हो जाते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਹਿਰਦੈ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਹਰਿ ਏਕੋ ਜਾਣੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अपने हृदय में हमेशा राम का नाम जपते रहो और गुरु के शब्द द्वारा एक परमात्मा को ही समझो॥ १॥ रहाउ॥
ਡਾਲੀ ਲਾਗੈ ਨਿਹਫਲੁ ਜਾਇ ॥
जो व्यक्ति सृष्टि के मूल परमात्मा को छोड़कर उसकी माया रूपी डाली से लगता है, वह निष्फल हो जाता है।
ਅੰਧੀ ਕੰਮੀ ਅੰਧ ਸਜਾਇ ॥
ज्ञानहीन कर्मों के लिए अंततः कठोर दंड भोगना पड़ता है।
ਮਨਮੁਖੁ ਅੰਧਾ ਠਉਰ ਨ ਪਾਇ ॥
अन्धे स्वेच्छाचारी मनुष्य को कोई सुख का स्थान नहीं मिलता।
ਬਿਸਟਾ ਕਾ ਕੀੜਾ ਬਿਸਟਾ ਮਾਹਿ ਪਚਾਇ ॥੨॥
वह विष्टा का कीड़ा है और विष्टा में ही गल-सड़ जाता है॥ २॥
ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥
जो व्यक्ति गुरु की शिक्षाओं का पालन करता है, वह सदा आंतरिक शांति और संतोष का अनुभव करता है।
ਸੰਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਏ ॥
क्योंकि वह सत्संगति में मिलकर हरि की गुणस्तुति करता है।
ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
जो मनुष्य प्रभु का नाम-सिमरन करता है,"
ਆਪਿ ਤਰੈ ਕੁਲ ਉਧਰਣਹਾਰੁ ॥੩॥
वह स्वयं संसार सागर से पार हो जाता है और अपनी कुल का भी उद्धार कर लेता है॥ ३॥
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਨਾਮਿ ਵਜਾਏ ॥
गुरु की वाणी द्वारा मन में प्रभु-नाम बजता है।
ਨਾਨਕ ਮਹਲੁ ਸਬਦਿ ਘਰੁ ਪਾਏ ॥
हे नानक ! शब्द गुरु के द्वारा मनुष्य अपने हृदय-घर में ही प्रभु को प्राप्त कर लेता है।
ਗੁਰਮਤਿ ਸਤ ਸਰਿ ਹਰਿ ਜਲਿ ਨਾਇਆ ॥
हे भाई ! गुरु की शिक्षा द्वारा तू सत्य के सरोवर पर हरि नाम रूपी जल में स्नान कर
ਦੁਰਮਤਿ ਮੈਲੁ ਸਭੁ ਦੁਰਤੁ ਗਵਾਇਆ ॥੪॥੫॥੪੪॥
इस तरह तेरी दुर्मति एवं पाप की सारी मैल साफ हो जाएगी।॥ ४॥ ५॥ ४४॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਮਨਮੁਖ ਮਰਹਿ ਮਰਿ ਮਰਣੁ ਵਿਗਾੜਹਿ ॥
जब स्वेच्छाचारी मरते हैं तो इस तरह मरकर अपनी मृत्यु बिगाड़ लेते हैं,
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਆਤਮ ਸੰਘਾਰਹਿ ॥
क्योंकि मोह-माया द्वारा वह अपना आत्म-संहार कर लेते हैं।
ਮੇਰਾ ਮੇਰਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਵਿਗੂਤਾ ॥
यह मेरा (परिवार) है, यह मेरा (धन-दौलत) है, कहते हुए वे नष्ट हो जाते हैं।
ਆਤਮੁ ਨ ਚੀਨ੍ਹ੍ਹੈ ਭਰਮੈ ਵਿਚਿ ਸੂਤਾ ॥੧॥
वह अपनी आत्मा की पहचान नहीं करते और भ्रम में सोये हुए हैं।॥ १॥
ਮਰੁ ਮੁਇਆ ਸਬਦੇ ਮਰਿ ਜਾਇ ॥
जो शब्द द्वारा मरता है, वह यथार्थ मृत्यु मरता है।
ਉਸਤਤਿ ਨਿੰਦਾ ਗੁਰਿ ਸਮ ਜਾਣਾਈ ਇਸੁ ਜੁਗ ਮਹਿ ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਜਪਿ ਲੈ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरु ने जिसे यह ज्ञान दिया है कि स्तुति एवं निन्दा एक समान है, वह इस युग में हरि का सिमरन करके नाम रूपी लाभ प्राप्त करके ले जाता है।॥ १॥ रहाउ॥
ਨਾਮ ਵਿਹੂਣ ਗਰਭ ਗਲਿ ਜਾਇ ॥
जो मनुष्य नाम विहीन हैं, वे गर्भ में गल-सड़ जाते हैं।
ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਦੂਜੈ ਲੋਭਾਇ ॥
उसका जन्म निरर्थक है जो मोह-माया में फँसा रहता है।
ਨਾਮ ਬਿਹੂਣੀ ਦੁਖਿ ਜਲੈ ਸਬਾਈ ॥
नाम विहीन सारी दुनिया दुःख-संताप में जल रही है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਬੂਝ ਬੁਝਾਈ ॥੨॥
पूर्ण सतगुरु ने मुझे यह ज्ञान प्रदान किया है॥ २॥
ਮਨੁ ਚੰਚਲੁ ਬਹੁ ਚੋਟਾ ਖਾਇ ॥
चंचल मन मोह-माया में भटक कर बहुत चोटें खाता है।
ਏਥਹੁ ਛੁੜਕਿਆ ਠਉਰ ਨ ਪਾਇ ॥
मनुष्य जन्म का यह सुनहरी अवसर गंवा कर उसे कोई सुख का स्थान नहीं मिलता।
ਗਰਭ ਜੋਨਿ ਵਿਸਟਾ ਕਾ ਵਾਸੁ ॥
गर्भयोनि (जन्म मरण का चक्र) मानों विष्टा का घर है।
ਤਿਤੁ ਘਰਿ ਮਨਮੁਖੁ ਕਰੇ ਨਿਵਾਸੁ ॥੩॥
ऐसे घर में स्वेच्छाचारी मनुष्य निवास करता है॥ ३॥
ਅਪੁਨੇ ਸਤਿਗੁਰ ਕਉ ਸਦਾ ਬਲਿ ਜਾਈ ॥
मैं अपने सतगुरु पर हमेशा बलिहारी जाता हूँ।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਈ ॥
गुरु के सम्मुख रहकर आत्म ज्योति परम-ज्योति में मिल जाती है।
ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ॥
निर्मल गुरुवाणी द्वारा मनुष्य अपने आत्मस्वरूप में निवास प्राप्त कर लेता है।
ਨਾਨਕ ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਸਦਾ ਉਦਾਸਾ ॥੪॥੬॥੪੫॥
हे नानक ! जो मनुष्य अपना अहंत्व समाप्त कर देता है, वह सदैव निर्लिप्त है॥४॥६॥४५॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
राग आसा, तीसरे गुरु: ३ ॥
ਲਾਲੈ ਆਪਣੀ ਜਾਤਿ ਗਵਾਈ ॥
प्रभु का सेवक अपनी जाति गंवा देता है।