Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 85

ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਉਬਰੇ ਸਾਚਾ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥੧॥ हे नानक ! हृदय में प्रभु के नाम को स्थापित कर गुरमुख प्राणी आध्यात्मिक पतन से बच जाते हैं। ॥ १ ॥
ਮਃ ੧ ॥ महला १ II
ਗਲੀ ਅਸੀ ਚੰਗੀਆ ਆਚਾਰੀ ਬੁਰੀਆਹ ॥ बातों में हम उत्तम विचार व्यक्त करते हैं परन्तु आचरण से अपवित्र हैं।
ਮਨਹੁ ਕੁਸੁਧਾ ਕਾਲੀਆ ਬਾਹਰਿ ਚਿਟਵੀਆਹ ॥ मन में हम अशुद्ध और मलिन हैं परन्तु बाहरी वेशभूषा से पवित्र दिखते हैं।
ਰੀਸਾ ਕਰਿਹ ਤਿਨਾੜੀਆ ਜੋ ਸੇਵਹਿ ਦਰੁ ਖੜੀਆਹ ॥ हम उन लोगों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।
ਨਾਲਿ ਖਸਮੈ ਰਤੀਆ ਮਾਣਹਿ ਸੁਖਿ ਰਲੀਆਹ ॥ जो जीव पति-परमेश्वर के प्रेम से ओत-प्रोत हैं और वें प्रभु के प्रेम का आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करते हैं।
ਹੋਦੈ ਤਾਣਿ ਨਿਤਾਣੀਆ ਰਹਹਿ ਨਿਮਾਨਣੀਆਹ ॥ यद्यपि वें सशक्त होने पर भी सदैव विनम्रतापूर्वक एवं शक्तिहीन व्यवहार करते हैं।
ਨਾਨਕ ਜਨਮੁ ਸਕਾਰਥਾ ਜੇ ਤਿਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਲਾਹ ॥੨॥ हे नानक ! हमारा जीवन तभी सफल हो सकता है, यदि हम उन मुक्तात्माओं के साथ संगति करें ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਤੂੰ ਆਪੇ ਜਲੁ ਮੀਨਾ ਹੈ ਆਪੇ ਆਪੇ ਹੀ ਆਪਿ ਜਾਲੁ ॥ हे जगत् के स्वामी ! यह संसार एक गहरे सागर के समान है जिसमें आप स्वयं ही जल है, आप ही जल में रहने वाली मछलियाँ(प्राणी) हैं और आप स्वयं ही मछली को फँसाने वाला जाल(सांसारिक आकर्षण) हैं।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਜਾਲੁ ਵਤਾਇਦਾ ਆਪੇ ਵਿਚਿ ਸੇਬਾਲੁ ॥ आप स्वयं ही मछेरा बनकर मछली को पकड़ने हेतु सांसारिक आकर्षणों का जाल फैंकते हो और आप ही वह चारा (सांसारिक संपत्ति) हैं जिसमें मछलियाँ (मनुष्य) फँसी रहती हैं।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਕਮਲੁ ਅਲਿਪਤੁ ਹੈ ਸੈ ਹਥਾ ਵਿਚਿ ਗੁਲਾਲੁ ॥ हे ईश्वर ! आप स्वयं माया (सांसारिक इच्छाओं) की धूल से अप्रभावित रहते हो, जैसे सुंदर कमल गहरे गंदे पानी से निर्लिप्त रहता है जिसमें वह उगता है।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਮੁਕਤਿ ਕਰਾਇਦਾ ਇਕ ਨਿਮਖ ਘੜੀ ਕਰਿ ਖਿਆਲੁ ॥ हे भगवान् ! जो प्राणी क्षण भर के लिए भी आपका चिन्तन करते हैं। आप स्वयं ही उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देते हो।
ਹਰਿ ਤੁਧਹੁ ਬਾਹਰਿ ਕਿਛੁ ਨਹੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੇਖਿ ਨਿਹਾਲੁ ॥੭॥ हे परमेश्वर ! आपकी आज्ञा से परे कुछ भी नहीं, इसलिए गुरु के शब्द द्वारा आपका दर्शन करके कोई भी प्राणी कृतार्थ हो जाता है।॥ ७॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ जो जीव-स्त्री परमेश्वर की आज्ञा को नहीं समझती, वह बहुत विलाप करती है।
ਹੁਕਮੁ ਨ ਜਾਣੈ ਬਹੁਤਾ ਰੋਵੈ ॥ उसका मन व्यथित होता है, इसलिए वह सुख की गहरी नींद (मन की शांति से)नहीं सोती।
ਅੰਦਰਿ ਧੋਖਾ ਨੀਦ ਨ ਸੋਵੈ ॥ यदि जीव-स्त्री अपने पति-प्रभु की इच्छानुसार चले,
ਜੇ ਧਨ ਖਸਮੈ ਚਲੈ ਰਜਾਈ ॥ ਦਰਿ ਘਰਿ ਸੋਭਾ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਈ ॥ तो वह अपने प्रभु की उपस्थिति में रहती है और यहाँ इस लोक एवं उस लोक में सम्मान प्राप्त करती है।
ਨਾਨਕ ਕਰਮੀ ਇਹ ਮਤਿ ਪਾਈ ॥ हे नानक ! उसे प्रभु को प्राप्त करने का यह ज्ञान भगवान् की कृपा द्वारा ही मिलता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸਚਿ ਸਮਾਈ ॥੧॥ गुरु की कृपा से वह सत्य में ही समा जाती है।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥ महला ३॥
ਮਨਮੁਖ ਨਾਮ ਵਿਹੂਣਿਆ ਰੰਗੁ ਕਸੁੰਭਾ ਦੇਖਿ ਨ ਭੁਲੁ ॥ हे नामविहीन मनमुख स्वार्थी मानव ! माया का रंग कुसुम के फूल जैसा सुन्दर होता है। तू क्षणभंगुर सांसारिक आकर्षणों को देखकर भ्रमित मत हो।
ਇਸ ਕਾ ਰੰਗੁ ਦਿਨ ਥੋੜਿਆ ਛੋਛਾ ਇਸ ਦਾ ਮੁਲੁ ॥ इन सांसारिक आकर्षणों का आनंद कुसुम के रंग की तरह अल्पकालिक और व्यर्थ है।
ਦੂਜੈ ਲਗੇ ਪਚਿ ਮੁਏ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਗਵਾਰ ॥ माया के द्वंद्व में डूबे हुए आध्यात्मिक रूप से अंधे और अज्ञानी मूर्ख अपना जीवन व्यर्थ कर देते हैं।
ਬਿਸਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟ ਸੇ ਪਇ ਪਚਹਿ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥ मरणोपरांत वे विष्टा के कीड़े बनते हैं, जो पुनः पुनः जन्म लेकर विष्टा में जलते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਰਤੇ ਸੇ ਰੰਗੁਲੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥ हे नानक ! जो व्यक्ति सहज अवस्था में गुरु की शिक्षाओं के अनुसार रहते हैं, वें भगवान् के प्रेम द्वारा उसके नाम में मग्न रहते हैं तथा सदैव ही सुख भोगते हैं।
ਭਗਤੀ ਰੰਗੁ ਨ ਉਤਰੈ ਸਹਜੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੨॥ प्रभु के प्रति उनकी भक्ति एवं प्रेम कभी नाश नहीं होता और वे सहज अक्स्था में समाए रहते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥ पउड़ी ॥
ਸਿਸਟਿ ਉਪਾਈ ਸਭ ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿਆ ॥ हे ईश्वर ! आपने समूची सृष्टि की रचना की है और आप स्वयं ही भोजन देकर सबका पालन करते हो।
ਇਕਿ ਵਲੁ ਛਲੁ ਕਰਿ ਕੈ ਖਾਵਦੇ ਮੁਹਹੁ ਕੂੜੁ ਕੁਸਤੁ ਤਿਨੀ ਢਾਹਿਆ ॥ कई प्राणी छल-कपट करके भोजन खाते हैं और अपने मुख से वह झूठ एवं असत्यता व्यक्त करते हैं।
ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਭਾਵੈ ਸੋ ਕਰਹਿ ਤੁਧੁ ਓਤੈ ਕੰਮਿ ਓਇ ਲਾਇਆ ॥ हे प्रभु ! वें आपकी इच्छा के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि (उनके पिछले कर्मों के अनुसार) आपने उन्हें ऐसे कर्म सौंपे हैं जिनमें झूठ और धोखा शामिल है।
ਇਕਨਾ ਸਚੁ ਬੁਝਾਇਓਨੁ ਤਿਨਾ ਅਤੁਟ ਭੰਡਾਰ ਦੇਵਾਇਆ ॥ कई प्राणियों को आपने (धार्मिक जीवन के बारे में)सत्य नाम की सूझ प्रदान की है और
ਹਰਿ ਚੇਤਿ ਖਾਹਿ ਤਿਨਾ ਸਫਲੁ ਹੈ ਅਚੇਤਾ ਹਥ ਤਡਾਇਆ ॥੮॥ उन्हें आपने संतोष का अक्षय खजाना दिया है।
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥ जो प्राणी ईश्वर का स्मरण करके प्राप्त पदार्थों उपभोग करते हैं, उनका जीवन सुखमय होता है; परन्तु जो प्रभु को त्याग देते हैं, वे सदैव असन्तुष्ट रहते हैं और याचना करते रहते हैं। ॥८॥
ਪੜਿ ਪੜਿ ਪੰਡਿਤ ਬੇਦ ਵਖਾਣਹਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਸੁਆਇ ॥ श्लोक महला ३ II
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਮਨ ਮੂਰਖ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥ माया-मोह के स्वाद कारण पण्डित वेदों को व्यापक रूप से पढ़-पढ़कर उनका कथन करते हैं।
ਜਿਨਿ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਦਿਤਾ ਤਿਸੁ ਕਬਹੂੰ ਨ ਚੇਤੈ ਜੋ ਦੇਂਦਾ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿ ॥ जो द्वैत(माया) के प्रेम में के कारण ईश्वर नाम को विस्मृत कर देता है। ऐसे स्वेच्छाचारी मूर्ख को (असंतोष के रूप में) दंड मिलता है।
ਜਮ ਕਾ ਫਾਹਾ ਗਲਹੁ ਨ ਕਟੀਐ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ जिस परमेश्वर ने मनुष्य को प्राण और शरीर दिया है, ऐसा व्यक्ति प्रभु को कदाचित् स्मरण नहीं करता, जो सबका भोजन देकर पालन कर रहा है।
ਮਨਮੁਖਿ ਕਿਛੂ ਨ ਸੂਝੈ ਅੰਧੁਲੇ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਕਮਾਇ ॥ मनमुख प्राणियों के गले यम-पाश प्रतिदिन बना रहता है और वे सदैव जन्म-मरण के बंधन में कष्ट सहन करते हैं।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥ आध्यात्मिक रूप से ज्ञानहीन स्वार्थी व्यक्ति (धार्मिक जीवन के बारे में) कुछ भी नहीं समझता और वही कुछ करता है जो पूर्व-जन्म के कर्मों के अनुसार करने के लिए पूर्व निर्धारित किया गया है।
ਸੁਖੁ ਮਾਣਹਿ ਸੁਖੁ ਪੈਨਣਾ ਸੁਖੇ ਸੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥ सौभाग्यवश जब सुखदाता सतगुरु जी मिलते हैं तो हरि-नाम मनुष्य के हृदय में निवास करने लगता है।
ਨਾਨਕ ਸੋ ਨਾਉ ਮਨਹੁ ਨ ਵਿਸਾਰੀਐ ਜਿਤੁ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਇ ॥੧॥ ऐसा व्यक्ति सुख ही भोगता है और उसका समूचा जीवन सुख में ही व्यतीत होता है।
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