Guru Granth Sahib Translation Project

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Page 33

ਸਤਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਸਦ ਭੈ ਰਚੈ ਆਪਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੧॥ सतगुरु के मिलन से प्रायः हृदय में परमात्मा का भय रहता है और वह स्वयं ही मन में आकर निवास करता है॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਕੋਇ ॥ हे जीव ! गुरुमुख होकर कोई दुर्लभ ही इस भेद को जान सकता है।
ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਕਰਮ ਕਮਾਵਣੇ ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਖੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ इस भेद को समझे बिना कर्म करने से सम्पूर्ण जीवन को व्यर्थ ही बिताना है॥ १॥ रहाउ ॥
ਜਿਨੀ ਚਾਖਿਆ ਤਿਨੀ ਸਾਦੁ ਪਾਇਆ ਬਿਨੁ ਚਾਖੇ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇ ॥ जिसने नाम-रस को चखा है, उसी ने इसका स्वाद पाया है, अर्थात्-जिस जीव ने प्रभु-नाम का सिमरन किया, उसी ने इसका आनंद अनुभव किया है, नाम-रस चखे बिना तो वह भ्रम में ही भटकते हैं।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸਾਚਾ ਨਾਮੁ ਹੈ ਕਹਣਾ ਕਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥ परमात्मा का सत्य नाम अमृत समान है, उसका आनंद वर्णन नहीं किया जा सकता।
ਪੀਵਤ ਹੂ ਪਰਵਾਣੁ ਭਇਆ ਪੂਰੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥ जिस जीव ने इस नामामृत का पान किया, यह पीते ही उस प्रभु के दरबार में स्वीकृत हो गया तथा वह परिपूर्ण परब्रह्म में अभेद हो गया ॥ २ ॥
ਆਪੇ ਦੇਇ ਤ ਪਾਈਐ ਹੋਰੁ ਕਰਣਾ ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥ यह नाम भी यदि वह प्रभु स्वयं कृपालु होकर प्रदान करे तो मिलता है अन्यथा और कुछ नहीं किया जा सकता।
ਦੇਵਣ ਵਾਲੇ ਕੈ ਹਥਿ ਦਾਤਿ ਹੈ ਗੁਰੂ ਦੁਆਰੈ ਪਾਇ ॥ उस देने वाले प्रभु के हाथ में ही यह आशीर्वाद है लेकिन उस दाता को गुरु द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
ਜੇਹਾ ਕੀਤੋਨੁ ਤੇਹਾ ਹੋਆ ਜੇਹੇ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥੩॥ जीव ने पूर्व जन्म में जो कर्म किए हैं, उनके अनुसार ही अब फल प्राप्त हुआ है और जो वर्तमान में कर्म वह कर रहा है, उस अनुसार फल भविष्य में प्राप्त होगा ॥ ३ ॥
ਜਤੁ ਸਤੁ ਸੰਜਮੁ ਨਾਮੁ ਹੈ ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਿਰਮਲੁ ਨ ਹੋਇ ॥ संयम, सत्य और इन्द्रिय-निग्रह ये सभी नाम के अंतर्गत आते हैं, नाम के बिना मन निर्मल नहीं होता।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥ सौभाग्य से ही जीव के मन में नाम बसता है, जिससे परमात्मा से मिलाप होता है।
ਨਾਨਕ ਸਹਜੇ ਹੀ ਰੰਗਿ ਵਰਤਦਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਪਾਵੈ ਸੋਇ ॥੪॥੧੭॥੫੦॥ नानक देव जी कथन करते हैं कि जो जीव स्वाभाविक ही प्रभु के प्रेम-रंग में रमण करता है, वही हरि-गुणों को प्राप्त करता है ॥ ४॥ १७ ॥ ५0॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ सिरीरागु महला ३ ॥
ਕਾਂਇਆ ਸਾਧੈ ਉਰਧ ਤਪੁ ਕਰੈ ਵਿਚਹੁ ਹਉਮੈ ਨ ਜਾਇ ॥ चाहे यदि जीव शरीर द्वारा साधना कर ले, कठिन तप कर ले, किन्तु यह सब कर लेने से उसके अंतर्मन से अहंत्व नहीं मिट जाता।
ਅਧਿਆਤਮ ਕਰਮ ਜੇ ਕਰੇ ਨਾਮੁ ਨ ਕਬ ਹੀ ਪਾਇ ॥ आत्म-ज्ञान हेतु किए जाने वाले बाह्य कर्म भी कर ले, तब भी वह कभी प्रभु-नाम प्राप्त नहीं कर सकता।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੧॥ परंतु जो जीव गुरु-उपदेश द्वारा जीवित मरता है अर्थात मोह -माया से अनासक्त होता है, उसके हृदय में आकर ही प्रभु का नाम बसता है॥ १॥
ਸੁਣਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਭਜੁ ਸਤਗੁਰ ਸਰਣਾ ॥ हे मेरे जीव रूपी मन ! सुनो, तुम सतगुरु की शरण में जाओ।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਛੁਟੀਐ ਬਿਖੁ ਭਵਜਲੁ ਸਬਦਿ ਗੁਰ ਤਰਣਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ गुरु की कृपा द्वारा ही माया के मोह से बचा जा सकता है और विषय-विकारों से लिप्त भवसागर को पार किया जा सकता है॥ १॥ रहाउ॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਸਭਾ ਧਾਤੁ ਹੈ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਵਿਕਾਰੁ ॥ समस्त जीव त्रिगुणात्मक माया की ओर भागते हैं और इसमें जो द्वैत-भाव है, वही विकारों की उत्पत्ति करने वाला है।
ਪੰਡਿਤੁ ਪੜੈ ਬੰਧਨ ਮੋਹ ਬਾਧਾ ਨਹ ਬੂਝੈ ਬਿਖਿਆ ਪਿਆਰਿ ॥ वेद-शास्त्रादि को पढ़ने वाला पंडित भी मोहपाश में बँधा हुआ है, तथा माया के वश में होने के कारण परमात्मा को भी नहीं बूझता।
ਸਤਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਤ੍ਰਿਕੁਟੀ ਛੂਟੈ ਚਉਥੈ ਪਦਿ ਮੁਕਤਿ ਦੁਆਰੁ ॥੨॥ अर्थात् जीव गुरु चरणों में लगकर पाप, गुण और शक्ति के तीन अवस्थाओं से मुक्त होकर मोक्ष की चौथी अवस्था को प्राप्त करता है। ॥ २॥
ਗੁਰ ਤੇ ਮਾਰਗੁ ਪਾਈਐ ਚੂਕੈ ਮੋਹੁ ਗੁਬਾਰੁ ॥ यदि गुरु के उपदेश द्वारा ज्ञान-भक्ति रूपी मार्ग पर जीव चले तो मोह रूपी गर्द(धुंद) दूर हो जाती है।
ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਤਾ ਉਧਰੈ ਪਾਏ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥ यदि जीव गुरु के उपदेश में लीन होकर माया के मोह से मृत हो जाए तो वह भवसागर से तर जाता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਿਲਿ ਰਹੈ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾਰੁ ॥੩॥ गुरु की कृपा द्वारा ही मानव जीव सत्य नाम वाले परमात्मा को मिल सकता है ॥ ३ ॥
ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਅਤਿ ਸਬਲ ਹੈ ਛਡੇ ਨ ਕਿਤੈ ਉਪਾਇ ॥ यह चंचल मन अत्यंत बलशाली है, किसी भी यत्न से यह मन जीव को नहीं छोड़ता।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਦੁਖੁ ਲਾਇਦਾ ਬਹੁਤੀ ਦੇਇ ਸਜਾਇ ॥ द्वैत-भाव वालों को यह मन कष्ट देता है तथा बहुत यातना देता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਲਗੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਗਵਾਇ ॥੪॥੧੮॥੫੧॥ गुरु जी कथन करते हैं कि जो जीव गुरु उपदेश द्वारा अहंत्व को गंवा कर नाम-सिमरन में लीन रहते हैं, वे यमों की यातना से बच गए हैं ॥ ४॥ १८ ॥ ५१॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥ सिरीरागु महला ३ ॥
ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਦੇਇ ਦ੍ਰਿੜਾਇ ॥ जब परमेश्वर कृपा करता है, तब गुरु की प्राप्ति होती है, और गुरु हरिनाम को दृढ़ करवा देता है।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇ ॥ गुरु के बिना हरिनाम को किसी ने भी प्राप्त नहीं किया और नामहीन व्यक्तियों ने अपना जन्म व्यर्थ गंवाया है।
ਮਨਮੁਖ ਕਰਮ ਕਮਾਵਣੇ ਦਰਗਹ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੧॥ अपने मन की बात मान कर जो व्यक्ति कर्म करते हैं, उन्हें परमात्मा की सभा में सजा मिलती है॥ १॥
ਮਨ ਰੇ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਚੁਕਾਇ ॥ हे मन ! तू द्वैत-भाव को दूर कर दे।
ਅੰਤਰਿ ਤੇਰੈ ਹਰਿ ਵਸੈ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇ ॥ ਰਹਾਉ ॥ क्योंकि तेरे अंदर हरि का वास है, उसकी प्राप्ति के लिए गुरु की सेवा करो, तभी सुखों की प्राप्ति होगी॥ रहाउ॥
ਸਚੁ ਬਾਣੀ ਸਚੁ ਸਬਦੁ ਹੈ ਜਾ ਸਚਿ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥ जब जीव सत्य-स्वरूप परमात्मा से प्रेम करता है तो उसके वचन एवं कर्म सत्य हो जाते हैं।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਕ੍ਰੋਧੁ ਨਿਵਾਰਿ ॥ परमात्मा का नाम मन में बस जाए तो अहम् व क्रोधादि समस्त विकार निवृत्त हो जाते हैं।
ਮਨਿ ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਤਾ ਪਾਏ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥੨॥ निर्मल मन से प्रभु के नाम का ध्यान करने से ही जीव मोक्ष द्वार को प्राप्त करता है॥ २॥
ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਜਗੁ ਬਿਨਸਦਾ ਮਰਿ ਜੰਮੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥ अहंकार में ही सम्पूर्ण जगत् नष्ट होता है तथा पुनःपुनः आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है।
ਮਨਮੁਖ ਸਬਦੁ ਨ ਜਾਣਨੀ ਜਾਸਨਿ ਪਤਿ ਗਵਾਇ ॥ स्वेच्छाचारी जीव गुरु-उपदेश को नहीं जानते, इसलिए वे अपना सम्मान खो कर चले जाएँगे।
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਨਾਉ ਪਾਈਐ ਸਚੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੩॥ गुरु-सेवा द्वारा प्रभु नाम प्राप्त होता है और उस सत्य स्वरूप परमात्मा में लीन होते हैं। ॥ ३॥
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