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ਜੋ ਗੁਰੁ ਗੋਪੇ ਆਪਣਾ ਸੁ ਭਲਾ ਨਾਹੀ ਪੰਚਹੁ ਓਨਿ ਲਾਹਾ ਮੂਲੁ ਸਭੁ ਗਵਾਇਆ ॥
जो गुरु गोपे आपणा सु भला नाही पंचहु ओनि लाहा मूलु सभु गवाइआ ॥
हे संतजनों ! जो अपने गुरु की निंदा करता है, वह भला पुरुष नहीं। वह व्यक्ति अपने उस नाम और प्रतिष्ठा को खो देता है, जो उसे इस दुर्लभ और अनमोल मानव जीवन में अर्जित करनी चाहिए थी।
ਪਹਿਲਾ ਆਗਮੁ ਨਿਗਮੁ ਨਾਨਕੁ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕਾ ਬਚਨੁ ਉਪਰਿ ਆਇਆ ॥
पहिला आगमु निगमु नानकु आखि सुणाए पूरे गुर का बचनु उपरि आइआ ॥
गुरु नानक देव जी यह उद्घोष करते हैं कि शास्त्रों और वेदों के मूल सिद्धांतों के अनुसार भी, पूर्ण गुरु का वाणी-रूप शब्द ही शिष्य के लिए सर्वोच्च और परम मार्गदर्शक होता है।
ਗੁਰਸਿਖਾ ਵਡਿਆਈ ਭਾਵੈ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਕੀ ਮਨਮੁਖਾ ਓਹ ਵੇਲਾ ਹਥਿ ਨ ਆਇਆ ॥੨॥
गुरसिखा वडिआई भावै गुर पूरे की मनमुखा ओह वेला हथि न आइआ ॥२॥
गुरु के सिक्खों को गुरु की प्रशंसा अच्छी लगती है। लेकिन स्वेच्छाचारी को यह अवसर प्राप्त नहीं होता ॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਸਚੁ ਸਚਾ ਸਭ ਦੂ ਵਡਾ ਹੈ ਸੋ ਲਏ ਜਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਟਿਕੇ ॥
सचु सचा सभ दू वडा है सो लए जिसु सतिगुरु टिके ॥
सत्यस्वरूप परमात्मा सर्वोपरि है। प्रभु उस मनुष्य को मिलते हैं, जिसे सतगुरु आशीर्वाद दें।
ਸੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਜਿ ਸਚੁ ਧਿਆਇਦਾ ਸਚੁ ਸਚਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਇਕੇ ॥
सो सतिगुरु जि सचु धिआइदा सचु सचा सतिगुरु इके ॥
सतगुरु भी वही है जो सत्य का ध्यान-मनन करते हैं और यह सत्य है कि सत्यस्वरूप परमात्मा एवं सतगुरु एक ही हैं।
ਸੋਈ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੁਰਖੁ ਹੈ ਜਿਨਿ ਪੰਜੇ ਦੂਤ ਕੀਤੇ ਵਸਿ ਛਿਕੇ ॥
सोई सतिगुरु पुरखु है जिनि पंजे दूत कीते वसि छिके ॥
वही महापुरुष सतगुरु है, जिसने (कामादिक) विकारों को अपने वश में किया हुआ है।
ਜਿ ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਆਪੁ ਗਣਾਇਦੇ ਤਿਨ ਅੰਦਰਿ ਕੂੜੁ ਫਿਟੁ ਫਿਟੁ ਮੁਹ ਫਿਕੇ ॥
जि बिनु सतिगुर सेवे आपु गणाइदे तिन अंदरि कूड़ु फिटु फिटु मुह फिके ॥
जो मनुष्य सतगुरु की शिक्षाओं का पालन नहीं करते, किंतु अहंकारवश स्वयं को महान समझते हैं, वे भीतर से कपट से भरे होते हैं। उनका चेहरा सत्य की ज्योति से वंचित होकर उदासी और अभिशाप का प्रतीक बन जाता है।
ਓਇ ਬੋਲੇ ਕਿਸੈ ਨ ਭਾਵਨੀ ਮੁਹ ਕਾਲੇ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਚੁਕੇ ॥੮॥
ओइ बोले किसै न भावनी मुह काले सतिगुर ते चुके ॥८॥
सतगुरु से विमुख होने पर उसकी वार्तालाप किसी को भी अच्छी नहीं लगती और लोग उसे अपमानित करते हैं। ॥ ८ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: द्वारा ४॥
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸਭੁ ਖੇਤੁ ਹੈ ਹਰਿ ਆਪਿ ਕਿਰਸਾਣੀ ਲਾਇਆ ॥
हरि प्रभ का सभु खेतु है हरि आपि किरसाणी लाइआ ॥
सारी सृष्टि भगवान् के खेत के समान है। जहां प्रभु ने जीवों को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए नाम-धन अर्जित करने के लिए भेजा है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਖਸਿ ਜਮਾਈਅਨੁ ਮਨਮੁਖੀ ਮੂਲੁ ਗਵਾਇਆ ॥
गुरमुखि बखसि जमाईअनु मनमुखी मूलु गवाइआ ॥
गुरमुख प्रभु की कृपा की फसल पैदा करता है। लेकिन स्वेच्छाचारी अपना मूल भी गंवा देता है।
ਸਭੁ ਕੋ ਬੀਜੇ ਆਪਣੇ ਭਲੇ ਨੋ ਹਰਿ ਭਾਵੈ ਸੋ ਖੇਤੁ ਜਮਾਇਆ ॥
सभु को बीजे आपणे भले नो हरि भावै सो खेतु जमाइआ ॥
प्रत्येक व्यक्ति अपने लाभ हेतु(कर्म करता है) बीज बोता है। लेकिन भगवान् उसी फसल को परिपक्व करते हैं, जो उन्हें अच्छी लगती है।
ਗੁਰਸਿਖੀ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਬੀਜਿਆ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਫਲੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪਾਇਆ ॥
गुरसिखी हरि अम्रितु बीजिआ हरि अम्रित नामु फलु अम्रितु पाइआ ॥
गुरु का सिक्ख भगवान् के नाम के अमृत रूपी बीज को बोता है और भगवान् के अमृतमयी नाम का फल प्राप्त करता है।
ਜਮੁ ਚੂਹਾ ਕਿਰਸ ਨਿਤ ਕੁਰਕਦਾ ਹਰਿ ਕਰਤੈ ਮਾਰਿ ਕਢਾਇਆ ॥
जमु चूहा किरस नित कुरकदा हरि करतै मारि कढाइआ ॥
अहंकारियों का जीवन प्रतिदिन मृत्यु के भय द्वारा इस प्रकार कुतरता रहता है, जैसे चूहा किसी वस्तु को लगातार कुतरता है; परंतु विधाता ने गुरु के शरणागतों के लिए इस भय का अंत कर दिया है।
ਕਿਰਸਾਣੀ ਜੰਮੀ ਭਾਉ ਕਰਿ ਹਰਿ ਬੋਹਲ ਬਖਸ ਜਮਾਇਆ ॥
किरसाणी जमी भाउ करि हरि बोहल बखस जमाइआ ॥
गुरुमुख जीव को ईश्वर की कृपा से उनके प्रयासों को पूर्ण फल प्राप्त हुआ है; उन्होंने जीवन में शुभ कर्मों और आध्यात्मिक समृद्धि की विशाल फसल एकत्र की है।
ਤਿਨ ਕਾ ਕਾੜਾ ਅੰਦੇਸਾ ਸਭੁ ਲਾਹਿਓਨੁ ਜਿਨੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੁਰਖੁ ਧਿਆਇਆ ॥
तिन का काड़ा अंदेसा सभु लाहिओनु जिनी सतिगुरु पुरखु धिआइआ ॥
जिन्होंने सतगुरु का ध्यान किया है, ईश्वर ने उनकी सभी चिंता एवं दुःख नष्ट कर दिए हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਅਰਾਧਿਆ ਆਪਿ ਤਰਿਆ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਤਰਾਇਆ ॥੧॥
जन नानक नामु अराधिआ आपि तरिआ सभु जगतु तराइआ ॥१॥
हे नानक ! जो मनुष्य हरि-नाम की आराधना करता है, वह स्वयं पार हो जाता है और सारे जगत् का भी कल्याण कर देता है॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: ४॥
ਸਾਰਾ ਦਿਨੁ ਲਾਲਚਿ ਅਟਿਆ ਮਨਮੁਖਿ ਹੋਰੇ ਗਲਾ ॥
सारा दिनु लालचि अटिआ मनमुखि होरे गला ॥
स्वार्थी मनुष्य लोभ के जाल में फँसकर, प्रभु-नाम को भुला देता है और अपना समस्त जीवन व्यर्थ विषयों में गवाँ देता है।
ਰਾਤੀ ਊਘੈ ਦਬਿਆ ਨਵੇ ਸੋਤ ਸਭਿ ਢਿਲਾ ॥
राती ऊघै दबिआ नवे सोत सभि ढिला ॥
रात्रि में जब वह निद्रा के वश में हो जाता है, उसकी सभी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं।
ਮਨਮੁਖਾ ਦੈ ਸਿਰਿ ਜੋਰਾ ਅਮਰੁ ਹੈ ਨਿਤ ਦੇਵਹਿ ਭਲਾ ॥
मनमुखा दै सिरि जोरा अमरु है नित देवहि भला ॥
ऐसे स्वेच्छाचारी व्यक्ति अपने जीवनसाथी पर प्रभुत्व जमाते हैं और उनके साथ अनुचित या कठोर व्यवहार करते हैं।
ਜੋਰਾ ਦਾ ਆਖਿਆ ਪੁਰਖ ਕਮਾਵਦੇ ਸੇ ਅਪਵਿਤ ਅਮੇਧ ਖਲਾ ॥
जोरा दा आखिआ पुरख कमावदे से अपवित अमेध खला ॥
जो पुरुष स्त्रियों का कहना मानते हैं, वे अपवित्र, बुद्धिहीन एवं मूर्ख होते हैं।
ਕਾਮਿ ਵਿਆਪੇ ਕੁਸੁਧ ਨਰ ਸੇ ਜੋਰਾ ਪੁਛਿ ਚਲਾ ॥
कामि विआपे कुसुध नर से जोरा पुछि चला ॥
अशुद्ध पुरुष कामवासना में लीन रहते हैं, वह स्त्रियों से परामर्श लेते हैं और उसके आदेशानुसार चलते हैं।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਆਖਿਐ ਜੋ ਚਲੈ ਸੋ ਸਤਿ ਪੁਰਖੁ ਭਲ ਭਲਾ ॥
सतिगुर कै आखिऐ जो चलै सो सति पुरखु भल भला ॥
जो जीव सतगुरु की आज्ञा अनुसार चलता है, वह पुरुष सच्चा तथा सर्वोत्कृष्ट है।
ਜੋਰਾ ਪੁਰਖ ਸਭਿ ਆਪਿ ਉਪਾਇਅਨੁ ਹਰਿ ਖੇਲ ਸਭਿ ਖਿਲਾ ॥
जोरा पुरख सभि आपि उपाइअनु हरि खेल सभि खिला ॥
समस्त स्त्रियाँ एवं पुरुष ईश्वर ने स्वयं उत्पन्न किए हैं। ईश्वर ही सभी खेलें खेलता है।
ਸਭ ਤੇਰੀ ਬਣਤ ਬਣਾਵਣੀ ਨਾਨਕ ਭਲ ਭਲਾ ॥੨॥
सभ तेरी बणत बणावणी नानक भल भला ॥२॥
नानक कहते हैं कि हे प्रभु ! सृष्टि की यह सारी रचना आपकी रची हुई है, जो कुछ आपने किंया है, सब भला है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਤੂ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ਅਥਾਹੁ ਹੈ ਅਤੁਲੁ ਕਿਉ ਤੁਲੀਐ ॥
तू वेपरवाहु अथाहु है अतुलु किउ तुलीऐ ॥
हे मेरे मालिक ! तू बेपरवाह, अथाह एवं अतुलनीय है, फिर तुझे कैसे तोला जा सकता है?
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਜਿ ਤੁਧੁ ਧਿਆਇਦੇ ਜਿਨ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੀਐ ॥
से वडभागी जि तुधु धिआइदे जिन सतिगुरु मिलीऐ ॥
हे गोविन्द ! जो आपको याद करते हैं और जिन्हें सतगुरु मिलते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हैं।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਸਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ ਗੁਰਬਾਣੀ ਬਣੀਐ ॥
सतिगुर की बाणी सति सरूपु है गुरबाणी बणीऐ ॥
सतगुरु की वाणी सत्य स्वरूप है। गुरुवाणी द्वारा मनुष्य पूर्ण जाना जाता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਰੀਸੈ ਹੋਰਿ ਕਚੁ ਪਿਚੁ ਬੋਲਦੇ ਸੇ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੇ ਝੜਿ ਪੜੀਐ ॥
सतिगुर की रीसै होरि कचु पिचु बोलदे से कूड़िआर कूड़े झड़ि पड़ीऐ ॥
कई दूसरे झूठ के व्यापारी सतगुरु की नकल करके असत्य वाणी उच्चरित करते हैं परन्तु हृदय में झूठ होने के कारण उनका शीघ्र ही पतन हो जाता है।
ਓਨ੍ਹ੍ਹਾ ਅੰਦਰਿ ਹੋਰੁ ਮੁਖਿ ਹੋਰੁ ਹੈ ਬਿਖੁ ਮਾਇਆ ਨੋ ਝਖਿ ਮਰਦੇ ਕੜੀਐ ॥੯॥
ओन्हा अंदरि होरु मुखि होरु है बिखु माइआ नो झखि मरदे कड़ीऐ ॥९॥
उनके हृदय में कुछ और होता है तथा मुँह में कुछ और, वे विष रूपी माया का संग्रह करने के लिए पीड़ित होते हैं और खप-खप कर मरते हैं॥ ६ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक, चौथे गुरु: द्वारा ४॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਨਿਰਮਲੀ ਨਿਰਮਲ ਜਨੁ ਹੋਇ ਸੁ ਸੇਵਾ ਘਾਲੇ ॥
सतिगुर की सेवा निरमली निरमल जनु होइ सु सेवा घाले ॥
सतगुरु की सेवा बड़ी निर्मल है, जो व्यक्ति निर्मल होता है, वही यह चुनौतीपूर्ण कार्य कर सकता है।
ਜਿਨ ਅੰਦਰਿ ਕਪਟੁ ਵਿਕਾਰੁ ਝੂਠੁ ਓਇ ਆਪੇ ਸਚੈ ਵਖਿ ਕਢੇ ਜਜਮਾਲੇ ॥
जिन अंदरि कपटु विकारु झूठु ओइ आपे सचै वखि कढे जजमाले ॥
जिनके अन्तर्मन में कपट, विकार एवं झूठ होता है, सत्यस्वरूप ईश्वर ने स्वयं ही उन कोढ़ियों को अलग कर दिया है।