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ਹਸਤ ਚਰਨ ਸੰਤ ਟਹਲ ਕਮਾਈਐ ॥
हसत चरन संत टहल कमाईऐ ॥
अपने हाथों एवं चरणों से साधुओं की सेवा करो।
ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਸੰਜਮੁ ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਪਾਈਐ ॥੧੦॥
नानक इहु संजमु प्रभ किरपा पाईऐ ॥१०॥
हे नानक ! इस प्रकार का आत्म-अनुशासन ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होता है ॥१०॥
ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक ॥
ਏਕੋ ਏਕੁ ਬਖਾਨੀਐ ਬਿਰਲਾ ਜਾਣੈ ਸ੍ਵਾਦੁ ॥
एको एकु बखानीऐ बिरला जाणै स्वादु ॥
केवल एक ईश्वर की महिमा का ही वर्णन करना चाहिए, ऐसे स्वाद को कोई विरला पुरुष ही जानता है।
ਗੁਣ ਗੋਬਿੰਦ ਨ ਜਾਣੀਐ ਨਾਨਕ ਸਭੁ ਬਿਸਮਾਦੁ ॥੧੧॥
गुण गोबिंद न जाणीऐ नानक सभु बिसमादु ॥११॥
हे नानक ! गोविन्द की महिमा को जाना नहीं जा सकता। वह तो बहुत अद्भुत रूप है ॥११॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी।
ਏਕਾਦਸੀ ਨਿਕਟਿ ਪੇਖਹੁ ਹਰਿ ਰਾਮੁ ॥
एकादसी निकटि पेखहु हरि रामु ॥
ग्यारहवाँ चन्द्र दिवस: सर्वव्यापी ईश्वर को निकट निकट देखो।
ਇੰਦ੍ਰੀ ਬਸਿ ਕਰਿ ਸੁਣਹੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥
इंद्री बसि करि सुणहु हरि नामु ॥
अपनी इन्द्रियों को वश में करके प्रभु का नाम सुनो।
ਮਨਿ ਸੰਤੋਖੁ ਸਰਬ ਜੀਅ ਦਇਆ ॥
मनि संतोखु सरब जीअ दइआ ॥
जो व्यक्ति अपने मन में संतोष धारण करता है और समस्त जीवों के साथ दया करता है,
ਇਨ ਬਿਧਿ ਬਰਤੁ ਸੰਪੂਰਨ ਭਇਆ ॥
इन बिधि बरतु स्मपूरन भइआ ॥
इस विधि से उसका व्रत सफल हो जाता है।
ਧਾਵਤ ਮਨੁ ਰਾਖੈ ਇਕ ਠਾਇ ॥
धावत मनु राखै इक ठाइ ॥
ऐसा करके वह अपने चंचल मन को स्थिर करके रखता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੁਧੁ ਜਪਤ ਹਰਿ ਨਾਇ ॥
मनु तनु सुधु जपत हरि नाइ ॥
भगवान् के नाम का जाप करने से मन एवं शरीर शुद्ध हो जाते हैं।
ਸਭ ਮਹਿ ਪੂਰਿ ਰਹੇ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ॥
सभ महि पूरि रहे पारब्रहम ॥
भगवान् संसार में सर्वत्र व्याप्त है,
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਕਰਿ ਅਟਲ ਏਹੁ ਧਰਮ ॥੧੧॥
नानक हरि कीरतनु करि अटल एहु धरम ॥११॥
इसलिए हे नानक ! भगवान् का कीर्तन हरदम करते रहो चूंकि यही एक अटल धर्म है॥ ११॥
ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक॥
ਦੁਰਮਤਿ ਹਰੀ ਸੇਵਾ ਕਰੀ ਭੇਟੇ ਸਾਧ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ॥
दुरमति हरी सेवा करी भेटे साध क्रिपाल ॥
कृपा के घर संतों को मिलने एवं उनकी सेवा करने से दुर्बुद्धि मिट जाती है।
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸਿਉ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਬਿਨਸੇ ਸਗਲ ਜੰਜਾਲ ॥੧੨॥
नानक प्रभ सिउ मिलि रहे बिनसे सगल जंजाल ॥१२॥
हे नानक ! जो लोग प्रभु के साथ मिले रहते हैं, उनके हर प्रकार के बन्धन नष्ट हो जाते हैं। १२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी।
ਦੁਆਦਸੀ ਦਾਨੁ ਨਾਮੁ ਇਸਨਾਨੁ ॥
दुआदसी दानु नामु इसनानु ॥
बारहवें चंद्र दिवस पर भगवान के नाम का स्मरण करो, यथाशक्ति दान करो, और इस प्रकार अपने जीवन को निष्कलंक और पवित्र बनाए रखो।
ਹਰਿ ਕੀ ਭਗਤਿ ਕਰਹੁ ਤਜਿ ਮਾਨੁ ॥
हरि की भगति करहु तजि मानु ॥
अपना अभिमान त्याग कर भगवान् की भक्ति करते रहो।
ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਪਾਨ ਕਰਹੁ ਸਾਧਸੰਗਿ ॥
हरि अम्रित पान करहु साधसंगि ॥
संतों की संगति में सम्मिलित होकर हरि नाम रूपी अमृत का पान करो।
ਮਨ ਤ੍ਰਿਪਤਾਸੈ ਕੀਰਤਨ ਪ੍ਰਭ ਰੰਗਿ ॥
मन त्रिपतासै कीरतन प्रभ रंगि ॥
प्रेमपूर्वक प्रभु का कीर्तन करने से मन तृप्त हो जाता है।
ਕੋਮਲ ਬਾਣੀ ਸਭ ਕਉ ਸੰਤੋਖੈ ॥
कोमल बाणी सभ कउ संतोखै ॥
मधुर वाणी हर किसी को संतोष प्रदान करती है।
ਪੰਚ ਭੂ ਆਤਮਾ ਹਰਿ ਨਾਮ ਰਸਿ ਪੋਖੈ ॥
पंच भू आतमा हरि नाम रसि पोखै ॥
पंचभूतक आत्मा हरि-नाम रूपी रस से आनंदित हो जाती है।
ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਤੇ ਏਹ ਨਿਹਚਉ ਪਾਈਐ ॥
गुर पूरे ते एह निहचउ पाईऐ ॥
पूर्ण गुरु द्वारा यह निश्चय ही मिल जाता है।
ਨਾਨਕ ਰਾਮ ਰਮਤ ਫਿਰਿ ਜੋਨਿ ਨ ਆਈਐ ॥੧੨॥
नानक राम रमत फिरि जोनि न आईऐ ॥१२॥
हे नानक ! राम का नाम-सिमरन करने से जीव फिर से योनियों में नहीं आता ॥१२॥
ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक॥
ਤੀਨਿ ਗੁਣਾ ਮਹਿ ਬਿਆਪਿਆ ਪੂਰਨ ਹੋਤ ਨ ਕਾਮ ॥
तीनि गुणा महि बिआपिआ पूरन होत न काम ॥
दुनिया माया के तीन गुणों प्रभावित रहती है, इसलिए उसके कार्य पूर्ण नहीं होते।
ਪਤਿਤ ਉਧਾਰਣੁ ਮਨਿ ਬਸੈ ਨਾਨਕ ਛੂਟੈ ਨਾਮ ॥੧੩॥
पतित उधारणु मनि बसै नानक छूटै नाम ॥१३॥
हे नानक ! वही प्राणी मोक्ष प्राप्त करता है, जिसके हृदय में पतितों का उद्धार करने वाला ईश्वर का नाम बस जाता है ॥१३॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਤ੍ਰਉਦਸੀ ਤੀਨਿ ਤਾਪ ਸੰਸਾਰ ॥
त्रउदसी तीनि ताप संसार ॥
तेरहवें चंद्र दिवस- यह संसार तीन गुणों के ताप से दुःखी पड़ा हुआ है।
ਆਵਤ ਜਾਤ ਨਰਕ ਅਵਤਾਰ ॥
आवत जात नरक अवतार ॥
जिससे यह जन्म-मरण के चक्र में पड़कर नरक में जाता है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਭਜਨੁ ਨ ਮਨ ਮਹਿ ਆਇਓ ॥
हरि हरि भजनु न मन महि आइओ ॥
प्रभु-परमेश्वर का भजन इसके मन में प्रवेश नहीं करता।
ਸੁਖ ਸਾਗਰ ਪ੍ਰਭੁ ਨਿਮਖ ਨ ਗਾਇਓ ॥
सुख सागर प्रभु निमख न गाइओ ॥
सुखों के सागर प्रभु की महिमा मनुष्य एक क्षण भर के लिए भी नहीं करता।
ਹਰਖ ਸੋਗ ਕਾ ਦੇਹ ਕਰਿ ਬਾਧਿਓ ॥
हरख सोग का देह करि बाधिओ ॥
यह शरीर हर्ष एवं शोक का पुतला है।
ਦੀਰਘ ਰੋਗੁ ਮਾਇਆ ਆਸਾਧਿਓ ॥
दीरघ रोगु माइआ आसाधिओ ॥
इसे माया का दीर्घ एवं असाध्य रोग लगा हुआ है।
ਦਿਨਹਿ ਬਿਕਾਰ ਕਰਤ ਸ੍ਰਮੁ ਪਾਇਓ ॥
दिनहि बिकार करत स्रमु पाइओ ॥
वह दिन रात विकारों का कार्य करता है और हार थक जाता है।
ਨੈਨੀ ਨੀਦ ਸੁਪਨ ਬਰੜਾਇਓ ॥
नैनी नीद सुपन बरड़ाइओ ॥
आँखों में नींद से वह स्वप्न में भी बातें करता है।
ਹਰਿ ਬਿਸਰਤ ਹੋਵਤ ਏਹ ਹਾਲ ॥
हरि बिसरत होवत एह हाल ॥
भगवान् को भुला कर उसकी यह दशा हो जाती है।
ਸਰਨਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਪੁਰਖ ਦਇਆਲ ॥੧੩॥
सरनि नानक प्रभ पुरख दइआल ॥१३॥
नानक ने दयालु प्रभु की शरण ली है ॥१३॥
ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक ॥
ਚਾਰਿ ਕੁੰਟ ਚਉਦਹ ਭਵਨ ਸਗਲ ਬਿਆਪਤ ਰਾਮ ॥
चारि कुंट चउदह भवन सगल बिआपत राम ॥
परमात्मा चारों दिशाओं एवं चौदह लोकों में हर जगह व्याप्त है।
ਨਾਨਕ ਊਨ ਨ ਦੇਖੀਐ ਪੂਰਨ ਤਾ ਕੇ ਕਾਮ ॥੧੪॥
नानक ऊन न देखीऐ पूरन ता के काम ॥१४॥
हे नानक ! उस ईश्वर के भण्डारों में कोई कमी नहीं देखी जाती, प्रभु द्वारा किए सभी कार्य सफल होते हैं।॥१४॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਚਉਦਹਿ ਚਾਰਿ ਕੁੰਟ ਪ੍ਰਭ ਆਪ ॥
चउदहि चारि कुंट प्रभ आप ॥
चौदहवें चंद्र दिवस- चारों दिशाओं में ईश्वर स्वयं ही बस रहा है।
ਸਗਲ ਭਵਨ ਪੂਰਨ ਪਰਤਾਪ ॥
सगल भवन पूरन परताप ॥
सभी लोकों में उसका तेज-प्रताप चमक रहा है।
ਦਸੇ ਦਿਸਾ ਰਵਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਏਕੁ ॥
दसे दिसा रविआ प्रभु एकु ॥
दसों दिशाओं में एक प्रभु ही व्यापक है।
ਧਰਨਿ ਅਕਾਸ ਸਭ ਮਹਿ ਪ੍ਰਭ ਪੇਖੁ ॥
धरनि अकास सभ महि प्रभ पेखु ॥
धरती एवं आकाश हर स्थान पर ईश्वर को देखो।
ਜਲ ਥਲ ਬਨ ਪਰਬਤ ਪਾਤਾਲ ॥
जल थल बन परबत पाताल ॥
जल, धरती, वन, पहाड़ एवं पाताल-
ਪਰਮੇਸ੍ਵਰ ਤਹ ਬਸਹਿ ਦਇਆਲ ॥
परमेस्वर तह बसहि दइआल ॥
इन सब में दयालु परमेश्वर का निवास है।
ਸੂਖਮ ਅਸਥੂਲ ਸਗਲ ਭਗਵਾਨ ॥
सूखम असथूल सगल भगवान ॥
गोचर एवं अगोचर समूचे जगत् में भगवान् उपस्थित है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਨ ॥੧੪॥
नानक गुरमुखि ब्रहमु पछान ॥१४॥
हे नानक ! गुरमुख ईश्वर को पहचान लेता है ॥१४॥
ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक॥
ਆਤਮੁ ਜੀਤਾ ਗੁਰਮਤੀ ਗੁਣ ਗਾਏ ਗੋਬਿੰਦ ॥
आतमु जीता गुरमती गुण गाए गोबिंद ॥
गुरु के उपदेश द्वारा गोविन्द की गुणस्तुति करने से आत्मा को जीता जा सकता है।
ਸੰਤ ਪ੍ਰਸਾਦੀ ਭੈ ਮਿਟੇ ਨਾਨਕ ਬਿਨਸੀ ਚਿੰਦ ॥੧੫॥
संत प्रसादी भै मिटे नानक बिनसी चिंद ॥१५॥
हे नानक ! संतों की कृपा से भय मिट जाता है और संशय निवृत्त हो जाता है॥ १५॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पौड़ी ॥
ਅਮਾਵਸ ਆਤਮ ਸੁਖੀ ਭਏ ਸੰਤੋਖੁ ਦੀਆ ਗੁਰਦੇਵ ॥
अमावस आतम सुखी भए संतोखु दीआ गुरदेव ॥
अमावस्या की रात्रि -जिस व्यक्ति को गुरुदेव ने संतोष प्रदान किया है, उसकी आत्मा सुखी हो गई है।