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ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨ ਆਵੈ ਮਾਇਆ ਪਾਛੈ ਪਾਵੈ ॥
धन-दौलत की खोज में उसकी तृप्ति नहीं होती।
ਅਨਿਕ ਭੋਗ ਬਿਖਿਆ ਕੇ ਕਰੈ ॥
मनुष्य अधिकतर विषय-विकारों के भोग में लगा रहता है,
ਨਹ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵੈ ਖਪਿ ਖਪਿ ਮਰੈ ॥
परन्तु वह तृप्त नहीं होता और उसकी अभिलाषा करता हुआ मर मिटता है।
ਬਿਨਾ ਸੰਤੋਖ ਨਹੀ ਕੋਊ ਰਾਜੈ ॥
संतोष के बिना किसी को तृप्ति नहीं होती।
ਸੁਪਨ ਮਨੋਰਥ ਬ੍ਰਿਥੇ ਸਭ ਕਾਜੈ ॥
उसके सब कार्य स्वप्न के मनोरथ की भाँति व्यर्थ हैं।
ਨਾਮ ਰੰਗਿ ਸਰਬ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
भगवान् के नाम रंग द्वारा सर्व सुख प्राप्त हो जाते हैं।
ਬਡਭਾਗੀ ਕਿਸੈ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
किसी भाग्यशाली पुरुष को ही नाम की प्राप्ति होती है।
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਆਪੇ ਆਪਿ ॥
प्रभु स्वयं सब कुछ करने तथा जीवों से कराने में समर्थ है।
ਸਦਾ ਸਦਾ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਾਪਿ ॥੫॥
हे नानक ! हरि के नाम का जाप सदैव करो ॥५॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
केवल परमात्मा ही करने एवं कराने वाला है।
ਇਸ ਕੈ ਹਾਥਿ ਕਹਾ ਬੀਚਾਰੁ ॥
विचार कर देख लो, प्राणी के वश में कुछ नहीं।
ਜੈਸੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਕਰੇ ਤੈਸਾ ਹੋਇ ॥
जैसी दृष्टि परमात्मा धारण करता है, मनुष्य वैसा ही हो जाता है।
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
वह प्रभु स्वयं ही सब कुछ है।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕੀਨੋ ਸੁ ਅਪਨੈ ਰੰਗਿ ॥
जो कुछ उसने किया है, वह उसकी इच्छा के अनुकूल है।
ਸਭ ਤੇ ਦੂਰਿ ਸਭਹੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
वह सबसे दूर है, फिर भी सबके साथ है।
ਬੂਝੈ ਦੇਖੈ ਕਰੈ ਬਿਬੇਕ ॥
वह समझता, देखता और निर्णय करता है।
ਆਪਹਿ ਏਕ ਆਪਹਿ ਅਨੇਕ ॥
परमात्मा स्वयं ही एक है और स्वयं ही अनेक रूप है।
ਮਰੈ ਨ ਬਿਨਸੈ ਆਵੈ ਨ ਜਾਇ ॥
परमात्मा न ही मरता है और न ही नाश होता है, वह न ही आता है और न ही जाता है।
ਨਾਨਕ ਸਦ ਹੀ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੬॥
हे नानक ! परमात्मा सदा सब में समाया हुआ है ॥६॥
ਆਪਿ ਉਪਦੇਸੈ ਸਮਝੈ ਆਪਿ ॥
वह स्वयं ही उपदेश देता है और स्वयं ही समझता है।
ਆਪੇ ਰਚਿਆ ਸਭ ਕੈ ਸਾਥਿ ॥
परमात्मा स्वयं ही सबके साथ मिला हुआ है।
ਆਪਿ ਕੀਨੋ ਆਪਨ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
अपना विस्तार उसने स्वयं ही किया है।
ਸਭੁ ਕਛੁ ਉਸ ਕਾ ਓਹੁ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
प्रत्येक वस्तु उसकी है, वह सृजनहार है।
ਉਸ ਤੇ ਭਿੰਨ ਕਹਹੁ ਕਿਛੁ ਹੋਇ ॥
बताओ, उससे अलग कुछ हो सकता है?
ਥਾਨ ਥਨੰਤਰਿ ਏਕੈ ਸੋਇ ॥
एक ईश्वर स्थानों एवं उनकी सीमाओं पर सर्वत्र उपस्थित है।
ਅਪੁਨੇ ਚਲਿਤ ਆਪਿ ਕਰਣੈਹਾਰ ॥
अपनी लीलाओं को वह स्वयं ही करने वाला है।
ਕਉਤਕ ਕਰੈ ਰੰਗ ਆਪਾਰ ॥
वह कौतुक रचता है और उसके रंग अनन्त हैं।
ਮਨ ਮਹਿ ਆਪਿ ਮਨ ਅਪੁਨੇ ਮਾਹਿ ॥
"(जीवों के) मन में स्वयं वास कर रहा है, (जीवों को) अपने मन में स्थिर किए बैठा है।
ਨਾਨਕ ਕੀਮਤਿ ਕਹਨੁ ਨ ਜਾਇ ॥੭॥
हे नानक ! उस (परमात्मा) का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता ॥ ७॥
ਸਤਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੁਆਮੀ ॥
जगत् का स्वामी परमात्मा सदैव सत्य है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਕਿਨੈ ਵਖਿਆਨੀ ॥
यह बात गुरु की कृपा से किसी दुर्लभ व्यक्ति ने ही वर्णित की है।
ਸਚੁ ਸਚੁ ਸਚੁ ਸਭੁ ਕੀਨਾ ॥
परमात्मा जिसने सबकी रचना की है, वह भी सत्य है।
ਕੋਟਿ ਮਧੇ ਕਿਨੈ ਬਿਰਲੈ ਚੀਨਾ ॥
करोड़ों में कोई दुर्लभ व्यक्ति ही उसको जानता है।
ਭਲਾ ਭਲਾ ਭਲਾ ਤੇਰਾ ਰੂਪ ॥
हे प्रभु ! तेरा रूप कितना भला-सुन्दर है।
ਅਤਿ ਸੁੰਦਰ ਅਪਾਰ ਅਨੂਪ ॥
हे ईश्वर ! तुम अत्यंत सुन्दर, अपार एवं अनूप हो।
ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲ ਤੇਰੀ ਬਾਣੀ ॥
हे परमात्मा ! तेरी वाणी अति पवित्र, निर्मल एवं मधुर है।
ਘਟਿ ਘਟਿ ਸੁਨੀ ਸ੍ਰਵਨ ਬਖ੍ਯ੍ਯਾਣੀ ॥
प्रत्येक व्यक्ति इसको कानों से सुनता एवं व्याख्या करता है।
ਪਵਿਤ੍ਰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਪੁਨੀਤ ॥
वह पवित्र पावन हो जाता है
ਨਾਮੁ ਜਪੈ ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥੮॥੧੨॥
हे नानक ! जो व्यक्ति अपने मन में प्रेम से भगवान् के नाम का जाप करता है। ॥ ८ ॥ १२ ॥
ਸਲੋਕੁ ॥
शलोक॥
ਸੰਤ ਸਰਨਿ ਜੋ ਜਨੁ ਪਰੈ ਸੋ ਜਨੁ ਉਧਰਨਹਾਰ ॥
जो व्यक्ति संतों की शरण में आता है, उस व्यक्ति का उद्धार हो जाता है।
ਸੰਤ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਨਾਨਕਾ ਬਹੁਰਿ ਬਹੁਰਿ ਅਵਤਾਰ ॥੧॥
हे नानक ! संतों की निन्दा करने से प्राणी पुनः पुनः जन्म लेता रहता है॥ १॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
अष्टपदी॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਆਰਜਾ ਘਟੈ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य की आयु कम हो जाती है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਜਮ ਤੇ ਨਹੀ ਛੁਟੈ ॥
संत को दुःखी करने से मनुष्य यमदूतों से नहीं बच सकता।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸੁਖੁ ਸਭੁ ਜਾਇ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य के समस्त सुख नाश हो जाते हैं।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਨਰਕ ਮਹਿ ਪਾਇ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य नरक में जाता है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਮਤਿ ਹੋਇ ਮਲੀਨ ॥
संत को दु:खी करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸੋਭਾ ਤੇ ਹੀਨ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य की शोभा समाप्त हो जाती है।
ਸੰਤ ਕੇ ਹਤੇ ਕਉ ਰਖੈ ਨ ਕੋਇ ॥
संत से तिरस्कृत पुरुष की कोई भी रक्षा नहीं कर सकता।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਥਾਨ ਭ੍ਰਸਟੁ ਹੋਇ ॥
संत को दु:खी करने से स्थान भ्रष्ट हो जाता है।
ਸੰਤ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਕ੍ਰਿਪਾ ਜੇ ਕਰੈ ॥
यदि कृपा के घर संत स्वयं कृपा करे तो
ਨਾਨਕ ਸੰਤਸੰਗਿ ਨਿੰਦਕੁ ਭੀ ਤਰੈ ॥੧॥
हे नानक ! सत्संगति में निंदक भी (भवसागर से) पार हो जाता है॥ १॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੂਖਨ ਤੇ ਮੁਖੁ ਭਵੈ ॥
संत को दु:खी करने से मुख अष्ट हो जाता है।
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਕਾਗ ਜਿਉ ਲਵੈ ॥
संत को दु:खी करने वाला पुरुष कौए के समान निन्दा करता रहता है।
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸਰਪ ਜੋਨਿ ਪਾਇ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य सर्पयोनि में पड़ता है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤ੍ਰਿਗਦ ਜੋਨਿ ਕਿਰਮਾਇ ॥
संत को दु:खी करने वाला मनुष्य कीड़े इत्यादि की त्रिगद योनि में भटकता है।
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮਹਿ ਜਲੈ ॥
संत को दु:खी करने वाला मनुष्य तृष्णा की अग्नि में जलता रहता है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸਭੁ ਕੋ ਛਲੈ ॥
संत को दु:खी करने वाला सबके साथ छल-कपट करता रहता है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤੇਜੁ ਸਭੁ ਜਾਇ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य का सारा तेज-प्रताप नाश हो जाता है।
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਨੀਚੁ ਨੀਚਾਇ ॥
संत को दु:खी करने से मनुष्य नीचों से भी नीच महानीच हो जाता है।
ਸੰਤ ਦੋਖੀ ਕਾ ਥਾਉ ਕੋ ਨਾਹਿ ॥
संत के दोषी का कोई सुख का सहारा नहीं रहता।